देवेंद्र सिंह आर्य
सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में महर्षि दयानंद ने जहां पर ईश्वर के 100 नामों की व्याख्या की है वहां पर उन्होंने सर्वप्रथम ‘ओम खम् ब्रह्म’ शब्द को लिया है।’ ओम’ शब्द का अर्थ सर्वेरक्षक से है। ‘खम’ का अर्थ है आकाश की तरह सर्वत्र व्याप्त होने वाला, लेकिन ब्रह्म का अर्थ है जो सबसे बड़ा है ।इसलिए वह ईश्वर ब्रह्म है। क्योंकि ईश्वर ही सबसे बड़ा है।
उक्त के अतिरिक्त ईश्वर निरंतर व्यापक होने के कारण भी ब्रह्म कहा जाता है।
ईश्वर ज्ञान का आदि स्रोत होने के कारण भी ब्रह्म कहा जाता है।
इसीलिए ईश्वर को गुरु कहा जाता है। और वह एकमात्र गुरु है। ईश्वर गुरुओं का भी गुरु है। महागुरु है। गुरुदेव है ।देवगुरु है।
अब ब्रह्मा किसे कहते हैं।
इस पर विचार करते हैं।
ज्ञातव्य है कि सर्वत्र जगत के रचयिता होने के कारण उस ईश्वर को ब्रह्मा कहा जाता है।
उस ईश्वर (ब्रह्म )का जगत को रचने का जो ज्ञान है इसलिए उसको ब्रह्मा कहा जाता है। ब्रह्मा कोई अलग से नहीं है। ब्रह्मा भी ईश्वर को ही कहा जाता है ।ब्रह्मा ईश्वर का इस प्रकार गौणिक अथवा कार्मिक नाम हुआ।
लेकिन संसार में ब्रह्मा की उपाधि भी दी जाती है। यह उपाधि उस बुद्धिमान व्यक्ति को परीक्षा करने के पश्चात दी जाती है जो श्रृत और सत को जानने वाला होता है। जिसको क्रोध नहीं आता वह ब्रह्मवेत्ता होता है ।जो ब्राह्मण समाज के द्वारा मान्य होता है। कर्मकांड के लिए उपयुक्त होता है। कर्मकांड की कला को जानना और उसकी रचना करने के नाते उसको ब्रह्मा की उपाधि प्रदान की जाती है। जबकि वह ज्ञानी एक पुरुष अर्थात आत्मा है।
वैसे ऊपर बता चुके कि ब्रह्मा नाम परमपिता परमात्मा का भी है ।
श्रृंगी ऋषि के अनुसार सब से पहले ब्रह्मा ने संस्कृत व्याकरण को योगाभ्यास से जाना।
संस्कृत को इस प्रकार जाना कि आत्मा और इन पांचों प्राणों का मिलान किया ।और इन पांच कर्मेंद्रियां, पांच ज्ञानेंद्रियों का, पांच प्राण ,मन ,बुद्धि और अहंकार इन सब 18 का संगठन किया। तत्पश्चात यह प्राणों के अधीन हो गए और प्राण आत्मा के अधीन हो गया। आत्मा प्राणों के सहित अभ्यास करते करते मूलाधार में रमण कर गया। उसके पश्चात यह आत्मा प्राणों सहित त्रिवेणी में जाता है। प्राणों का वहां संकलन रहता है। प्राणों की वहीं प्रगति रहती है ।उसमें चक्र चलता है। और उस चक्र से एक बाजा बजता है। जिसको साधारण वाणी में अनहद बाजा कहते हैं ।इसी अनहद बाजे में नाना स्वर होते हैं। उन स्वरों में अक्षर होते हैं ।आदि ब्रह्मा ने इन सब का अनुभव किया। आत्मा का संकलन करके अपनी स्थिति में ले गए और स्वरों को जाना। जिसको अनाहद बाजा कहते हैं। उसमें भिन्न-भिन्न प्रकार के अक्षरों के स्वर थे ।उन स्वरों को जाना। उनसे अक्षरों का बोध हुआ। अक्षरों से व्याकरण बना इस संसार का।
जो ज्ञानी होता है, वेद पाठी होता है ,ब्रह्म को जानने वाला होता है, उसे भी ब्रह्मा कहते हैं। इस प्रकार परमात्मा के अतिरिक्त आत्मा को भी ब्रह्मा कहा जाता है। तथा वाणी को सरस्वती कहते हैं। शास्त्रों में मुहावरेदार भाषा में ब्रह्मा की पुत्री सरस्वती अर्थात विद्या कही जाती है। आत्मा में ज्ञान स्वाभाविक है। उस ज्ञान से विवेक होता है। विवेक का वाणी से संबंध होता है। विद्या को पान करने वाले ब्रह्मा कहलाते हैं। उसकी वाणी से ही गंगा, जमुना, सरस्वती ,त्रिवेणी फूटती है। त्रिविद्या के जानने से हम त्रिवेणी में पहुंच जाते हैं। त्रिवेणी में स्नान करते करते ब्रह्मरंध्र में पहुंच जाते हैं।
