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  • अब सुरक्षा बलों के जरिए विपक्ष शासित राज्य सरकारों को परेशान करने का प्रयास

    अब सुरक्षा बलों के जरिए विपक्ष शासित राज्य सरकारों को परेशान करने का प्रयास

    अनिल जैन
    केंद्र सरकार ने पिछले छह-सात वर्षों से राज्यों के अधिकारों में कटौती और विपक्ष शासित राज्य सरकारों के साथ टकराव पैदा करने का एक सुनियोजित सिलसिला चला रखा है। इस सिलसिले में विपक्ष शासित राज्य सरकारों को अस्थिर या परेशान करने के लिए राज्यपाल, चुनाव आयोग, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी),  आयकर,  केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई), राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) आदि संवैधानिक संस्थाओं और केंद्रीय एजेंसियों का जिस तरह से बेजा इस्तेमाल किया जा रहा है, वह भी किसी से छिपा नहीं है।

    लेकिन पिछले कुछ समय से इस सिलसिले में केंद्रीय सुरक्षा बलों का इस्तेमाल भी किया जाने लगा है। इस सिलसिले को और आगे बढ़ाते हुए अब केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अपने एक नए और असाधारण आदेश के जरिए पंजाब और पश्चिम बंगाल में सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) द्वारा लोगों से पूछताछ करने, उनकी तलाशी लेने और गिरफ्तारी करने के अधिकार क्षेत्र को बढ़ा दिया है।

    पंजाब में कांग्रेस की सरकार है और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की। ये दोनों राज्य भी दूसरे कई राज्यों की तरह सीमावर्ती राज्य हैं। पंजाब की पश्चिमी सीमा जहां पाकिस्तान से सटी हुई है, वहीं पश्चिम बंगाल की सीमाएं बांग्लादेश, नेपाल और भूटान से मिलती हैं। इन दोनों सरहदी सूबों में अभी तक बीएसएफ का निगरानी अधिकार क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय सीमा के अंदर 15 किलोमीटर तक सीमित था, जिसे बढ़ाकर अब 50 किलोमीटर तक लागू कर दिया गया है।

    हालांकि केंद्रीय गृह मंत्रालय का यह आदेश असम में भी लागू होगा, जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, लेकिन इसी आदेश में भाजपा शासित गुजरात में बीएसएफ के निगरानी अधिकार क्षेत्र को 80 किलोमीटर से घटाकर 50 किलोमीटर कर दिया है। गौरतलब है कि गुजरात भी सीमावर्ती राज्य है और उसकी उत्तर-पश्चिमी सीमा अंतरराष्ट्रीय है, जो कि पाकिस्तान से लगी हुई है। इस लिहाज से वह भी संवेदनशील राज्य है और वहां हाल ही में देश के चर्चित अडानी उद्योग समूह के निजी मुंद्रा बंदरगाह पर 3000 किलो हेरोइन पकड़ी गई थी, जिसके बारे में सरकार तो मौन है ही, कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया ने भी इस खबर का जिक्र तक करना मुनासिब नहीं समझा।

    गुजरात की तरह राजस्थान भी पाकिस्तान की सीमा से लगा राज्य है और वहां पहले से बीएसएफ का निगरानी अधिकार क्षेत्र 50 किलोमीटर तक है, जिसे नए आदेश में भी बरकरार रखा गया है। पूर्वोत्तर में मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय के पूरे इलाके में बीएसएफ के अधिकार क्षेत्र को भी पहले की तरह बनाए रखा गया है।

