शशि शेखर प्रसाद सिंह
दिल्ली विश्वविद्यालय देश का प्रतिष्ठित केंद्रीय विश्वविद्यालय है और अगले साल अपनी स्थापना के सौ साल पूरे करेगा लेकिन विगत 25-30 सालों से यद्यपि देश में सरकारें बदलती रही , विश्वविद्यालय में कुलपति बदलते रहे किंतु शिक्षकों की नियमित स्थाई ( परमानेंट) न्युक्ति न करने की संक्रामक बीमारी से सभी ग्रसित रहे…. कारण समय समय पर बदलता रहा किंतु (दुष्)परिणाम एक ही रहा – तदर्थवाद को बढ़ावा देना… और आज यह भयानक सच्चाई सबके सामने है….पांच हजार से अधिक तदर्थ और अस्थाई शिक्षक पल पल अपने असुरक्षित भविष्य से आक्रांत…..
दिल्ली विश्वविद्यालय में 5000 से अधिक तदर्थ शिक्षक
यहाँ विश्वविद्यालय के विभाग, सभी कॉलेज तथा स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग में लगभग दस हजार शिक्षक हैं किंतु उसमें से आधे से अधिक तदर्थ ( अस्थाई) शिक्षक हैं। सर्वाधिक चिंता का विषय यह है कि आज दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज में हचारों शिक्षक वर्षो से ही नहीं बल्कि कुछ तो दो दशकों से अधिक तदर्थ शिक्षक के रूप में पढ़ा रहे हैं। यहां नियमित नियुक्तियां नहीं होती। स्थाई शिक्षक लगातार अपना सेवा कार्यकाल पूरा कर सेवा से अवकाश ग्रहण करते जा रहे हैं परंतु स्थाई न्युक्तियाँ वर्षों नही होती ।परिणामत: लगातार तदर्थ शिक्षकों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। कई महाविद्यालयों में स्थाई शिक्षकों से अधिक, और कहीं कहीं तो स्थाई शिक्षकों की संख्या से दुगने शिक्षक तदर्थ शिक्षक के रूप में वर्षों से कार्य कर रहे हैं।
सवाल उठता है कि देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में तदर्थ शिक्षक की इतनी संख्या कैसे बढ़ गयी और स्थाई न्युक्तियाँ क्यों नहीं होती । कुछ कॉलेज में 2010-11 में कुछ स्थाई न्युक्ति हुई थी , फिर 2015 में कुछ कॉलेज में लगभग 800 स्थाई न्युक्ति हुई थी। किंतु उसके बाद फिर स्थाई न्युक्ति रुक गई। 2015 के बाद अधिकांश कॉलेज में तीन बार स्थाई न्युक्ति के लिए विज्ञापन निकाले गए किंतु स्थाई न्युक्ति नही हुई। यद्यपि विश्वविद्यालय के कुछ विभागों में स्थाई न्युक्तियाँ हुई किंतु 1915 के बाद मात्र एक कॉलेज में दो स्थाई न्युक्ति हुई। उच्च अदालत के आदेश के बाद विधि विभाग में दो दशक बाद स्थाई नियुक्तियां हुई ।
देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के कॉलेज में स्थाई शिक्षक की तुलना में तदर्थ शिक्षकों की इस बढ़ती संख्या के लिए कौन जिम्मेदार है ? बहुत कॉलेज में कई ऐसे विभाग हैं जहां एक भी स्थाई शिक्षक नहीं है , तदर्थ शिक्षक से विभाग चल रहा है। सारे कार्य तदर्थ शिक्षक करते हैं किंतु वो विभाग के इंचार्ज नही बन सकते क्योंकि वे स्थाई नही हैं।
कल्पना कीजिए कि कोई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय अपनी स्थापना के 100 साल पूरे करे और वहाँ नियमित नियुक्तियां नहीं हो और आधे से अधिक तदर्थ शिक्षक हो जिसकी संख्या संख्या 5000 से अधिक हो जाए ।
