आज अंतर्राष्ट्रीय मजदूर /श्रमिक दिवस है। महात्मा गांधी जी ने कहा था कि किसी देश की तरक्की उस देश के कामगारों और किसानों पर निर्भर करती है।कुछ कवियों ने उन्हीं कामगारों को अपनी कविता का विषय बनाया।उनमें से कुछ कवियों की कविताओं को लेकर ये संग्रह तैयार किया गया है।ये संग्रह सभी कामगारों को समर्पित है। इन कविताओं का संकलन किया है नीरज कुमार मिश्र ने।
(१). मजदूर का जन्म – केदारनाथ अग्रवाल
” एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ !
हाथी सा बलवान,
जहाजी हाथों वाला और हुआ !
सूरज-सा इन्सान,
तरेरी आँखोंवाला और हुआ !!
एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ!
माता रही विचार,
अँधेरा हरनेवाला और हुआ !
दादा रहे निहार,
सबेरा करनेवाला और हुआ !!
एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ !
जनता रही पुकार,
सलामत लानेवाला और हुआ !
सुन ले री सरकार!
कयामत ढानेवाला और हुआ !!
एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ !”
(२). मैं वहाँ हूँ – अज्ञेय
“यह जो मिट्टी गोड़ता है, कोदई खाता है और गेहूँ खिलाता है
उस की मैं साधना हूँ।
यह जो मिट्टी फोड़ता है, मडिय़ा में रहता है और महलों को बनाता है
उसी की मैं आस्था हूँ।
यह जो कज्जल-पुता खानों में उतरता है
पर चमाचम विमानों को आकाश में उड़ाता है,
यह जो नंगे बदन, दम साध, पानी में उतरता है
और बाज़ार के लिए पानीदार मोती निकाल लाता है,
यह जो कलम घिसता है, चाकरी करता है पर सरकार को चलाता है
उसी की मैं व्यथा हूँ।
यह जो कचरा ढोता है,
यह झल्ली लिये फिरता है और बेघरा घूरे पर सोता है,
यह जो गदहे हाँकता है, यह तो तन्दूर झोंकता है,
यह जो कीचड़ उलीचती है,
यह जो मनियार सजाती है,
यह जो कन्धे पर चूडिय़ों की पोटली लिये गली-गली झाँकती है,
यह जो दूसरों का उतारन फींचती है,
यह जो रद्दी बटोरता है,
यह जो पापड़ बेलता है, बीड़ी लपेटता है, वर्क कूटता है,
धौंकनी फूँकता है, कलई गलाता है, रेढ़ी ठेलता है,
चौक लीपता है, बासन माँजता है, ईंटें उछालता है,
रूई धुनता है, गारा सानता है, खटिया बुनता है
मशक से सड़क सींचता है,
रिक्शा में अपना प्रतिरूप लादे खींचता है,
जो भी जहाँ भी पिसता है पर हारता नहीं, न मरता है-
पीडि़त श्रमरत मानव
अविजित दुर्जेय मानव
कमकर, श्रमकर, शिल्पी, स्रष्टा-
उस की मैं कथा हूँ।”
(३). ये अनाज की पूलें तेरे काँधें झूलें – माखनलाल चतुर्वेदी
“ये अनाज की पूलें तेरे काँधें झूलें
तेरा चौड़ा छाता
रे जन-गण के भ्राता
शिशिर, ग्रीष्म, वर्षा से लड़ते
भू-स्वामी, निर्माता !
कीच, धूल, गन्दगी बदन पर
लेकर ओ मेहनतकश!
गाता फिरे विश्व में भारत
तेरा ही नव-श्रम-यश !
तेरी एक मुस्कराहट पर
वीर पीढ़ियाँ फूलें ।
ये अनाज की पूलें
तेरे काँधें झूलें !
इन भुजदंडों पर अर्पित
सौ-सौ युग, सौ-सौ हिमगिरी
सौ-सौ भागीरथी निछावर
तेरे कोटि-कोटि शिर !
