प्रोफेसर राजकुमार जैन
मेरी तमाम उम्र दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ते-पढ़ाते गुजरी है, इसलिए गुरु और शिष्य का रिश्ता कैसा हो? तालीम देने का कौन सा तरीका, रास्ता ज्यादा कारगर है, इस विषय पर बड़े-बड़े नामवर शिक्षा शास्त्रियों, प्रोफेसरों, वाइस चांसलरों तथा अन्य क्षेत्रों के माहिर जानकारो को वक्त वक्त पर सुनने के अलावा शिक्षा, विद्यार्थी शिक्षक संबंध, कन्वोकेशन दीक्षांत समारोह के मौके पर दिए गए विशेषज्ञ भाषणों को इकट्ठा कर बनाई गई किताबों को भी पढ़ने का मौका मिला। भारी भरकम कठिन भाषा, दुनिया भर के मशहूर मारूफ आलिम विद्वानों के उदाहरणों, लंबे चौड़े आंकड़ों के मकड़ जाल से बोझिल भाषणों को सुनने और पढ़ने वालों को कितना ज्ञान तथा असर हुआ कहा नहीं जा सकता। पर पिछले दिनों मशहूर तबला नवाज उस्ताद जाकिर हुसैन जिनका हाल ही में इंतकाल हुआ द्वारा ग्वालियर में स्थित आईटीएम यूनिवर्सिटी मैं दिया गया भाषण यादगार बन गया।
दुनिया भर में तबला वादक के रूप में शोहरत पायें उस्ताद जाकिर हुसैन को जाना जाता है, परंतु जिस सहजता, बिना बनावटीपन साधारण तरीके से उन्होंने अपनी तबला सीखने की यात्रा का जिक्र किया वह किसी भी शिक्षा शास्त्री के ज्ञान के कुल्ले से कमतर नहीं।
उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत संगीत पर रचे गए एक श्लोक से करते हुए कहा-
**गणनाम गणपति, गणेश लंबोदर सोहे भुजा चार
एकतंत्र चंद्रमा ललाट राजे ब्रह्मा विष्णु महेश
तालक ध्रुपद गावे अति विचित्र गण नाद
आज मृदंग बजावे।**
यह मेरे जीवन की शुरुआत है। यह पहला कदम है, उन अनगिनत कदमों में से जो आगे चलकर मेरे जीवन को आकार देंगे। यह कोई शिखर नहीं है, बल्कि एक यात्रा का आरंभ है। इस यात्रा पर टिके रहने और अपने अनुशासन को बनाए रखने के लिए मैं आईटीएम यूनिवर्सिटी का धन्यवाद करता हूं, जिन्होंने मुझ पर अपना आशीर्वाद प्रदान किया।
मैं पूरी निष्ठा और दिल से यह प्रयास करूंगा कि मैं उस छोटे से विश्वास के काबिल बन सकूं, जो उन्होंने मुझमें देखा है। मुझे आशा है कि मैं उनके विश्वास पर खरा उतर सकूं।
*पिता का मंत्र*
मेरे पिता, उस्ताद अल्लारखा, हर दिन मेरे पाठ की शुरुआत इन शब्दों से करते थे:
“बेटा, मास्टर बनने की कोशिश मत करो। सिर्फ एक अच्छा छात्र बनने की कोशिश करो, और तुम सब कुछ ठीक कर लोगे।”
यह एक महत्वपूर्ण सबक है। एक बार किसी ने एक महान कलाकार से कहा, “आज आपने कमाल कर दिया। आप अद्भुत थे।” कलाकार ने उत्तर दिया, “मित्र, मैंने अब तक इतना अच्छा नहीं बजाया कि मैं इसे छोड़ सकूं।”
यह सबक यह सिखाता है कि अगर आप मान लें कि आपने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर लिया है, तो शायद आपको सेवानिवृत्त हो जाना चाहिए। लेकिन जीवन और रचनात्मकता का यही अर्थ नहीं है। जीवन हर बार अगला कदम उठाने का नाम है।
*मेरी शुरुआत*
मेरी यात्रा बहुत पहले शुरू हुई। मैं दो दिन का था, जब मुझे अस्पताल से घर लाया गया। मेरी माँ ने मुझे मेरे पिता के पास प्रस्तुत किया। परंपरा के अनुसार, उन्हें मेरे कान में कलमा पढ़ना था। लेकिन उन्होंने मेरे कान में ताल और लय के स्वर फूँक दिए। मेरी माँ ने कहा, “आप प्रार्थना क्यों नहीं पढ़ रहे?” उन्होंने उत्तर दिया, “यह मेरी प्रार्थना है। यही इसे अपने निर्माता से जोड़ने का माध्यम होगा।”
सात साल की उम्र में, जब उन्होंने मेरे स्कूल प्रदर्शन को सुना, तो उन्होंने मुझसे पूछा, “क्या तुम तबला गंभीरता से सीखना चाहते हो?” यह सुनकर मैं बहुत खुश हुआ। अगले दिन सुबह 3 बजे मेरी पहली गंभीर शिक्षा शुरू हुई।
*अध्ययन का अनुभव*
मेरी पढ़ाई सुबह 3 बजे से शुरू होती थी। हम सूफी दरगाह के सामने बैठकर सीखते थे। सुबह 6 बजे माँ मुझे तैयार कर, पराठा और लस्सी खिलाकर मदरसे भेज देतीं। वहां मैं कुरान पढ़ता। उसके बाद मैं सेंट माइकल स्कूल जाता, जहां हम भजन गाते। इस तरह, कुछ घंटों के भीतर, मैं विभिन्न जीवनशैलियों का अनुभव करता।
मेरे गुरुओं ने कभी यह नहीं कहा कि उनका मार्ग सही है और दूसरों का गलत। इन अनुभवों ने मुझे सिखाया कि भारतीय कला और संस्कृति विविधता में एकता की प्रतीक है।
*गुरु-शिष्य संबंध*
भारतीय परंपरा में, गुरु एक तेज बहती नदी के समान है। यह छात्र पर निर्भर करता है कि वह ज्ञान के कितने हिस्से को आत्मसात करता है। एक अच्छा शिष्य वही है जो अपने गुरु को प्रेरित करता है कि वह उसे सिखाने के लिए प्रेरित हो।
मेरे पिता ने एक बार कहा, “जो कुछ मुझसे सीख सकते हो, सीखो। लेकिन अपनी पहचान बनाओ।” उन्होंने मुझे सिखाया कि यात्रा महत्वपूर्ण है, न कि मंजिल।
*आत्मा से जुड़ाव*
मेरे पिता ने कहा कि हर वाद्ययंत्र में एक आत्मा होती है। जब आप उस आत्मा से मित्रता कर लेते हैं, तो आधी यात्रा पूरी हो जाती है। तब से तबला मेरा सबसे प्रिय साथी बन गया।
मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप सभी अपने क्षेत्र में वह आत्मा और मित्रता पाएँ। यही आपको खुशी और संतोष देगा।
(जारी है,)