चिंता का विषय यह है कि तदर्थ शिक्षक के रूप में काम करने वाले हज़ारों शिक्षकों को स्थाई नौकरी पाने की कोई गारंटी नहीं है । यद्यपि उन्हें प्रत्येक 4 महीने में दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के संघर्ष और दबाव के कारण तदर्थ नियुक्ति मिल जाती हैं परंतु व्याख्याता के रूप में उन्हें बेसिक सैलेरी , महंगाई भत्ता, गृह भत्ता तथा परिवहन भत्ता के अलावे कोई अन्य सुविधा नही मिलती। इसके अलावा उन्हें वार्षिक सेवा के लिये दिये जाने वाला कोई वार्षिक इंक्रीमेंट नहीं मिलता , बीमारी की स्थिति में मेडिकल की सुविधा नहीं मिलती, और स्थाई नौकरी की तरह एम . फिल. तथा पीएच .डी के लिए निर्धारित दो या पांच इंक्रीमेंटलीव नहीं मिलता । साथ ही यदि किसी प्रकार दुर्घटना हो जाए या लंबी बीमारी हो तो न मेडिकल लीव मिलती है, न चिकित्सा के लिए आर्थिक सुविधा मिलती है। इतना ही नही , लंबी बीमारी या दुर्घटना के कारण तदर्थ नौकरी भी छूट जाती है। यदि किसी प्रकार कोई हादसा हो जाये और उसमें मृत्यु हो जाए तो परिवार को आर्थिक लाभ नही मिलता। कोरोना महामारी में बहुत सारे तदर्थ शिक्षकों की दुःखद मृत्यु हो गयी किंतु मृत्यु के बाद किसी प्रकार की आर्थिक सुरक्षा न होने के कारण परिवार ने जीविका अर्जंन करने वाला भी खोया और स्थाई नौकरी वाली कोई आर्थिक सुरक्षा भी नहीं मिली। दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के दबाव में पहली बार कोरोना महामारी के कारण जान से हाथ धोने वाले तदर्थ शिक्षकों को भी शिक्षक कल्याण कोष से एकमुश्त राशि ₹500000 मिले किंतु यह विशेष कृपा मात्र कोरोना महामारी के कारण मृत्यु के लिए था अर्थात यदि किसी तदर्थ शिक्षक की किसी सामान्य बीमारी से असमय मृत्यु हो जाती है तो शिक्षक कल्याण कोष से कोई आर्थिक सहायता उसके परिवार को नहीं मिलेगी।
तदर्थ महिला शिक्षकों को मैटरनिटी अवकाश नहीं
तदर्थ व्याख्याता के रूप में महिला शिक्षिकाओं को गर्भधारण करने के कारण स्थाई महिला शिक्षिका को प्राप्त वेतन सहित अवकाश की सुविधा नही मिलती। इसका दुष्परिणाम यह देखा जाता है या तो तदर्थ महिला शिक्षिकाएं स्थाई होने की आस में विवाह के फैसले को टालती रहती हैं या विवाह कर लेती हैं किंतु गर्भधारण करने के फैसले को टालती रहती हैं क्योंकि उन्हें निरंतर यह भय सताता रहता है कि गर्भधारण करने के कारण कहीं उनकी नौकरी ना चला जाए । यह कैसी विडंबना है कि स्त्री जिसे मातृत्व सुख प्राप्त करने का नैसर्गिक अधिकार है, तदर्थ शिक्षक रहने के कारण मातृत्व सुख से वंचित रह जाती हैं।
नियमित स्थाई न्युक्ति ना होना तदर्थवाद का मूल कारण
दिल्ली विश्वविद्यालय में नियमित नियुक्तियां ना होना यह एक दुखद पहलू है जिसका दुष्परिणाम लगातार तदर्थ शिक्षकों की बढ़ती संख्या है तथा अधिकांश कार्य करने के बावजूद स्थाई शिक्षक की तरह तदर्थ शिक्षकों को कोई लाभ नहीं मिलता है । वह पदोन्नति से वंचित रह जाते हैं। कई कॉलेज में 65 साल की सेवा देने के बाद भी तदर्थ शिक्षक होने के कारण बिना किसी स्थाई शिक्षक की आर्थिक सुविधा या अन्य पदोन्नति का लाभको दिए नौकरी से बाहर हो गए । इतना ही नहीं, एक और पहलू बहुत महत्वपूर्ण है । 2003 के बाद जो स्थाई नियुक्तियां हो रही हैं उसमें पुरानी पेंशन की व्यवस्था नहीं है । इसका यह अर्थ होता है यदि आपके स्थाई नियुक्ति के बाद आपकी सेवा का कार्यकाल कम है तो आपके प्रोविडेंट फंड में जो पैसा जमा होगा वह बहुत कम होगा। परिणामत: आपके अवकाश ग्रहण करने के बाद आपको या मृत्यु के पश्चात परिवार को मासिक पेंशन राशि बहुत कम मिल पाएगी । ऐसी स्थिति में तदर्थ व्याख्याताओं की स्थाई नियुक्ति में विलंब का खामियाजा तदर्थ शिक्षकों को स्थाई होने के बाद भी भुगतना पड़ेगा।
स्थाई होने के बाद भी पदोन्नति में तदर्थ काल का कुल अध्यापन अनुभव न जुटना
