भारतीय संविधान रचा जा रहा था. ढाई वर्ष का समय बीतते-बीतते संविधान सभा अपने अंतिम चरण में थी. इसी समय डॉ. भीमराव अंबेडकर ने जब इसके ड्राफ्ट को पेश किया तो संविधान की मूल प्रति में विषयों के अनुसार उसमें चित्रों के चित्रण पर चर्चा हुई. सहमति बनी और तब के चोटी के चित्रकार नंदलाल बोस को ये काम सौंपा गया. बोस ने हजारों वर्षो के भारतीय सामाजिक ढांचे, रहन-सहन और लोगों की भावना-आस्था पर गहन अध्ययन किया और इस आधार पर पाया कि 800 वर्षों के परतंत्र इतिहास के बावजूद इस देश की माटी में वैदिक महत्ता, ऋषि परंपरा रची-बसी है. कोई है जिसका सिर्फ नाम ही करोड़ों भारतीयों को एक साथ न सिर्फ जोड़ता-बांधता है, बल्कि उत्तर के हिमालयी क्षेत्र से लेकर दक्षिण के सागर तट तक के लोगों को एक केंद्र में ले आता है.
यह नाम कोई और नहीं बल्कि प्रभु श्री राम का ही नाम है. आप उन्हें ईश्वर न मानें, आस्था न भी रखें तो भी एक राजा और उससे कहीं अधिक एक मर्यादा पुरुषोत्तम होने की कसौटी पर भी ये नाम खरा उतरता है. संविधान के जिस भाग 3 में मौलिक अधिकारों को जगह मिली है, उस भाग के प्रतिनिधि चित्रण में श्रीराम-सीता और लक्ष्मण को दर्शाया गया है और यह प्रसंग तब का है, जब वह लंका विजय के बाद अयोध्या वापसी करते हैं. सोचिए! बात जब मौलिक अधिकारों की हुई तो घर लौटना, उसका कितना बड़ा पर्याय बना. किसी के घर लौट आना सिर पर छत, परिवार के पोषण के लिए एक स्थान और सुरक्षा तीनों प्रमुख जरूरतों को पूरा करता है. रोटी-कपड़ा-मकान की यही मूलभूत जरूरत न सिर्फ आदमी की चाहत है, बल्कि संविधान की भी कसौटी है. राम का घर आना, यानी इस देश के नागरिकों को घर मिलने-सुरक्षित रहने का वचन है.
असल में भारतीय समाज में राम नाम इतना व्यापक और रचा-बसा है कि भारत की कल्पना इस नाम के बिना नहीं की जा सकती. राम-राम कहिए तो यह सम्मान है. हरे राम-हरे राम कहिए तो कीर्तन, अरे राम! कह दें तो आश्चर्य, हाय राम! कहें तो पीड़ा, सियाराम कहिए तो उत्साह, जय श्रीराम कहिए तो बल… और जीवन का सबसे बड़ा और अटल सत्य है ‘राम नाम सत्य’ होना. सदियां बीत गईं, पीढ़ियां गुजर गईं, कनेक्टिविटी के नए तार जुड़ चुके हैं, बल्कि तार भी नहीं रहे, इसके बावजूद रामनाम से जो कनेक्शन जुड़ा हुआ है, वह आज भी कायम है.
पुराण कथाएं बताती हैं कि राम विष्णु के सातवें अवतार हैं और इसलिए वह धरती पर जन्म लेने वाले भगवान हैं. देश में बने तमाम मंदिरों में बनी उनकी छवि भगवान वाली ही है. फिर भी लोक जनमानस में राम ईश्वर से कहीं ज्यादा हैं. विष्णु के एक और अवतारी श्रीकृष्ण की बालरूप और युगल रूप में बड़ी मान्यता है, लेकिन फिर ऱाम की जो छवियां सरल-सहज आदमी में हैं, वह सबसे अलहदा और अलग है. वह पिता के पुत्र हैं, मां के लाडले हैं, भाई हैं, मित्र हैं, पति हैं, सामाजिक संबंधी हैं और जब एक राजा भी हैं तो वह न्याय की मू्र्ति हैं. उनसे डर नहीं है, बल्कि उनके राज में नागरिक के पास उसकी नागरिकता का सम्मान है.
