नीरज कुमार
लोहिया ऐसे राजनीतिक चिंतक हैं, जो स्त्री के शोषण के कारणों की जड़ पर चोट करते हैं और इसका समाधान स्त्री की राजनीतिक भूमिका में तलाशते हैं। आज से कई दशक पहले जब देश की राजनीति की चिंता में स्त्री विमर्श परिवार नियोजन, स्त्री-शिक्षा, बराबर वेतन आदि के मुद्दों तक सीमित था और स्वयं भारतीय स्त्रीवाद भी अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सचेत नहीं था, तब ही लोहिया ने भारतीय राजनीति के स्त्री विरोधी स्वर को पहचान कर उस पर प्रहार किया- “देश की सारी राजनीति में, कांग्रेसी, कम्यूनिस्ट अथवा समाजवादी, चाहे जानबूझकर कर या परंपरा के द्वारा, राष्ट्रीय सहमति का एक बहुत बड़ा क्षेत्र है और वह यह है कि शूद्र और औरत को, जो पूरी आबादी के तीन-चौथाई है, दबा कर और राजनीति से दूर रखो.” सालों पहले लोहिया का कहा वाक्य आज भी स्त्रियों के संदर्भ में उतना ही सच है, जितना उस समय था। महिला आरक्षण विधेयक का सालों से संसद में अटके रहना इसका प्रमाण है।
औरत और मर्द की गैरबराबरी को लोहिया सभी किस्म की गैरबराबरी का आधार मानते हैं। उनका कहना है-“नर-नारी की गैर-बराबरी शायद आधार है, और सब गैर-बराबरी के लिए, या अगर आधार नहीं है, तो जितने भी आधार हैं, बुनियाद की चट्टानें हैं, समाज में गैरबराबरी की और नाइंसाफी की, उनमें यह चट्टान सबसे बड़ी चट्टान है। मर्द-औरत के बीच की गैर-बराबरी, नर-नारी की गैर-बराबरी.” लोहिया के इस कथन में यह बात अंतर्निहित है कि गैरबराबरी का पहला पाठ कोई भी व्यक्ति अपने बालपन के लैंगिक संदर्भ में सीखता है। यह गैरबराबरी या तो भाई-बहन के बीच की होती है या माता-पिता के बीच की या परिवार में किसी अन्य रिश्ते में प्रदर्शित होती है। गैरबराबरी का बीज व्यक्ति के भीतर यहीं से जन्म लेता है और बाद में वह हर तरह की गैरबराबरी में तब्दील होता है। इसीलिए लोहिया को समतामूलक समाज के निर्माण के लिए लैंगिक विषमता को मिटाना अनिवार्य और पहला राजनीतिक कर्म लगता है। तभी उन्होंने कहा है-“कई सौ या हजार बरस से हिंदू नर का दिमाग अपने हित को लेकर गैर-बराबरी के आधार पर बहुत ज्यादा गठित हो चुका है. उस दिमाग को ठोकर मार-मार के बदलना है। नर-नारी के बीच में बराबरी कायम रखना है।”
लोहिया के स्त्री संबंधी विचार की खासियत यह है कि वह स्त्री को एक अलग इकाई के रूप में नहीं, वरन समाज के अभिन्न हिस्से के रूप में देखते हैं, जैसा कि आमतौर पर स्त्रीवादी चिंतक नहीं देख पाते. शायद इसीलिए उनके समाधान में वह व्यापकता और स्थायीत्व बहुत नहीं होता जो लोहिया के समाधन में दिखाई पड़ता है। इसका एक प्रबल नमूना है घरेलू हिंसा का. पिछले दो दशकों में घरेलू हिंसा को लेकर नारीवादियों ने काफी आंदोलन किया. संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप के कारण सरकार ने भी घरेलू हिंसा संबंधी कानून बनाए। आज घरेलू हिंसा को सामाजिक चौकीदारी से रोकने के लिए ‘बेल बजाओ’ अभियान जोरो पर रहा है. पर लोहिया ने 70 के दशक में ही घरेलू हिंसा पर गंभीर चिंता प्रकट की और इस समस्या को केवल स्त्री की समस्या न मानकर उसके मूल कारण तक पहुंचने का प्रयास किया है। भारत में घरेलू हिंसा जितनी मर्दवादी मानसिकता का परिणाम है, उससे कहीं-कहीं ज्यादा घोर विषमता को तरजीह देने वाली सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में है। जिस व्यवस्था में किसी भी तरह से कमजोर व्यक्ति को मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार नहीं मिलता, उस व्यवस्था में वह अपने से कमजोर के ऊपर अपनी लाचारी की हिंसा बरसाता है।