तदर्थ शिक्षक के रूप में लगातार अपने जीवन के बेहतरीन वर्ष शिक्षण में देने के बाद यदि स्थाई होने का सौभाग्य मिल भी जाए तो पदोन्नति के समय तदर्थ शिक्षक के रूप में कुल अध्यापन अनुभव का ना जुटना एक अभिशाप से कम नहीं…. पहले वर्षो स्थाई होने की चिंता में जीवन के खूबसूरत साल व्यतीत कीजये और जब स्थाई हो जाइये तो इस पीड़ा को झेलिए कि पदोन्नति में पूरा अनुभव जुटने के बजाय पहली पदोन्नति के लिए आवश्यक अनुभव काल ही जुटेगा और शेष अनुभव निरर्थक था….. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के द्वारा ऐसे अतार्किक और तदर्थ शिक्षक विरोधी सेवा नियमों का दंश तदर्थ शिक्षक स्थाई होकर भी झेलता रहता है……
एकमुश्त समायोजन ही विकल्प और न्यायपूर्ण
इन तमाम कमियों के कारण दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ ने तदर्थ व्याख्याताओं की स्थाई नियुक्ति के लिए कानून के द्वारा एक बार समायोजन की मांग की है क्योंकि स्थाई नियुक्ति न होने से हजारों व्याख्याताओं के सामने न सिर्फ नौकरी की असुरक्षा है बल्कि तमाम स्थाई नियुक्तियों की आर्थिक और अन्य सुविधाएं से भी वे वंचित रह जाते हैं। जो तदर्थ शिक्षिकाएं/ शिक्षक शादीशुदा है और उन्हें संतान है उन्हें उनके बच्चों को पढ़ाई के लिए मिलने वाली आर्थिक लाभ भी नही मिलता।
यह देखा जा रहा है कि दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे केंद्रीय विश्वविद्यालय में नियमित नियुक्ति ना होने से हजारों की संख्या में युवा धीरे-धीरे किसी अन्य क्षेत्र में स्थाई नियुक्ति की चाह में चले जाते हैं। दुर्भाग्य यह है कि यूजीसी और शिक्षा विभाग के लोग बार-बार स्थाई न्युक्ति बात तो करते हैं किंतु स्थाई नियुक्ति नहीं होती । लोकसभा/ राज्यसभा में कई बार प्रश्नकाल में दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थाई नियुक्ति के संबंध में प्रश्न पूछें गए और कई बार शिक्षा मंत्री ने घोषणा की कि जल्द ही सारी अस्थाई नियुक्तियों की जगह स्थाई नियुक्तियां की जाएंगी। सरकार के पास नाक के नीचे दिल्ली विश्वविद्यालय में कितने पद रिक्त हैं इसकी भी सूचना गलत दी जाती है। दुर्भाग्य का विषय यह है कि उच्च शिक्षा जैसे क्षेत्र में प्रतिभाएं आना नहीं चाहती क्योंकि इतने लंबे समय तक स्थाई नियुक्ति की प्रतीक्षा और उसमें इतने नुकसान सहने की इच्छाशक्ति सारे प्रतिभा संपन्न लोगों में नहीं है । सवाल यह भी है कि स्थाई नियुक्ति की प्रतीक्षा में अपनी जिंदगी के बेहतरीन वर्षों को नष्ट क्यों करें। आवश्यकता इस बात की है दिल्ली विश्वविद्यालय में जल्द से जल्द तदर्थ शिक्षकों को समायोजित किया जाए क्योंकि स्थाई नियुक्ति होने से प्रतिभा संपन्न शिक्षकों को आप विश्वविद्यालय में आकर्षित कर पाएंगे, उच्च शिक्षा में ऐसे शिक्षकों को समय पर स्थाई नियुक्ति मिलने से उनकी प्रतिमा का गुणवत्तापूर्ण शिक्षण के लिए भरपूर उपयोग हो पाएगा । आवश्यकता इस बात की है इन तमाम बिंदुओं को ध्यान में रखकर दिल्ली विश्वविद्यालय में तुरंत हजारों रिक्त स्थाई पदों को भरने के लिए तदर्थ शिक्षकों को उचित रोस्टर के द्वारा एक कानून के द्वारा समायोजित किया जाए और भविष्य में विश्वविद्यालय प्रशासन को सरकार की ओर से यह हिदायत दी जाए कि समय समय पर नियमित नियुक्तियों की प्रक्रिया को पूरा किया जाए ।यहां तक कि अवकाश ग्रहण करने वाले शिक्षक के अवकाश के पूर्व उनकी जगह पर नई नियुक्तियों के लिए विज्ञापन निकाला जाए और यथा समय स्थाई नियुक्तियां की जाए ताकि दिल्ली विश्वविद्यालय से तदर्थवाद स्थाई रूप से समाप्त हो सके जो एक नासूर बन चुका है किंतु तत्काल तदर्थ तथा अस्थाई शिक्षकों का स्थाई शिक्षक के रूप में एकमुश्त समायोजन ही न्यायोचित समाधान है ।