ब्रह्मा के महत रूपी कमंडल से यह संसार रचा है। जो संसार दृश्य मान है। ब्रह्मा के उस कमंडल में वेद वाणी का अमूल्य ज्ञान था। इसी गंगा में रमण करता हुआ मनुष्य अपने हृदय को पवित्र बनाता है। ऋषि मुनि पवित्र बनाते हैं।
अथर्ववेद का 10 / 7 / 20 मंत्र
का भावार्थ है कि जिस सर्वशक्तिमान परब्रह्म से ऋग्वेद, यजुर्वेद ,सामवेद ,अथर्ववेद प्रकट हुए उस सर्वाधार ब्रह्म को जानें, और प्रवचन आदि द्वारा प्रकट करें।
ब्रह्म को जानने की बात कही गई।
अथर्ववेद का 10 / 8 / 1 मंत्र कहता है कि जो परब्रह्म भूत, भविष्य ,वर्तमान इन तीनों कालों के व्यवहार को जानने वाला है। तथा जो सब जगत को अपने विज्ञान से ही जानता ,रचता, पालन करता तथा प्रलय करता है और संसार के सब पदार्थों का अधिष्ठाता अर्थात स्वामी है, जिसका आनंद ही केवल स्वरूप है, जो कि मोक्ष और व्यवहार सुख को देने वाला है, उस सबसे महान सामर्थ्य युक्त परब्रह्म को अत्यंत श्रद्धा व प्रेम से हमारा नमस्कार हो।
इसके अतिरिक्त यजुर्वेद का मंत्र 32 / 6 का भावार्थ देखें।
जिस परब्रह्म परमात्मा ने तीक्ष्ण स्वभाव वाले सूर्य और भूमि आदि को धारण किया है। जिस परब्रह्म ने सुख को धारण किया है और जिस पर ब्रह्म ने दुख रहित मोक्ष को धारण किया है और जो आकाश में सब लोकों लोकाअंतरों को विशेष मान युक्त अर्थात जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं वैसे सब लोकों का निर्माण करता और भ्रमण कराता है हम लोग उस कामना करने के योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिए सब सामर्थ से विशेष भक्ति करें।
इसके लिए अथर्ववेद का 19 / 71 / 1 मंत्र का अर्थ भी देखें।
मैंने वरदा वेदमाता की स्तुति की है, जो कि द्विजों को पवित्र करने वाली है। वह मुझे आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, सांसारिक ऐश्वर्य एवं पारलौकिक ऐश्वर्य तथा ब्रह्म तेज को प्रदान कराती हुई परम ब्रह्म के परम आनंद स्वरूप मोक्ष को भी प्राप्त करावे।
इस प्रकार ब्रह्मा परमात्मा, आत्मा, ज्ञानी पुरुष एवं यज्ञ की वेदी की रचना कराने वाला और यज्ञ को वैदिक विधि के अनुसार संपन्न कराने वाला जो विद्वान होता है उन सभी को ब्रह्मा कहा जाता है। लेकिन ईश्वर परब्रह्म है।
इसलिए ब्रह्मा में भ्रांति उत्पन्न न हो ।
श्रृंगी ऋषि द्वारा कही गई बात को
वैदिक संपदा नामक पुस्तक में श्री वीरसेन वेदश्रमी द्वारा प्रष्ठ संख्या 8 पर इस प्रकार लिखा है कि मंत्र परमात्मा के हैं। सृष्टि में जो मंत्र तत्व रूप से प्रकाशित होता है स्तुति रूप में वह शब्द मंत्र ध्वनि रूप में जागरित होता है। यह संपूर्ण रचना जिसके ज्ञान से रची हुई है और संचालित है उसकी विविध स्थितियों के विविध तत्वों, राशियों और पिंडो का ज्ञान कराने वाला वह शब्दमय मंत्र भी उसी जगत रचीयता का ही है, जो इस मानव देह में हमारी ध्वनियों से प्रकट हुआ।
