(चुनावी बांड पर दिया गया फैसला अभिव्यक्ति की आजादी को मजबूत करता है। चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द करना लोकतंत्र की मजबूती की दिशा में पहल।)
चुनाव में नियमों का उल्लंघन करके प्रत्याशी बड़े पैमाने पर काले धन का चुनावों में इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा, सभी पार्टियों को कानूनी और गैर-कानूनी तरीके से चंदा मिलता है। पार्टियों के संगठित पैसे से कॉरपोरेट ऑफिस, चार्टर्ड फ्लाइट, रोड शो, रैलियां और नेताओं की खरीद-फरोख्त भी होती है। बोहरा कमेटी की रिपोर्ट में नेता, अपराधी और कॉरपोरेट्स की मिलीभगत को लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा संकट माना गया था। दिवालिया कानून की आड़ में अनेक कंपनियां सरकारी बैंकों का पैसा हजम कर रही हैं। ऐसी कंपनियों को चुनावी बॉन्ड की आड़ में फंडिंग की इजाजत देना देश के खजाने की लूट ही मानी जाएगी।
एक बेहतर समाज बनाने के लिए हमें उनकी समृद्ध लोकतांत्रिक परंपराओं को भी अंगीकार करने की जरूरत है। यह ऐतिहासिक फैसला लोकतंत्र को मजबूत बनाने में मील का पत्थर बन सके, इसके लिए पार्टियों और नेताओं द्वारा पारदर्शी फंडिंग पर अमल जरूरी है।
प्रियंका सौरभ
सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में राजनीतिक दलों को वित्तीय योगदान में पारदर्शिता से जुड़े प्रमुख सवालों पर फैसला सुनाया। इस फैसले के केंद्र में न केवल स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के सिद्धांत की पुष्टि है, बल्कि चुनावी प्रक्रिया की पवित्रता पर धन का प्रभाव और सहभागी लोकतंत्र को बढ़ावा देने में सूचना के अधिकार की भूमिका भी है।
अदालत ने राजनीतिक दलों को असीमित कॉर्पोरेट फंडिंग की संवैधानिक वैधता से संबंधित एक महत्वपूर्ण मुद्दे को संबोधित किया, जिसे कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 182 में संशोधन करके संभव बनाया गया, जिसने राजनीतिक संस्थाओं को कॉर्पोरेट दान पर लगी सीमा को हटा दिया।
चुनावी बॉन्ड योजना पर बहस के मूल में चुनावी राजनीति में पैसे की महत्वपूर्ण भूमिका है, जिस पर अदालत ने अपने पूरे फैसले में जोर दिया है। धन, शक्ति और राजनीति के बीच सांठगांठ को पहचानते हुए, अदालत ने चुनावी लोकतंत्र पर इसके प्रभाव पर प्रकाश डाला। धन का प्रभाव स्वयं चुनावी प्रक्रिया के लिए खतरा पैदा करता है, और सरकारी निर्णय लेने की प्रक्रियाओं की गुणवत्ता और अखंडता को कमजोर करता है।
असीमित कॉर्पोरेट फंडिंग कंपनियों को चुनावी प्रक्रिया पर अनियंत्रित प्रभाव डालने के लिए अधिकृत करती है, जिससे चुनावी वित्तपोषण में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है। इस प्रकार, अदालत ने फैसला सुनाया कि इस तरह की प्रथा स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के मूल सिद्धांत का उल्लंघन करती है और स्वाभाविक रूप से मनमानी है और संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करती है। यह फैसला अपने व्याख्यात्मक अभ्यास के माध्यम से स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के संवैधानिक सिद्धांतों में विश्वास बहाल करता है और विधायिका के पालन के लिए स्पष्ट मानक प्रदान करता है। यह हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए एक महत्वपूर्ण साधन के रूप में आरटीआई के महत्व को भी मजबूत करता है और सूचनात्मक गोपनीयता के दायरे की समझ का विस्तार करता है।
उच्च मूल्य के बेनामी दान चुनावी लोकतंत्र और शासन को कमजोर करते हैं क्योंकि वे दानदाताओं और लाभार्थियों के बीच प्रतिदान की संस्कृति को बढ़ावा देते हैं। चुनावी बांड योजना (ईबीएस) को रद्द करके सुप्रीम कोर्ट ने इस बीमारी को चिन्हित किया है और लोकतंत्र व राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता को मजबूती प्रदान किया है। ईबीएस के तहत कोई भी चुनावी बांड खरीद सकता था और उसे भुनाने के लिए राजनीतिक दलों को दान कर सकता था। यह पूरी योजना संविधान, खासतौर पर मतदाताओं के सूचना के अधिकार, का उल्लंघन करती है। उसने कंपनी अधिनियम में उस संशोधन को भी स्पष्ट रूप से मनमाना पाया गया, जिसके तहत कंपनियों द्वारा अपने लाभ और हानि वाले खातों में चंदा पाने वाले राजनीतिक दलों का खुलासा किए बिना उन्हें अपने मुनाफे के 7.5 फीसदी की सीमा से परे जाकर चंदा देने का प्रावधान किया गया है। इस फैसले ने 2019 से दिए गए दान के विवरण का खुलासा करना भी अनिवार्य कर दिया है। यह फैसला मतदाताओं के अधिकारों को बढ़ावा देने और चुनावों की शुद्धता को बनाए रखने के लिए अदालत द्वारा दिए गए फैसलों की लंबी श्रृंखला में एक कड़ी है।