    बहरहाल पंजाब और पश्चिम बंगाल के संदर्भ में केंद्र सरकार के नए आदेश से यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या वह केंद्रीय अर्धसैनिक बलों का भी राजनीतिकरण नहीं कर रही है? यह सवाल इसलिए उठता है, क्योंकि इसी साल पश्चिम बंगाल में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान भी यह मुद्दा जोर-शोर से उठा था। उस चुनाव में केंद्रीय बलों की भारी संख्या में तैनाती और एक मतदान केंद्र पर केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के जवानों की फायरिंग में कई लोगों के मारे जाने की घटना की खूब आलोचना हुई थी। वहां चुनाव में तो भाजपा नहीं जीत सकी थी लेकिन चुनाव के बाद उसने अपने जीते हुए सभी 75 उम्मीदवारों यानी विधायकों की सुरक्षा में सीआरपीएफ के जवान तैनात कर दिए थे। चुनाव के दौरान भी कई भाजपा उम्मीदवारों और चुनाव से पहले भाजपा में दूसरे दलों से आए कई नेताओं को सीआरपीएफ की सुरक्षा मुहैया कराई गई थी। अर्धसैनिक बलों के राजनीतिकरण की यह एक नई मिसाल थी।

    इससे पहले सेना के राजनीतिक इस्तेमाल की शुरुआत तो खुद प्रधानमंत्री ने ही पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान कर दी थी, जब उन्होंने पुलवामा कांड में मारे गए सेना के जवानों के चित्र अपनी चुनावी रैलियों के मंच पर लगवाए थे और उनके नाम पर वोट मांगे थे। चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ और तीनों सेनाओं के प्रमुखों की ओर से कश्मीर, पाकिस्तान और विवादास्पद रक्षा सौदों को लेकर राजनीतिक बयानबाजी का सिलसिला भी केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद ही शुरू हो गया था जो अब भी जारी है। यह और बात है कि चीनी सेना की भारतीय सीमाओं में घुसपैठ पर हमारी सेनाओं के प्रमुख बहुत कम बोलते हैं और प्रधानमंत्री तो बिल्कुल ही नहीं बोलते हैं।

    बहरहाल अब केंद्र सरकार सीमा सुरक्षा के नाम पर राज्यों में बीएसएफ की भूमिका बढ़ा रही है। इसीलिए पंजाब और पश्चिम बंगाल की सरकारों ने केंद्र सरकार के इस फैसले पर आपत्ति जताते हुए इसे देश के संघीय ढांचे को बिगाड़ने वाला राजनीति से प्रेरित कदम करार दिया है। लेकिन लगता नहीं है कि केंद्र सरकार अपने कदम पीछे खिंचेगी।

    ऐसा लग रहा है कि केंद्र सरकार ने पंजाब में राज्य सरकार और सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के अंदरुनी विवादों का फायदा उठाने के इरादे से राज्य में बीएसएफ की भूमिका बढ़ाई है। पंजाब की सीमा पाकिस्तान से लगती है और इस वजह से सीमा के अंदर 15 किलोमीटर तक बीएसएफ की गश्त और चौकसी चलती है। लेकिन केंद्र सरकार ने अब इसे बढ़ा कर 50 किलोमीटर कर दिया है। पंजाब के मुख्यमंत्री पद से हटाए गए कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपनी खुन्नस निकालने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा उठाया है। इस सिलसिले में वे मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के तत्काल बाद दिल्ली आकर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से मिले और उसके बाद केंद्र सरकार ने आनन फानन में पंजाब और पश्चिम बंगाल में बीएसएफ की निगरानी का दायरा बढ़ाने का ऐलान कर दिया। गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल सरकार के साथ केंद्र का टकराव पहले से ही जारी है।

    सवाल यह भी उठता है कि सीमा पर बीएसएफ जब 15 किलोमीटर तक सारी चौकसी के बावजूद पाकिस्तानी ड्रोन या हथियारों की आमद और नशीले पदार्थों की तस्करी नहीं रोक पा रही है तो अब 50 किलोमीटर तक कैसे रोकेगी? जाहिर है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय के ताजा आदेश का सीधा मकसद बीएसएफ के जरिए राज्य की अंदरुनी सुरक्षा को नियंत्रित करना है। उसके इस फैसले से देश का संघीय ढांचा गड़बड़ाएगा और राज्य की पुलिस के साथ केंद्रीय सुरक्षा बलों का टकराव भी बढ़ेगा। हालांकि केंद्र सरकार ने कहने को तो और भी राज्यों में बीएसएफ की चौकसी का दायरा बढ़ाया-घटाया है लेकिन वह सब दिखावा है। असली मकसद पंजाब और पश्चिम बंगाल में क्रमश: कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस की सरकार को परेशान करना और उनके साथ टकराव बढ़ाना है।