अतः जिन मानव ऋषियों के माध्यम से यह वेद ज्ञान वर्ण या ध्वनि रूप में प्रकट हुआ उसके रचीयता वे मानव देवधारी ऋषि स्वयं नहीं थे ।वे तो उसके अभि व्यंजक, प्रकट कर्ता, दूत या माध्यम मात्र ही थे।
अर्थात मूल में ज्ञान ईश्वर का ही है। जिसको देवधारी आदि ऋषि यों ने शब्द रूप में प्रस्तुत किया।
इसी पृष्ठ पर आगे लिखते हैं कि परमात्मा द्वारा वेद ऋषियों में प्रकट हुए। ऋषियों के द्वारा प्रकट हुई वह वेद ध्वनि परा , पश्यन्ती तथा मध्यमा मार्गों से वैखरी रूप में एक रस उनके मुख से समुदीरण होने से उन ऋषियों को भी स्पष्ट भासित हुआ कि यह देवी वाणी हमारी नहीं है। हमारे इच्छा और प्रयत्नों से संचालित नहीं है। अपितु किसी महान शक्ति की प्रेरणा से यह ज्ञान उत्तरोत्तर क्रमश: प्रकट होता जा रहा है। और उसको आगे भी प्रचारित करने के लिए तथा भविष्य के लिए सुरक्षित करने के लिए उसका शब्दमय ,ध्वनि मय रूप भी प्रकट होता जा रहा है।
उस ज्ञान और ध्वनि का आदि स्रोत परमात्मा है। ऐसा उनमें ऋषि यों को स्पष्ट अनुभव होने से वेद परमात्मा के द्वारा ही रचे गए हैं ।ऐसा ही सत्य पूर्ण निश्चय आत्मक सिद्धांत कल्पकल्पांतरों से ग्राहय किया जाता है। इसलिए कभी किसी ऋषि ने यह नहीं घोषित किया कि मैंने ऋग्वेद बनाया ,मैंने यजुर्वेद बनाया या मैंने सामवेद बनाया।
इससे सिद्ध होता है कि वेद अपौरुषेय हैं।
अर्थात वह दैवी वेद वाणी परब्रह्म की आदि सृष्टि में ऋषियों के माध्यम से प्रकट हुई और लोक में प्रचलित हुई।
हमारी बुद्धि की ज्ञान प्राप्त करने की चेतना अथवा शक्ति जितनी विस्तृत होती जाती है उतना ही अधिक उसमें तत्व दृष्टिगोचर होता जाता है। उसके लिए श्रेष्ठ बुद्धि की आवश्यकता होती है।
वैदिक संपदा नामक पुस्तक के प्रष्ठ संख्या 43 पर श्री वेदश्रमी द्वारा लिखा गया है कि ऋषि मंत्र रचीयता नहीं थे।
ज्ञान परमात्मा ने दे दिया था उस ज्ञान को ऋषियों ने समय-समय पर अपनी भाषा में प्रकट किया। परंतु किसी भी पदार्थ का ज्ञान जब हम में प्रविष्ट अथवा उत्पन्न या जागृत होता है तो वह व्यक्त या अव्यक्त शब्द द्वारा ही होता है। शब्द का संबंध पदार्थ से एवं क्रिया से रहता है। जब तक शब्द, अर्थ ,पदार्थ आदि का संबंध ज्ञान या बोध न हो तब तक ज्ञान का उदय मनुष्य में नहीं होगा ।
अतः परमात्मा ने ही वेद ऋषियों में प्रकट किए तथा उनके अर्थ एवं क्रिया का भी प्रकाश परमात्मा ने किया। तभी भाषा और व्यवहार प्रचलित हो सका। अन्यथा मनुष्य ज्ञान शून्य ही रहता और भटकता रहता ।
अतः सृष्टि के प्रारंभ में परमात्मा ने ज्ञान मात्र ही दिया यह असंगत कल्पना है। शब्द दिया अर्थ सहित दिया, संबंध सहित दिया और वह संबंध पदार्थ ज्ञान सहित दिया। यह मंत्र रूप था।
इसी पृष्ठ पर आगे लिखते हैं कि परमात्मा से ही वेदों की उत्पत्ति हुई। और यह वेद दैवी वाणी में प्रकट हुए। ऋषियों या मनुष्य ने जब भाषा बनाई तब उन्होंने मंत्रों को रचा यह बात नहीं है। परमात्मा ने दैवी वाणी में वेद ऋषियों में प्रकट किए।
सृष्टि के प्रारंभ में चार आदिऋषि अग्नि ,वायु ,आदित्य , अंगीरा थे जिन्होंने शब्द, अर्थ ,पदार्थ और संबंध को संसार के समक्ष प्रस्तुत किया।