मिथिला की लोक परंपरा की एक दंतकथा से इसका विवरण भी मिलता है. रामायण में राम द्वारा सीता का त्याग ऐसा प्रसंग है, जो उनकी हर स्थिति में आदर्श वाली छवि पर हल्की धुंध जमा देता है. प्रसंग है कि सीता त्याग के बाद एक दिन राम दरबार में आ रहे थे. दोनों ओर से दास-दासियां उनपर फूल बरसा रहे थे. इसी दौरान जब राम एक दासी के सामने पहुंचते हैं तो वह मुंह घुमा लेती है. राम यह देख लेते हैं, लेकिन आगे बढ़ जाते हैं. कुछ देर बाद वही दासी किसी मंत्री के आने के बारे में सूचना देने पहुंचती है.
तब राम कहते हैं कि, तुम सीता की अंतरंग सखी भी हो, उसके जाने का तुम्हारा दुख मेरे दुख से कहीं अधिक है. इसलिए पहले जो मन में है वो कहो. यह सुनकर सीता की वह सखी रो पड़ती है और कहती है कि मैं मिथिला वालों से कहूंगी कि अब से कोई अपनी बेटी अयोध्या वालों को न ब्याहना. वे बड़े निष्ठुर होते हैं. राम चुपचाप उस सखी की बात सुनते रहते हैं और जब वह खूब रो कर शांत हो जाती है, तब राम उसे जाने देते हैं.
मिथिला की लोक परंपरा में जहां राम की मान्यता अपने जमाता के तौर पर है, वहीं सीता को त्याग की मूर्ति बताया गया है. सीता के त्याग से जो दुख उपजा, उसका उलाहना पाने से राम भी अछूते नहीं रहे हैं. वहां की परंपरा में एक भजन है, जिसे सीता के सम्मान और उनकी दुख की अवस्था को भांपते हुए गाया जाता है.
सिया धिया हे त्याग सँ तोहर
दबल अयोध्या धाम छै
जैं सीता तखनहि मर्यादा
पुरुषोत्तम श्रीराम छै
इसी तरह हिंदी पट्टी में एक और भजन बहुत प्रसिद्ध है जो महिलाओं के कीर्तन का हिस्सा है और बिना नाम लिए राम की उपेक्षा करता है. इस भजन में काल्पनिक दृष्य रचा गया है, जब सीता वनवास को जा रही होती हैं, तो अपनी सास, देवर सभी को कह रही होती हैं कि मैं तो महल छोड़कर जा रही हूं, कपड़े, गहने, रथ-घोड़े, नौकर-चाकर भी छोड़ जा रही हूं, मेरे पास तो सिर्फ पतिव्रता की मर्यादा है, वही लिए जा रही हूं.
राम दिया बनवास महल को छोड़के जाती हूं….
यह लो री सासुल कपड़े अपने,
इनको रखना संभाल चुनरिया ओढ़े जाती हूं,
राम दिया बनवास महल को छोड़के जाती हूं….
यह लो री ससुर गहने अपने,
इनको रखना संभाल अंगूठी पहने जाती हूं,
राम दिया बनवास महल को छोड़के जाती हूं….
यह लो री सांचौर जूते चप्पल,
इन को रखना संभाल मैं नंगे पैरों जाती हूं,
राम दिया बनवास महल को छोड़के जाती हूं….
अपने ईष्ट, अपने आराध्य जिसकी पूजा-अर्चना में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती, उलाहना देने की बात आती है तो भारतीय समाज इससे भी पीछे नहीं हटता, और इतना होने के बावजूद राम की प्रभुता में कोई कमी नहीं आती है. राम इस समाज का नाम हैं, पहचान हैं, खान-पान हैं, पहनावा भी हैं और ओढ़ना-बिछाना भी हैं. यहां कहा भी जाता है कि,
पुकारो- रामदास,
रहो कहां- रामपुर में
खाओ क्या- रामफल, रामभोग
पीया क्या- रामरस
पहना क्या- रामनामी
बैठे किधर- रामटेक
जाना किधर- रामनगर