ये उगी बिन उगी फ़सलें
तेरी प्राण कहानी
हर रोटी ने, रक्त बूँद ने
तेरी छवि पहचानी !
वायु तुम्हारी उज्ज्वल गाथा
सूर्य तुम्हारा रथ है,
बीहड़ काँटों भरा कीचमय
एक तुम्हारा पथ है ।
यह शासन, यह कला, तपस्या
तुझे कभी मत भूलें ।
ये अनाज की पूलें
तेरे काँधें झूलें !”
(४). तोड़ती पत्थर – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
“वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
“मैं तोड़ती पत्थर।”
(५). हम मेहनतकश जब अपना हिस्सा मांगेंगे -फैज अहमद फैज
“हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे.
यां पर्वत-पर्वत हीरे हैं, यां सागर-सागर मोती हैं
ये सारा माल हमारा है, हम सारा खजाना मांगेंगे.
वो सेठ व्यापारी रजवाड़े, दस लाख तो हम हैं दस करोड
ये कब तक अमरीका से, जीने का सहारा मांगेंगे.
जो खून बहे जो बाग उजड़े जो गीत दिलों में कत्ल हुए,
हर कतरे का हर गुंचे का, हर गीत का बदला मांगेंगे.
जब सब सीधा हो जाएगा, जब सब झगडे मिट जाएंगे,
हम मेहनत से उपजाएंगे, बस बांट बराबर खाएंगे.
हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे.”
(६). घिन तो नहीं आती है – नागार्जुन
” पूरी स्पीड में है ट्राम
खाती है दचके पै दचके
सटता है बदन से बदन
पसीने से लथपथ ।
छूती है निगाहों को
कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान
बेतरतीब मूँछों की थिरकन
सच सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है?
जी तो नहीं कढता है?
कुली मज़दूर हैं
बोझा ढोते हैं, खींचते हैं ठेला
धूल धुआँ भाप से पड़ता है साबका
थके मांदे जहाँ तहाँ हो जाते हैं ढेर
सपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन
आकर ट्राम के अन्दर पिछले डब्बे मैं
बैठ गए हैं इधर उधर तुमसे सट कर
आपस मैं उनकी बतकही
सच सच बतलाओ
जी तो नहीं कढ़ता है?
घिन तो नहीं आती है?
दूध-सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा
निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने
बैठना है पंखे के नीचे, अगले डिब्बे मैं
ये तो बस इसी तरह
लगाएंगे ठहाके, सुरती फाँकेंगे
भरे मुँह बातें करेंगे अपने देस कोस की
सच सच बतलाओ
अखरती तो नहीं इनकी सोहबत?
जी तो नहीं कुढता है?
घिन तो नहीं आती है?”
(७).मज़दूर – रामधारी सिंह दिनकर
मैं मज़दूर मुझे देवों की बस्ती से क्या
अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाए।
अंबर में जितने तारे, उतने वर्षों से
मेरे पुरखों ने धरती का रूप सँवारा।
धरती को सुंदरतम
करने की ममता में
बिता चुका है कई
पीढ़ियाँ, वंश हमारा।
और आगे आने
वाली सदियों में
मेरे वंशज धरती का
उद्धार करेंगे।
इस प्यासी धरती के
हित में ही लाया था
हिमगिरी चीर सुखद गंगा की निर्मल धारा।
मैंने रेगिस्तानों की रेती धो-धोकर
वन्ध्या धरती पर भी स्वर्णिम पुष्प खिलाए।
मैं मज़दूर मुझे देवों की बस्ती से क्या?