यह फैसला वर्षों पहले निर्धारित किए गए उस सिद्धांत का स्वाभाविक अनुसरण है कि अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत मतदाताओं की अभिव्यक्ति की आजादी उम्मीदवार की पृष्ठभूमि की जानकारी के बिना अधूरी होगी। इस सिद्धांत को अब आगे बढ़ाकर उन कॉरपोरेट दानदाताओं पर से पर्दा हटाने तक ले जाया गया है जो एहसान के बदले में सत्ताधारी पार्टियों को फंडिंग कर रहे हैं। इस फैसले से धनबल के जरिए शासन पर दानदाताओं की पकड़ को कम करने में मदद मिल सकती है, लेकिन एक सवाल यह उठता है कि क्या इस योजना की वैधता पहले तय की नहीं जा सकती थी या नियमित आधार पर इस बांड को जारी करने पर रोक नहीं लगाई जा सकती थी। इस योजना के तहत पार्टियों को दिए गए हजारों करोड़ रुपये में से कितना दानदाताओं के लिए अनुकूल नीतिगत उपायों के रूप में सामने आया या चुनाव अभियान संबंधी अतिरिक्त संसाधनों की तैनाती के लिए धन लगाने में कितनी मदद मिली, यह कभी पता नहीं चलेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द करने का ऐतिहासिक फैसला दिया है। पिछले छह वर्षों में इस योजना से 16 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा धन सभी पार्टियों को मिला है। चुनावी बॉन्ड योजना को निरस्त करने का सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला लोकतंत्र को मजबूत बनाने में मील का पत्थर बन सके, इसके लिए पार्टियों और नेताओं द्वारा पारदर्शी फंडिंग पर अमल जरूरी है। फंडिंग पर जोर कम होने से धन के बजाय कार्यकर्ताओं का मान बढ़ेगा।
चुनावी बॉन्ड लागू होने से पहले पुरानी कानूनी व्यवस्था के अनुसार, कंपनियां सालाना मुनाफे की अधिकतम सीमा के अनुसार ही दान दे सकती थीं। लेकिन कानून में बदलाव के बाद घाटे वाली कंपनियां भी बॉन्ड के माध्यम से पार्टियों को चंदा देने की हकदार हो गईं थी। मतदाताओं और पार्टियों को चुनावी बॉन्ड देने वाले की जानकारी नहीं मिल सकती थी। लेकिन सरकार को स्टेट बैंक के माध्यम से ये सारी जानकारियां हासिल थीं। कहा जा रहा था कि निजी कंपनियां और कॉरपोरेट्स चुनावी बॉन्ड में पैसा लगाकर सरकारों से अपने हित में अनुचित काम कराते रहे हैं।
चुनाव आयोग ने ऐसे बॉन्ड और विदेशों से मिल रहे चंदे पर गंभीर चिंता व्यक्त की थी। रिजर्व बैंक ने भी इन बॉन्डों के माध्यम से मनी लॉन्ड्रिंग होने की आशंका जाहिर की थी। केंद्र और राज्य सरकारों को चुनावी बॉन्ड में विशेष बढ़त मिलती है, इसलिए इस योजना को जजों ने समानता के विरुद्ध माना है। भारत में लॉबिंग गैर-कानूनी है, लेकिन चुनावी बॉन्डों के माध्यम से निजी कंपनियां सरकारों से अनुचित लाभ ले रही थी।
चुनाव में नियमों का उल्लंघन करके प्रत्याशी बड़े पैमाने पर काले धन का चुनावों में इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा, सभी पार्टियों को कानूनी और गैर-कानूनी तरीके से चंदा मिलता है। पार्टियों के संगठित पैसे से कॉरपोरेट ऑफिस, चार्टर्ड फ्लाइट, रोड शो, रैलियां और नेताओं की खरीद-फरोख्त भी होती है। बोहरा कमेटी की रिपोर्ट में नेता, अपराधी और कॉरपोरेट्स की मिलीभगत को लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा संकट माना गया था। दिवालिया कानून की आड़ में अनेक कंपनियां सरकारी बैंकों का पैसा हजम कर रही हैं। ऐसी कंपनियों को चुनावी बॉन्ड की आड़ में फंडिंग की इजाजत देना देश के खजाने की लूट ही मानी जाएगी।
एक बेहतर समाज बनाने के लिए हमें उनकी समृद्ध लोकतांत्रिक परंपराओं को भी अंगीकार करने की जरूरत है। यह ऐतिहासिक फैसला लोकतंत्र को मजबूत बनाने में मील का पत्थर बन सके, इसके लिए पार्टियों और नेताओं द्वारा पारदर्शी फंडिंग पर अमल जरूरी है।
(लेखिका रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)