    पिछले छह-सात वर्षों के दौरान जो एक नई और खतरनाक प्रवृत्ति विकसित हुई, वह है सरकार, सत्तारूढ़ दल और मीडिया द्वारा सेना का अत्यधिक महिमामंडन। यह सही है कि हमारे सैन्य और अर्ध सैन्य बलों को अक्सर तरह-तरह की मुश्किल चुनौतियों से जूझना पड़ता है। इस नाते उनका सम्मान होना चाहिए लेकिन उनको किसी भी मामले में सवालों से परे मान लेना, दलीय राजनीतिक हितों को साधने के लिए उनका इस्तेमाल किया जाना और सैन्य नेतृत्व द्वारा राजनीतिक बयानबाजी करना तो एक तरह से लोकतांत्रिक व्यवस्था से सैन्यवादी राष्ट्रवाद की तरफ कदम बढ़ाने जैसा है।

    केंद्र सरकार विपक्ष शासित राज्यों में जहां राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर केंद्रीय अर्ध सैनिक बलों का राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रही है, वहीं भाजपा शासित राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पुलिस का तो इस कदर राजनीतिकरण किया जा चुका है कि वह सत्तारूढ़ दल के मोर्चा संगठन के रूप में ही कार्य कर रही है।

    पुलिस के राजनीतिकरण की सबसे भद्दी मिसाल हाल के वर्षों में उत्तर प्रदेश में देखी गई है, जहां एनएसए यानी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का बेहताशा दुरुपयोग कर बेकुसूर लोगों को बिना मुकदमा चलाए जेल में डाला जा रहा है। इसी साल अप्रैल महीने में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एनएसए के 120 मामलों में दायर हैबियस कार्पस यानी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं की सुनवाई करते हुए 94 मामलों को खारिज कर उत्तर प्रदेश सरकार को कड़ी फटकार लगाई थी। अदालत ने इन मामलों के आरोपियों को रिहा करने का आदेश देते हुए कहा था कि ऐसा लगता है कि जिला मजिस्ट्रेटों ने ऐसे मामलों को मंजूरी देने में अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया और एनएसए के मामलों की समीक्षा के लिए बने सलाहकार बोर्ड के सामने भी इन मामलों को नहीं रखा गया।

    केंद्र सरकार के मातहत काम करने वाली दिल्ली पुलिस ने भी पिछले कुछ सालों के दौरान जेएनयू और जामिया से लेकर शाहीन बाग तक और कोरोना काल में तब्लीगी जमात के लोगों को कोरोना फैलाने का जिम्मेदार ठहराने के मामले में भी केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ दल की कठपुतली बनकर काम किया है। यही नहीं इन सारे मामलों में पुलिस की सांप्रदायिक और पक्षपातपूर्ण कार्रवाई का खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के रामलीला मैदान की एक सभा में सार्वजनिक तौर पर बचाव किया और पुलिस को शाबासी दी।

    यह और बात है कि बाद में दिल्ली पुलिस को इन मामलों में अदालतों की फटकार सुनना पड़ी और नीचा देखना पड़ा। इस सिलसिले में पिछले एक साल से दिल्ली की सीमाओं पर जारी किसान आंदोलन और दो साल पहले दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान भी पुलिस की भूमिका को देखा जा सकता है। उन दंगों को लेकर हाल ही में विभिन्न अदालतों ने दिल्ली पुलिस को उसकी पक्षपातपूर्ण भूमिका के लिए कड़ी फटकार लगाई है।

    इसके बावजूद न तो दिल्ली पुलिस के और न ही देश के किसी अन्य राज्य की पुलिस के रवैये मे कोई सुधार हुआ। यह सिलसिला लोकतंत्र के भीतर पुलिस को वर्दीधारी गुंडों का गिरोह बनाने वाला है। अगर देश में पुलिस के बेजा इस्तेमाल यह सिलसिला इसी तरह जारी रहा तो देश को पूरी तरह पुलिस स्टेट में तब्दील होने से नहीं रोका जा सकेगा और इंसाफ के सिलसिले की इस पहली कड़ी पर लोगों का जरा भी भरोसा नही रह जाएगा।

