कल्पना पांडे
पुरुष समाज की बनाई दुनिया में मां तो बस मां होती है। ( सिर्फ़ कहने को) भाभी ,बहन, बहू ,सास, ननद, नानी- दादी, ताई, मौसी ये सब तो पारिवारिक रिश्तों में हंसी के पात्र हैं। बाहरी समाज में अध्यापक , इंजीनियर, डॉक्टर, कारपोरेट जगत के लोग और न जाने कितने अनगिनत ओहदे। सब में स्त्रीपरक राजनीति। संकीर्ण सोच और हावी होता पुरुष समाज।
मनुवादी व्यवस्था का लचर, लड़खड़ाता और रोगग्रस्त पुरुषत्व। ऐसा कौन सा कार्य है जिसे नारी अंजाम तक नहीं पहुंचा सकती! सबसे बड़ा कर्म सृजन है । उस सृजनात्मक सत्ता को बार-बार दबाना, खाई में धकेलना क्यों पड़ता है ? क्यों डरते हो ? क्यों उसकी व्यापकता, विस्तृत सोच को अपनी छोटी बुद्धि से जांचते हो ?
वह संस्कारशाला है, आदिशक्ति है ,ओंकार की पवित्रता उसी से सिद्ध है। उसके बराबर पुरुष हो ही नहीं सकता। वह तो पहले से ही सर्वोच्च है। पर अपने करुणामई और सहृदयी अवतार ने, उसे अपने को, सबसे आगे कभी बड़ा बनने का घमंड करना नहीं सिखाया । किस बात का डर है पुरुष समाज को जो आज भी नारी शक्ति के पराक्रम से भय खाता है? और उसके आत्मबल को बार-बार नीचा दिखाने की कोशिश में उस मां की कोख को भूल जाता है जो उसका पवित्र जन्म- स्थान है।
सदियों से पुरुष स्त्री पर ही आश्रित है। पर परिवार -समाज का नाम देकर उसके हक़ और अधिकार को छीनने का कुचक्र चलता ही रहता है राम- कृष्ण से लेकर अब तक पूरे ब्रह्मांड की उत्पत्ति के केंद्र में स्त्री है और उसका व्यापक विस्तार है। पर उसी के अस्तित्व और अस्मिता को हर बार अग्नि परीक्षा क्यों?
बच्चे की प्रथम पाठशाला है। स्त्री जो संस्कारों -मूल्यों की पहचान कराती है, जो नैतिकता का पाठ पढ़ाती है। उसे ही पाठ्यक्रम में चिन्हित कर गिराने की सतत् और अपवित्र कोशिश क्यों?
नारी को किसी भी पैमाने में तौलने का पुरुष को किसने अधिकार दे दिया ! जैसे पुरुष को स्व की सत्ता पर स्वतंत्रता मोहित करती है उसी तरह स्त्री के स्व पर पुरुष का वर्चस्व सरासर औचित्यहीन है। संवारना- निखारना नारी का व्यक्तित्व है ।उसके अस्तित्व का अनादर पुरुष समाज की छोटी सोच और कहीं न कहीं स्त्री के गुणों से ख़ुद के कमतर होने का उन्हें है भय है।
विनम्रता को कायरता समझने की गलती पुरुष समाज न करे। स्त्री समर्थ है। उसे किसी सहारे की ज़रूरत नहीं। बेचारगी शब्द बेमानी है। अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए नारी की अस्मिता से खिलवाड़ पुरुष समाज के भीतर पल रहे डर और भय का प्रतीक है।
स्त्री -पुरुष हमसफ़र- साथी हो सकते हैं पर वर्चस्व नहीं ले सकते । स्त्रियों की महानता ही उनके लिए अभिशाप बन गई ।तभी तो पुरुष ने उन पर काबिज़ होना अपना अधिकार समझ लिया। मगर उन्हें नहीं मालूम नारी -शक्ति को चुनौती देना उनके सामर्थ्य में नहीं।