(८). श्रमिक – रांगेय राघव
“वे लौट रहे
काले बादल
अंधियाले-से भारिल बादल
यमुना की लहरों में कुल-कुल
सुनते-से लौट चले बादल
‘हम शस्य उगाने आए थे
छाया करते नीले-नीले
झुक झूम-झूम हम चूम उठे
पृथ्वी के गालों को गीले
‘हम दूर सिंधु से घट भर-भर
विहगों के पर दुलराते-से
मलयांचल थिरका गरज-गरज
हम आए थे मदमाते से
‘लो लौट चले हम खिसल रहे
नभ में पर्वत-से मूक विजन
मानव था देख रहा हमको
अरमानों के ले मृदुल सुमन
जीवन-जगती रस-प्लावित कर
हम अपना कर अभिलाष काम
इस भेद-भरे जग पर रोकर
अब लौट चले लो स्वयं धाम
तन्द्रिल-से, स्वप्निल-से बादल
यौवन के स्पन्दन-से चंचल
लो, लौट चले मा~म्सल बादल
अँधियाली टीसों-से बादल।”
(९) मज़दूर बच्चों का गीत – रमेश रंजक
“माँ ! हम तो मज़दूर बनेंगे ।
अपने हाथों की मेहनत से
अपने-अपने पेट भरेंगे ।।
जॊ जीता मेहनत के बल पर
उसकी इज़्ज़त होती घर-घर
माँ ! तेरी सौगन्ध हमें, हम
मेहनतकश होकर उभरेंगे ।
माँ ! हन तो मज़दूर बनेंगे ।।
इस युग में मेहनत का परचम
उत्तर-दक्खिन, पूरब-पच्छिम
लहराएगा निर्भय होकर
ऐसे-ऐसे काम करेंगे ।
माँ ! हम तो मज़दूर बनेंगे ।।
जिनको मेहनत से नफ़रत है
उन पर लानत है, लानत है
हम इस युग के बने नमूने
इतनी तेज़ रोशनी देंगे ।
माँ ! हम तो मज़दूर बनेंगे ।।”
(१०).कुदाल की जगह – कुमार मुकुल
“सायबर सिटी की व्यस्ततम सड़क पर
भटकता बढ़ा जा रहा था श्रमिक जोड़ा
आगे पुरुष के कन्धे पर
नुकीली, वज़नी, पठारी खंती थी
पीछे स्त्री के सिर पर
छोटी-सी पगड़ी के ऊपर
टिकी थी
स्वतन्त्र कुदाल
कला दीर्घाओं में
स्त्रियों के सर पर
कलात्मकता से टिके मटके देख
आँखें विस्फारित हो जाती थीं मेरी
पर कितना सहज था वह दृश्य
अब केदारनाथ सिंह मिलें
तो शायद मैं उन्हें बता सकूँ
कि कुदाल की सही जगह
ड्राइंगरूम में नहीं
एक गतिशील सर पर होती है।”
(११). हम मज़दूर-किसान – रामकुमार कृषक
“हम मज़दूर-किसान… हम मज़दूर-किसान…
हम मज़दूर-किसान रे भैया हम मज़दूर-किसान…
हम जागे हैं अब जागेगा असली हिन्दुस्तान
हम मज़दूर किसान… हम मज़दूर किसान…
अपनी सुबह सुर्ख़रू होगी अन्धेरा भागेगा
हर झुग्गी अँगड़ाई लेगी हर छप्पर जागेगा
शोषण के महलों पर मेहनतकश गोली दागेगा
शैतानों से बदला लेगी धरती लहू-लुहान…
हम मज़दूर किसान… हम मज़दूर किसान…
मिल-मज़दूर और हलवाहे मिलकर संग चलेंगे
खोज-खोज डँसनेवाले साँपों के फन कुचलेंगे
ख़ुशहाली को नई ज़िन्दगी देने फिर मचलेंगे
मुश्किल से टकराकर होगी हर मुश्किल आसान…
हम मज़दूर किसान… हम मज़दूर किसान…
हरी-भरी अपनी धरती पर अपना अम्बर होगा
नदियों की लहरों-सा जीवन कितना सुन्दर होगा
सबसे ऊँचा सबसे ऊपर मेहनत का सिर होगा
छीन नहीं पाएगा कोई बच्चों कि मुस्कान…
हम मज़दूर किसान… हम मज़दूर किसान…”