  • पेट्रोल-डीजल की कीमतों को लेकर भाजपा ने विपक्षी सरकारों पर साधा निशाना

    पेट्रोल-डीजल की कीमतों को लेकर भाजपा ने विपक्षी सरकारों पर साधा निशाना

    नई दिल्ली | भाजपा ने विपक्षी दलों के राज्य सरकारों पर आरोप लगाते हुए कहा कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत बढ़ने के बावजूद नरेंद्र मोदी सरकार ने लोगों को राहत देने के लिए एक्साइज ड्यूटी को घटा दिया। एनडीए शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी जनता को राहत देने के लिए वैट में कटौती कर दी लेकिन विपक्षी दलों की राज्य सरकारों को जनता के हितों से कोई मतलब नहीं है।

    भाजपा राष्ट्रीय मुख्यालय में मीडिया से बात करते हुए भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता गोपाल कृष्ण अग्रवाल ने कहा कि केंद्र और एनडीए शासित राज्यों द्वारा दिए गए छूट की वजह से भारत के लोगों को 88 हजार करोड़ रुपये की बचत हुई है। उन्होंने कहा कि दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यह 88 हजार करोड़ रुपये की भारी भरकम राशि लोगों की जेबों में बची है और इसकी वजह से उनकी क्रय क्षमता बढ़ेगी और आने वाले दिनों में इसकी वजह से अर्थव्यवस्था में डिमांड भी बढ़ेगी।

    विपक्षी शासित राज्यों पर हमला बोलते हुए भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता ने कहा कि पेट्रोल-डीजल की कीमतों को लेकर हंगामा करने वाले विपक्षी दलों द्वारा शासित 9 राज्यों ने अभी तक जनता को कोई राहत नहीं दी है। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार के फैसले के बाद एनडीए शासित तमाम राज्यों ने अपनी तरफ से वैट घटा दिया लेकिन विरोधी दलों की सरकारों में से अभी तक सिर्फ राजस्थान ने ही वैट घटाया है।

    गोपाल कृष्ण अग्रवाल ने कहा कि विरोधी दलों द्वारा शासित 9 राज्यों – आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली, झारखंड, केरल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल ने अभी तक जनता को अपनी तरफ से कोई राहत नहीं दी है। उन्होंने इसे लेकर इन तमाम राज्यों के मुख्यमंत्रियों की आलोचना भी की।

    पार्टी मुख्यालय में मीडिया से बात करते हुए भाजपा राष्ट्रीय प्रवक्ता ने दावा किया कि कोरोना के कठिन दौर के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले मजबूत स्थिति में है। उन्होंने कहा कि भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर मोदी सरकार ने हमेशा सही समय पर, सही दिशा में सही कदम उठाकर भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाया है।

    अग्रवाल ने कहा कि कोरोना काल में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कम कीमत के बावजूद सरकार ने उस समय पेट्रोल-डीजल की कीमत को इसलिए नहीं घटाया था क्योंकि उससे मिलने वाले टैक्स का इस्तेमाल संसाधनों को बढ़ाने के लिए किया गया था, ताकि कोरोना के संकट काल में अन्य क्षेत्रों को मजबूती दी जा सके। लेकिन अब अर्थव्यवस्था की जरूरत के अनुसार और महंगाई को नियंत्रित रखने के लिए अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की बढ़ रही कीमतों के बावजूद सरकार ने एक्साइज घटा कर लोगों को राहत देने का काम किया है।

    एयर इंडिया के निजीकरण का हवाला देते हुए भाजपा प्रवक्ता ने कहा कि 18 साल बाद किसी पीएसयू का निजीकरण किया गया है और अभी कई अन्य पीएसयू का भी निजीकरण किया जाना है और यह सरकार की इच्छाशक्ति और मजबूत इरादों को दिखाता है।