डॉ कल्पना पाण्डेय ‘नवग्रह’
हर बार की तरह सड़कों के किनारे फिर से आबाद हो गए। मंगलवार ,बृहस्पतिवार ,शनिवार, रविवार हर रोज़ की विशेष प्रार्थनाएं चीखती -चिल्लाती, मंदिर- मस्जिद, गिरजाघरों के बाहर। पर नहीं सुनाई देती किसी को उनकी बेबसी। नहीं दिखाई देता मन का आर्तनाद। माना हिंदुस्तान घनी आबादी का देश है पर आबादी के इतने वर्षों बाद भी रोटी, कपड़ा, और मकान को तरसती इंसानियत ! फटे कपड़े, नंगे पांव , हर उम्र के स्त्री- पुरुष और बच्चे। कहां है विकास का बहता स्रोत ? कहां है उनके हिस्से की भारतीयता ? क्यों है मज़बूर और बेबस ? क्यों दो हाथ आस में उठे हर बार शर्मसार हो जाते हैं ? प्रताड़ित होते हैं? अपमान के घूंट पीते हैं? पर एक जून का भोजन मुश्किल से नसीब में है।
आज आंखें पथरा गईं जब डेढ़ वर्ष के बदनसीब बच्चे को, भूख की आग में जलते परिवार के लिए किरदार बनना पड़ा। आंखें हैरान हो उठी और मन विचलित। इस पीड़ा का कहीं कोई समाधान दिखाई नहीं देता। हम जैसे आम नागरिक जिनके पास हृदय है। करुणा, दया और इंसानियत के भाव प्रदर्शित कर सकते हैं, द्रवित होते हैं । पर सीमित संसाधनों में यथायोग्य सहायता मुफीद नहीं । कहां है सरकारी आंकड़े ? स्वच्छता मिशन में समाज की जड़ में बैठी अशोभनीय और बेदर्द मंज़र की सफ़ई के लिए कब सरकारें शपथ लेंगीं ?
क्या ये लोग पेशेवर हैं ? क्या ये अकर्मण्य हैं ? क्या इन्हें मान- सम्मान से कुछ नहीं लेना ? नहीं ! विपरीत परिस्थितियों और बिगड़े माहौल के शिकार हैं ये। ये गरीब- असहाय लोग हैं जो भारत की सच्ची और दर्दनाक मंज़र की तस्वीर दिखाते हैं। डेढ़ साल के बच्चे को मां भीख मांगने की ट्रेनिंग दे रही है । जो बच्चा अभी मां से ठीक से बोलना भी सीख नहीं पाया उसे अभी से परिवार की जिम्मेदारियों के लिए येन -केन प्रकारेण जीविका कमाने के लिए मां अभ्यास करा रही है। वाह रे! विकास और विकास का बोझ ढोती परियोजनाएं!