आत्मा शरीर में कहां रहती है?

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देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट

अब ऐतरेय उपनिषद के अनुसार अध्ययन करते हैं।
वैदिक विद्वान कई पुस्तकों के लेखक एवं प्रमुख व्याख्याकार नारायण स्वामी का ‌एकादशोपनिषद का
प्रष्ठ संख्या 343,
“उस आत्मा के रहने के तीन स्थान हैं।और तीन ही स्वप्न है ।यह स्थान है ,यह स्थान है, यह स्थान है।
यद्यपि यह तीन स्थान मात्र ऐसा कह देने से कि यह स्थान है, यह स्थान है ,से स्पष्ट नहीं होते।
यह हो सकता है की आचार्य से जब किसी शिष्य ने प्रश्न किया होगा तो वह आमने-सामने बैठे रहे होंगे ।आचार्य जी ने शंका का समाधान करते हुए अपने शरीर को छूकर उस शिष्य को बताया होगा कि यह भी स्थान है आत्मा के रहने का, दूसरा यह स्थान भी है। तीसरा यह स्थान है।
यह सामने बैठे होने पर तो स्पष्ट हो जाती है परंतु लेखन में स्पष्ट नहीं होती।
लेकिन जब हम इसके लिए अन्य उपनिषदों का ,वैदिक वांग्मय का अध्ययन करेंगे तब यह तीन स्थान भी स्पष्ट हो जाएंगे ।उनको हम यथास्थान बताने का प्रयत्न करेंगे।
प्रष्ठ संख्या 347 पर इस प्रकार का विवरण पढ़ने को मिलता है।
“एक दूसरे उपनिषद में एक जगह कहा गया है कि शरीर में हृदय की 101 नाडियों में से एक सुषुम्ना मूर्धा‌ में जाकर समाप्त होती है। उसकी समाप्ति ही के स्थान का नाम ब्रह्मरंध्रचक्र है ।जब जीव का मोक्ष होता है तब वह इसी मार्ग से शरीर से निकलता है । जब उसकी अन्य गतियां होती है तब वह अन्य मार्गो से शरीर से निकला करता है।”
ऐतरेय उपनिषद के प्रष्ठ संख्या 348 पर स्पष्ट रूप से निम्न प्रकार लिखा है।
“शरीर में जीव कहां रहता है?
जीव से आप समझ गए होंगे कि जीवात्मा भी कहते हैं और आत्मा भी कहते हैं जीव को। यह सभी एक दूसरे के पर्यायवाची है।

इसके लिए इस खंड में कुछ न कहा जाकर केवल तीन बार यह स्थान ,यह स्थान लिख दिया गया। इस प्रकरण में तीन स्वप्नों का नाम भी लिया गया। जिसका तात्पर्य है जाग्रत ,स्वप्न और सुषुप्तावस्थाओं से है ।
इसलिए टीकाकरों ने जाग्रत अवस्था में जीव का दाहिनी आंख में ,सपन अवस्था में कंठ में अथवा मन में और सुषुप्तावस्था में हृदय में होना बतलाया है।
तो सामने बैठे हुए गुरु जी ने दाहिनी आंख को हाथ लगाकर बताया यहां रहती है आत्मा ।
दूसरा स्थान कंठबताया यहां रहती है आत्मा।
तीसरा स्थान हृदय बताया यहां रहती है आत्मा ।
अर्थात आत्मा समस्त शरीर में घूमती रहती है। इस बात की पुष्टि होती है।
शंकराचार्य से लेकर प्रायः सभी टीकाकार इससे सहमत हैं।
टीकाकार आगे लिखते हैं कि
“इस हृदय में होता हुआ जीव परमात्मा का साक्षात किया करता है ।जीव द्वारा ब्रह्म का साक्षात्कार करने की बात बार-बार लिखी गई है। जीव ने जब हृदय में महान प्रभु का साक्षात्कार किया तो उसने सोचा कि ‘अहो उसको देखा।’
संस्कृत में यह शब्द है ‘इदम अदर्शम अहो’ इस इदम में अदर्शम का द और र जोड़कर एक संक्षिप्त वाक्य इदम -अदर्शम का इदंद्र बना लिया गया और ईश्वर का यह इंद्र नाम इसलिए है कि जीव उसका साक्षात्कार करते हैं। इस इंदद्र को परोक्ष रूप देने के लिए इंद्र कर दिया गया है।।
शेष अग्रिम किस्त में।
क्रमश:

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