
अरुण श्रीवास्तव
अपनी मौत से चंद कदम की दूरी पर खड़ा व्यक्ति जब ये कहें कि, ‘रुको अभी एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से बातें कर रहा है’।
ये पंक्तियां शहीदे आजम भगत सिंह ने फांसी की तैयारी के लिए बुलाने आये जेलकर्मी से उस वक्त कही जब वे रूस के महान क्रांतिकारी लेनिन को पढ़ रहे थे। यही नहीं भगत सिंह और उनके साथियों ने अदालती कार्यवाही के दौरान ‘अप-अप सोशलिज्म डाउन-डाउन कैप्टलिज्म’ नारे लगाए। उस बिरतानिया सरकार की अदालत में जिसका समूचे विश्व में सूरज नहीं डूबता था उसी व्यवस्था के नारे लगाना वो उसके सर्वोच्च सदन में बम (धुंए वाला) फोड़ने वाले मुट्ठी भर नौजवानों द्वारा शेर के मुंह में बालकों के हाथ डालकर जबड़ा निकाल देने जैसा था।
यही नहीं भगत सिंह ने जेल से लिखे “क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसविदा में साफ शब्दों में बताया कि, आप ‘इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते हो मैं यह मानकर चलता हूं कि आप इसका मतलब समझते हो। असेंबली बम कैसे में दी गई हमारी परिभाषा के अनुसार इंकलाब का अर्थ मौजूदा सामाजिक ढांचे में पूर्ण परिवर्तन और समाजवाद की स्थापना है। इस लक्ष्य के लिए हमारा पहला कदम ताकत हासिल करना है। वास्तव में राज्य यानी सरकारी मशीनरी शासक वर्ग के हाथों में अपने हितों की रक्षा करने और उन्हें आगे बढ़ने का यंत्र ही है। हम इस यंत्र को छीन कर अपने आदर्शों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं। हमारा आदर्श है नए ढंग से सामाजिक संरचना यानी मार्क्सवादी ढंग से।
बात को आगे और स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि क्रांति से हमारा क्या आशय ‘जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना है। वास्तव में यही है क्रांति बाकी सब विद्रोह है। मसलन 1857 में हुई राजनीतिक घटनाक्रम में उसे समय की क्रांतिकारी की भूमिका को देखें तो सबके उद्देश्य अलग-अलग नजर आते हैं। जैसे रानी लक्ष्मीबाई का उद्देश्य अपने दत्तक पुत्र को पेंशन दिलाना था तो तात्या टोपे का उद्देश्य कुछ अलग था, वहीं झांसी से सटे ग्वालियर राजघराने के हित अंग्रेजों के साथ मिलने या अंग्रेजों का साथ देने में नजर आता है। कुछ ऐसे राजघराने भी थे जो अपना राज पाठ कायम रखने के लिए अंग्रेजों के खिलाफत नहीं कर रहे थे।
पर वहीं अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान लगभग सभी की का उद्देश्य एक जैसा रहा हालांकि की कुछ की सोच में समय के साथ सुधार भी आया सिवाय क्रांतिकारी नवयुवकों के।
…हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते’। यानी भगत सिंह सिर्फ सत्ता परिवर्तन के पक्ष में नहीं थे उनका लक्ष्य शोषणकारी व्यवस्था को पलट कर साम्यवादी व्यवस्था स्थापित करना था। ऊपर के कथन से साफ जाहिर है कि वे गोरी बुराई यानी अंग्रेजों को हटाकर काली बुराई लाने के पक्षधर नहीं थे। वे शोषणकारी व्यवस्था को ही समाप्त करना चाहते थे।
इसी मसौदे में कहते हैं कि वास्तव में राज्य यानी सरकारी मशीनरी शासक वर्ग के हाथों में अपने हितों की रक्षा करने और उन्हें आगे बढ़ने का यंत्र ही है। हम इस यंत्र को छीन कर अपने आदर्शों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं। हमारा आदर्श है नए ढंग से सामाजिक संरचना यानी मार्क्सवादी ढंग से। अब इससे स्पष्ट और क्या हो सकता है कि वह मार्क्सवादी विचारधारा से बहुत हद तक प्रभावित थे मार्क्सवादी थे या यूं कहें कि वह कम्युनिस्ट थे।
