शिवानन्द
जय प्रकाश जी का अपने सहयोगियों तथा अनुयायियों पर गज़ब का प्रभाव था। अपने बाबूजी के (स्व. रामानंद तिवारी) संदर्भ में एक से अधिक बार मैंने इसको प्रत्यक्ष देखा है। 1964 की एक घटना मुझे याद है। उस समय बिहार में कांग्रेस पार्टी की सरकार थी। केबी सहाय जी मुख्यमंत्री थे। गोमिया (अब झारखंड) में बारूद बनाने वाली एक फैक्ट्री थी। देश में इस तरह की वह पहली फैक्ट्री थी। उसका उद्घाटन तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी ने किया था।
फैक्ट्री में काम करने वालों का यूनियन समाजवादियों ने बनाया था। कर्पूरी ठाकुर और रामानन्द तिवारी उसके नेता थे। इन लोगों के नेतृत्व में उक्त फैक्ट्री में कर्मचारियों की हड़ताल हुई। वह हड़ताल कितने दिनों तक चली इसका स्मरण मुझे नहीं है, लेकिन उस हड़ताल को खत्म कराने में सरकार की ओर से सत्येंद्र बाबू की सक्रिय भूमिका थी। सत्येंद्र बाबू केबी सहाय जी के मंत्रिमंडल में मंत्री थे। हड़ताल समाप्त हुई। यह भी तय हुआ कि हड़ताल के दरमियान जिन कर्मियों के खिलाफ कार्रवाई हुई है उनको वापस ले लिया जाएगा, लेकिन हड़ताल खत्म हो जाने के बाद जिन कर्मियों के विरुद्ध हड़ताल के दरमियान कार्रवाई हुई थी उनको वापस नहीं लिया जा रहा था। अब जिन नेताओं के नेतृत्व में हड़ताल हुई थी उनकी विश्वसनीयता पर संकट उपस्थित हो गया था। थक हारकर तय हुआ कि कर्पूरी जी और तिवारी जी भूख हड़ताल करें। कर्पूरी जी बारूद फैक्ट्री के गेट पर और तिवारी जी बिहार विधानसभा के गेट पर उपवास करेंगे. विधान सभा के गेट के पास एक समियाना लगा दिया गया था। उसी में बाबूजी की भूख हड़ताल शुरू हुई। उन दिनों आज जैसी हालत नहीं थी। प्रदर्शन करने वाले विधानसभा के गेट तक पहुँच जाते थे।
बाबूजी भूख हड़ताल पर थे तो स्वाभाविक तौर पर वहाँ दर्शानार्थियों की भीड़ लगी रहती थी। इस वजह से वहाँ धूल गर्दा उड़ता रहता था। इससे बचने के लिए हम लोग चाहते थे कि उस स्थान को रस्सी से घेर दें, लेकिन बाबूजी इसके लिए तैयार नहीं थे।
उधर सत्येंद्र बाबू पर अलग तरह का दबाव था। हड़ताल उन्हीं की मध्यस्थता में समाप्त हुई थी। इसलिए उन को एहसास हो रहा था कि हमने जो समझौता कराया था सरकार की ओर से उसका पूर्ण अनुपालन नहीं हुआ। इसलिए भूख हड़ताल हो रही। वे प्रायः भूख हड़ताल वाले स्थान पर रोज़ाना आते थे। चूँकि मैं वहाँ प्रायः रहता ही था। इसलिए सत्येंद्र बाबू से मेरा भी ठीक-ठाक परिचय हो गया था। उपवास के तीसरे दिन तिवारी जी के पेशाब में एसीटोन आने लगा था। डाक्टरों के लिए यह चिंता का विषय था। सरकार की ओर से वहाँ डाक्टरों की टीम तैनात थी, जो सुबह शाम उनकी जाँच करती थी और मेडिकल बुलेटिन जारी करती थी। उन्हीं लोगों ने पेशाब में एसीटोन आने की बात बताई। मेडिकल बुलेटिन में भी यह खबर जारी की गई। पेशाब में एसीटोन का आना ख़तरे की निशानी मानी जाती है।
उसके अगले दिन जयप्रकाश जी वहाँ पहुँचे। गाड़ी पर होलडॉल रखा हुआ था। शेखोदेवरा आश्रम से सीधे वे वहाँ पहुँचे थे। उन्होंने जब वहाँ भीड़ देखी, धूल गर्दा उड़ते हुए देखा तो पूछा कि यहाँ रस्सी का घेरा क्यों नहीं बनाया गया ! जब हमलोगों ने बताया कि हम लोग लगा रहे थे, लेकिन इन्होंने ही रोक दिया। तब उन्होंने तिवारी जी की ओर देखा, अब तिवारी जी तो जैसे हकलाने लगे, हम कहाँ मना कर रहे हैं, हम कहाँ मना कर रहे हैं। उनका यह हाल देख कर हमलोग मुस्कुराने लगे, तुरंत जयप्रकाश जी ने मुझसे कहा कि ‘शिवानन्द, अभी एकरा के घेरवाव’.
