अमरनाथ झा
जलवायु-परिवर्तन जनित आपदाएं अगले दो दशकों में काफी बढ़ने वाली हैं। स्थिति इतनी खराब हो गई है कि अगर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने की कठोर कार्रवाई अब की भी जाती है तो इन आपदाओं को आने से नहीं रोका जा सकेगा। भारत इन आपदाओं से सर्वाधिक पीड़ित होने वाले देशों में शामिल हैं। यह चेतावनी आईपीसीसी की छठी आकलन रिपोर्ट के दूसरे भाग में कही गई है जिसे पिछले सप्ताह (28 फरवरी 2022) जारी किया गया है। इसमें कहा गया है कि बदलते जलवायु के साथ तालमेल बैठाने की मानवीय और प्रकृति की क्षमता कसौटी पर है और अगर वैश्विक तापमान में इससे अधिक बढ़ोत्तरी हुई तो स्थिति से तालमेल बैठाना कहीं अधिक कठिन हो जाएगा।
विश्व की आबादी की करीब 45 प्रतिशत अर्थात लगभग 3.5 अरब लोग उन इलाकों में निवास करते हैं जो जलवायु जनित आपदाओं से अत्यधिक जोखिमग्रस्त हैं। इस जोखिमग्रस्त क्षेत्रों में भारत भी शामिल है जिसके विभिन्न इलाके समुद्र तल में बढ़ोत्तरी, अत्यधिक बाढ़ और अत्यधिक गर्म हवाएं चलने अर्थात लू से पीड़ित होने वाला है। इन जोखिमग्रस्त क्षेत्रों में देश के कई प्रमुख महानगर व दूसरे नगरीय क्षेत्र शामिल हैं।
छठी आकलन रिपोर्ट का यह दूसरा हिस्सा जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर केन्द्रित है। इसमें जोखिम, अतिसंवेदनशीलता और उसके साथ तालमेल बैठाने की संभावनाओं पर चर्चा की गई है। इसका पहला हिस्सा पिछले साल अगस्त में जारी किया गया था जिसमें जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिक आधार का खुलासा किया गया था। तीसरा और आखिरी हिस्से के अप्रैल में जारी होने की संभावना है जिसमें नई परिस्थितियों से तालमेल बैठाने, उसके साथ अनुकूलन और उत्सर्जन को घटाने की संभावनाओं की चर्चा की जाएगी।
पृथ्वी की जलवायु के बारे में आकलन की पहली रिपोर्ट 1990 में जारी गई थी। जिसे तैयार करने में सैकड़ों विशेषज्ञों ने हर उपलब्ध सूचनाओं का विश्लेषण किया था और दुनिया को बताया कि धरती की हालत ठीक नहीं है क्योंकि जलवायु बदल रही है। इसके बाद चार रिपोर्टें-1995, 2001, 2007, 2015 में आईं। छठी रिपोर्ट पिछले साल आई। हजारों पन्नों में फैली इन रिपोर्टों के आधार पर जलवायु परिवर्तन को लेकर वैश्विक कार्रवाई की शुरूआत हुई है। सभी रिपोर्टें एक-दूसरे से जुड़ी हैं और हर नई रिपोर्ट में पिछली से अधिक जानकारी, आंकड़ा व साक्ष्य दिए गए हैं। इनके दायरे को विस्तार दिया गया है और वैज्ञानिक साक्ष्यों को अधिक पुष्ट किया गया है।
ताजा रिपोर्ट में पहली बार क्षेत्रीय व विषयवार प्रभाव का आकलन किया गया है। जिसमें विशाल महानगरों के बारे में अलग से चर्चा की गई है। इस रिपोर्ट में पहली बार जलवायु परिवर्तन के मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों की चर्चा की गई है। जलजनित व वेक्टर जनित रोगों के अलावा मस्तिष्क रोगों में बढोत्तरी होगी। रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव जितना समझा जा रहा है, उससे कहीं अधिक मात्रा में और कहीं अधिक विनाशकारी होगा।
इस रिपोर्ट में बेहतर अवलोकन व परिवर्तन की प्रक्रिया की समझदारी बेहतर होने से प्रकृति पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को अधिक स्पष्ट ढंग से रखा जा सका है। अब लगता है कि इसके प्रभाव 20 वर्ष पहले जितना समझा गया था, उससे कहीं अधिक तेजी से पड़ने वाला है और कहीं अधिक विनाशकारी होने वाला है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अगले 20 वर्षों में ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन घटाने वाली कार्रवाइयों को अधिक कठोरता से किया जाता है तब भी संभावित नुकसानों को टाला नहीं जा सकेगा, उन्हें घटाया भले जा सकता है। अगर वैश्विक तापमान में पूर्व औद्योगिक स्थिति से 1.5 डिग्री सेंटिग्रेड से अधिक बढ़ोत्तरी हो जाती है तो ऐसे अनेक परिवर्तन होंगे जिन्हें फिर पुरानी स्थिति में नहीं लाया जा सकेगा।
ऐसी स्थिति में परिवर्तनों के साथ तालमेल बैठाने या अनुकूलन की क्षमता अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। लेकिन अनुकूलन में सबसे बड़ी बाधा जरूरी रकम और राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है। तापमान में अधिक बढ़ोत्तरी होने पर अनुकूलन क्षमता में भी कमी आती जाएगी। हालांकि नुकसान को कम करने के लिए अनुकूलन आवश्यक है।
आईपीसीसी की रिपोर्टें कोई नीति दस्तावेज नहीं हैं, यह केवल स्थिति को स्पष्ट करती है। कार्रवाई का निर्धारण भी नहीं करती। इसे करना सरकारों का काम है। लेकिन आकलन रिपोर्टें सरकारों को कार्रवाई करने के लिए वस्तुस्थिति स्पष्ट कर देती है।