जेल से लिखें क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसौदा मसविदा मसविदा में अपनी बात को स्पष्ट करते हुए आगे कहा की क्रांति से हमारा क्या आशय है यह स्पष्ट है इस शताब्दी में इसका सिर्फ एक ही अर्थ हो सकता है,’जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना, वास्तव में यही क्रांति है बाकी सभी विद्रोह। तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूंजीवादी सड़ांध को आगे बढ़ते हैं।… भारत में हम भारतीय श्रमिक के शासन से कम कुछ नहीं चाहते। भारत में साम्राज्य साम्राज्यवादियों और उनके मददगार हटाकर जो कि इस आर्थिक व्यवस्था के पैरों कर हैं जिसकी जड़ें शोषण पर आधारित है।
ध्यान रहे कि कार्ल मार्क्स का सिद्धांत भी शोषण के खिलाफ है। वो शोषण मुक्त समाज की स्थापना के पक्षधर थे। उनका प्रमुख नारा ही रहा ‘दुनिया के मजदूर एक हो’। और शहीदे आजम भगत सिंह भी शोषण पर आधारित समाज के खिलाफ थे अब शोषक चाहे गोरे हों या काले। यानी ब्रिटिश सरकार हो या कालों की भारतीय सरकार (टाटा-बिड़ला) की सरकार। सनद रहे कि आजादी की लड़ाई में देशी पूंजीपतियों का भी योगदान रहा है। बिड़ला घराने का झुकाव तो खुलकर कांग्रेस की तरफ रहा है। महात्मा गांधी का बिड़ला आवास में ठहरना होता था। दिल्ली प्रवास के दौरान सत्संग भी यही पर आयोजित होता था। देश की आज़ादी के बाद हिंदुस्तान मोटर्स को सरकारी प्रोत्साहन मिला।
बहरहाल, अपने क्रांतिकारी कार्यक्रम के मसविदे में भगतसिंह आगे लिखते हैं कि, साम्राज्यवादियों को गद्दी से उतारने के लिए भारत का एकमात्र हथियार श्रमिक क्रांति है। कोई और चीज इस उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकती।
और पूरा हुआ भी नहीं। होता भी कैसे? आजादी भगत सिंह और अन्य क्रान्तिकारियों के रास्तों पर चल कर मिली नहीं। मिली तो एक मजबूरी एक समझौते के तहत यानी सत्ता का हस्तांतरण हुआ वैसे ही जैसे सरकारों का होता है। चूंकि आजादी के डेढ़ दशक पहले क्रांतिकारी शक्तियां ब्रिटिश सरकार के दमन का शिकार हो चुकीं थीं और कांग्रेस में भी गरमदल लगभग टूट चुका था इसलिए सत्ता का हस्तांतरण सुविधा भोगी नरम दल को हुआ। इनमें राजा-रजवाड़े भी शामिल थे। देश की आज़ादी को 75 वर्ष से अधिक हो रहे हैं। आज हम शहीद-ए-आजम का 94वां बलिदान दिवस मना रहे हैं। 94 साल पहले भगत सिंह और उनके साथी राजगुरु और सुखदेव ने हंसते-हंसते फांसी के चूम कर गले लगाया था क्या उनका सपना साकार हुआ? जिस तरह का देश जिस तरह का शोषण मुक्त समाज का निर्माण करना चाहते थे वह हुआ क्या?
ऐसी स्थिति में कम्युनिस्टों का यह नारा याद आना लाजिमी है कि, देश की जनता भूखी है ये आजादी झूठी है।
भगत सिंह ने कहा था कि,
हवा में रहेगी मेरे खयाल की बिजली,
ये मुश्ते-खाक है फ़ानी रहे, रहे न रहे।
क्रांतिकारी शहीदों की बढ़ती लोकप्रियता से भयभीत अंग्रेजों की सरकार ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शरीर को फांसी के पर लटका दिया पर उनके विचारों को, सोच को सरकारें फांसी पर नहीं लटका सकतीं।