नीरज कुमार
यह न शहादत दिवस है, न निर्वाण दिवस। यह गांधी की हत्या का दिन है। राजनीतिक और विचारधारात्मक कारणों से नेताओं की हत्या होती रही है। गांधी की हत्या की खासियत यह है कि उनकी हत्या के बाद उनके विचारों की भी निरंतर हत्या की जाती रही है। वह सिलसिला आज तक जारी है। पूंजीवाद की गोद में बैठा शासक वर्ग ही उनके विचारों की हत्या नहीं करता, गांधी का नाम जपने वाले नागरिक समाज का एक बडा हिस्सा भी यही करता है। नागरिक समाज, विशेषकर बुदि्धजीवी, की मार शासक वर्ग से ज्यादा गहरी होती है। क्योंकि शासक वर्ग का पाखंड आसानी से समझ में आ जाता है लेकिन बुदि्धजीवियों का पाखंड पकडना उतना आसान नहीं होता। पिछले दिनों नवउदारवाद और सांप्रदायिकता के गठजोड को बचाने के लिए एकजुट हुए दो एनजीओ सरगनाओं – अन्ना हजारे व अरविंद केजरीवाल – को उन्होंने बडा और छोटा गांधी बनाने का कमाल कर दिखाया।
इनसे वे लोग अच्छे– हैं जो गांधी की हत्या का दुख नहीं मनाते और उनके विचारों का भी विरोध करते हैं।
सोशलिस्ट पार्टी के लिए जिंदा गांधी भी महत्वपूर्ण थे और हत्या के बाद उनके विचार भी। क्योंकि सोशलिस्ट पार्टी, लोहिया के शब्द लें तो, समाजवाद में गांधीवाद का फिल्टर लगाने के लक्ष्यं से प्रेरित है।