संयोग ऐसा हुआ कि तिवारी जी के पेट में उसी दिन रात में भयानक दर्द शुरू हो गया। रात की बात थी डॉक्टर आये, लेकिन दर्द बेक़ाबू हो रहा था। यह खबर फैल गई। विधानसभा और सचिवालय में ड्यूटी करने वाले सिपाही वहाँ जुट गये। उन लोगों ने भजन-कीर्तन शुरू कर दिया. हम लोगों की घबराहट और बढ़ गई। डॉक्टर अस्पताल ले जाने के लिए दबाव डालने लगे। एम्बुलेंस आ गया था। तिवारी जी छटपटा रहे थे लेकिन अस्पताल जाने के लिए तैयार नहीं थे। उसके कुछ देर बाद उनको छुट्टी हुई। उसमें इतनी बदबू थी कि वहाँ खड़ा होना मुश्किल था।
दरअसल पेट में जो मल था वह पेट में ही सूख कर कड़ा हो गया था। इसलिए उनको इतना दर्द हो रहा था, उपवास शुरू करने के पहले एनीमा ले कर पेट साफ़ कर लेना चाहिए। यह सावधानी नहीं रखी गई थी, उसी के परिणाम स्वरूप वह असहनीय दर्द झेलना पड़ा था।
मल निकल जाने के बाद बाबूजी को इतनी कमजोरी हो गई कि वे अपने शरीर से मक्खी भी नहीं भगा सकते थे. दूसरे दिन भूपू मुख्यमंत्री विनोदानंद झा तिवारी जी को देखने आये. लेकिन तिवारी जी होश में कहाँ थे. विनोदा बाबू जाने लगे तो एक ढंग से उन्होंने तिवारी जी का पैर छुआ, जैसे वह अंतिम मुलाक़ात हो. मीठापुर, यारपुर की महिलाएं गोद के बच्चे को तिवारी जी के पैर पर रख रहीं थीं. यह सब दृश्य देख कर परिवार के लोगों को रूलाई छूट रही थी।
इस बीच उपवास ख़त्म कराने के मक़सद से जयप्रकाश जी अगले दिन सुबह मुख्यमंत्री केबीसहाय जी से मिलने गए। सहाय जी उस समय दाढ़ी बना रहे थे। दाढ़ी में साबुन लगा हुआ था। उसी हालत में उन्होंने जयप्रकाश जी को बुला लिया। जयप्रकाश जी को यह बहुत बुरा लगा। पूरी बात क्या हुई यह तो स्मरण नहीं है, लेकिन इसके चलते जयप्रकाश जी बहुत तनाव में आ गए थे. सदाक़त आश्रम के बग़ल में विद्यापीठ में ठहरे हुए थे। तनाव में ही सामने गंगा के बांध पर टहल रहे थे. उसी बीच पैर तलमला गया और उनके पैर में मोच आ गया।
इधर प्रशासन डरा हुआ था कि तिवारी जी को कुछ हो मत जाए. वे गिरफ्तारी के लिए तैयार थे. उसके बाद वे पाइप के रास्ते उनके पेट में तरल पदार्थ पहुँचा कर जान बचाने का उपाय करते. सूरज ढल चुका था. उसी समय प्रभावती जी (जयप्रकाश जी की पत्नी) उनका पत्र लेकर पहुँची . जहाँ तक मुझे स्मरण है. उस पत्र में जयप्रकाश जी ने उपवास का मक़सद क्या होता है यह बताया था. उन्होंने लिखा था आपके उपवास का मक़सद पूरा हो चुका है. अतः आपको अब उपवास तोड़ देना चाहिए. उधर प्रशासन जेल और अस्पताल दोनों के लिए तैयार होकर वहां मौजूद था. परिवार के लोग चाहते थे कि हर हाल में उपवास टूटना चाहिए.
प्रभावती जी उपवास तोड़ने के लिए अपने साथ फ़्लास्क में फल का रस लेकर आईं थीं. अब एक नई बाधा सामने आ गई. तिवारी जी का कहना था कि उपवास तोड़ने के लिए पार्टी की सहमति ले ली जाए. बसावन बाबू पार्टी के नेता थे. नया टोला में सोशलिस्ट पार्टी का दफ्तर था. उस समय मोबाइल नहीं आया था. लैंडलाइन का जमाना था. वहीं कहीं से मैं पार्टी ऑफिस में फ़ोन लगा रहा था. उधर से महटियाने वाले अंदाज़ में जवाब मिल रहा था. दो तीन दफ़ा के बाद मैंने फ़ोन उठाने वाले से कहा-उपवास तो हर हाल में टूटेगा. अच्छा होगा, बसावन चाचा आकर उपवास तोड़ने पर अपनी सहमति दे दें. इससे उनकी प्रतिष्ठा भी बनी रहेगी. दरअसल उन दिनों पार्टी में अंदरूनी तनाव वाली स्थिति पैदा हो गई थी. अंदर अंदर पार्टी दो ख़ेमा में बंट गई थी. संगठन पर बसावन बाबू का क़ब्ज़ा था. लेकिन अधिकांश विधायक कर्पूरी जी और तिवारी जी के साथ थे. दरअसल यही दोनों जन नेता थे.कुछ ही दिनों बाद पार्टी बंट भी गई. इसलिए लग रहा था कि बसावन बाबू उपवास तोड़वाने में महटिया रहे हैं. इसलिए मुझे फ़ोन पर उस लहजे में बात करनी पड़ी थी. उसके बाद बसावन बाबू की प्रतीक्षा होने लगी. लगभग आधा घंटा बाद बसावन बाबू पार्टी के मज़दूर नेता मिथिलेश जी के साथ वहाँ आये. उनके सामने जयप्रकाश जी की चिट्ठी पढ़ी गई. उसके बाद बाबूजी ने बसावन बाबू से पूछा-‘का कह तार तुर दीं’! बसावन बाबू ने जवाब दिया ‘तुर’ द ! उसके बाद प्रभावती जी ने अपने थर्मस से फल का रस निकाल कर बाबूजी को पिलाया. इस प्रकार वहाँ का तनावपूर्ण माहौल समाप्त हुआ. एम्बुलेंस वहाँ मौजूद थी ही. वहाँ से उनको बड़ा अस्पताल यानी पीएमसीएच ले ज़ाया गया. अस्पताल से तीन चार दिन के बाद बाबूजी घर आये।