‘ हज्जाम की झोपड़ी का यह नूंर हमारा गौरव है ‘

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(भाग– 7)

प्रोफेसर राजकुमार जैन

कर्पूरी ठाकुर हरावल दस्ते के सोशलिस्ट थे !

सवाल पैदा होता है की क्या कर्पूरी जी सत्ता के लिए, सिद्धांत को पीछे धकेल देते थे? नहीं, यह बात नहीं थी। बिहार की राजनीति का एक कड़वा सच है कि जिस नेता के पीछे उसकी जाति का वरदहस्त है, वही खेल खेल सकता है। कर्पूरी जी एक ऐसी जाति से ताल्लुक रखते थे जिसका ना बाहुबल था ना धनबल। अगड़ों का समूह तो उन पर हमलावर रहता ही था, पिछड़ों में भी दबंग जातियों के नेता गोलबंदी करके कर्पूरी जी को धेरने का प्रयास करते थे। कर्पूरी जी की मजबूरी थी, उस चक्र को भेदने के लिए वे ऐसे निर्णय भी करते थे। उनका यह भी मानना था की गहना सिर्फ पहनने वाला ही नहीं झलकने वाला भी होना चाहिए।
सब कुछ के बावजूद बिहार में बड़ी तादाद में हर जाति, धर्म, वर्ग का एक बड़ा तबका उनका हमेशा प्रशंसक बना रहा। उनकी निजी ईमानदारी, विनम्रता, सदाशयता के कायल होने के करण वे भूमिहार राजपूत बाहुल्य चुनाव क्षेत्र से हमेशा भारी मतों से जीतते रहे। कई बार कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक शक्ति को नजरअंदाज किया गया। उसका एक उदाहरण उनको बिहार के मुख्यमंत्री पद से हटाना था। प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई उनके विरुद्ध थे, उन्होंने कर्पूरी जी को मुख्यमंत्री पद से हटवाने में भूमिका निभाई। सोशलिस्ट चिंतक मधुलिमए ने लिखा है कि अगर बिहार में कर्पूरी ठाकुर की सरकार ना गिराई जाती, तो केंद्र में मोरारजी भाई की सरकार को भी खतरा नहीं होता।
क्या कारण है की 1952 से लेकर आज तक बिहार में सोशलिस्टों की एक पहचान बनी हुई है? सरकार हो या विपक्ष उनकी मौजूदगी हमेशा रही है। इसकी वजह बिहार के दो सोशलिस्ट नेताओं श्री रामानंद तिवारी और कपूरी ठाकुर की रहनुमाई उनके संघर्ष, संगठन को खड़ा करने की जी तोड़ मेहनत और क्षमता रही है। बिहार में बड़ी तादाद में लड़ाकू सोशलिस्ट नौजवानो की एक बड़ी जमात उन्होंने खड़ी की। इसमें से कई नौजवान देश प्रदेश के के नामवर नेता बने।
सोशलिस्ट पार्टी के एक कार्यकर्ता की हैसियत से मैंने बरसों बरस इन नेताओं के त्याग को नजदीक से देखा है। यह कर्पूरी.ठाकुर थे जो अपनी जनसभा में हमेशा सभा करने के बाद समाजवादी साहित्य को एक मिशनरी के रूप में बेचते थे। दिल्ली में जब भी कर्पूरी.जी आते तो सोशलिस्ट लिटरेचर की सैकड़ो पुस्तकों, पुस्तिकाओं की प्रतिया वह अपने साथ ले जाते थे। मधुलिमए द्वारा लिखित पुस्तिका ‘राजनीति का नया मोड़’ जिसको मैंने प्रकाशित किया था, उसकी 500 प्रतिया कर्पूरी जी ने वितरित की थी।
मैंने देखा था, सोशलिस्ट सम्मेलनों में मंच पर अंबिका दादा, तिवारी जी और कर्पूरी जी सम्वेद स्वर में सोशलिस्ट गीतों को गाते थे।
फैहरे लाल निशान हमारा,
हल चक्र का मेल निराला,
औरों का घर भरने वालों,
खून पसीना बहाने वालों,
कह दो इंकलाब आएगा।
बदल निजाम दिया जाएगा,
फिर होगा जग में उजियारा,
फैहरे लाल निशान हमारा।
सम्मेलन स्थल पर एक लहर उठ जाती थी, कार्यकर्ताओं का जोश देखने लायक होता था। इन नेताओं का अपना कोई निजी जीवन नहीं था, सब कुछ पार्टी के लिए था। इसलिए इन्होंने गांव देहात की उबड खाबड पगडंडियों को पैदल, साइकिल,नावो बैलगाड़ियों पर नापते हुए, जेठ की दोपहरी, जानलेवा सर्दी मे, भूख प्यास की चिंता किये बिना, साधनो के अभाव मे समाजवाद का परचम लहराया। जिसके करण किसी न किसी शक्ल में बिहार में सोशलिस्टों की पहचान बनी हुई है। मुझे आज तक याद है की सोनपुर (बिहार) में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित था। उससे पहले मैदान में वहां बैलों का मेला लगा था। उनके गोबर पर ही पुआल बिछाकर, टेंट लगाकर प्रतिनिधियों के ठहरने का इन्तजाम किया गया था। सुबह उठने पर सब की कमर के नीचे बैलों के गोबर की छाप लग चुकी थी। कर्पूरी जी अपने बिखरे बाल, मैली घुटनों तक की धोती, ऊंचे कुर्ते पर पहनी हुई सदरी में घूम कर प्रतिनिधियों का हालचाल पूछ रहे थे। उनको देखकर नारा लगने लगता था, सोशलिस्ट पार्टी जिंदाबाद, कमाने वाला खाएगा, लूटने वाला जाएगा, नया जमाना आएगा। बड़ी सी देघ में पकते
कच्चे पक्के चावलों, मैं नमक मिलाकर खाते हुए साथी इंकलाबी जज्बे से भरे हुए रहते थे।
कर्पूरी जी की व्यक्तिगत ईमानदारी और सादगी का मैं चश्मदीद गवाह रहा हूं। 1970 में पुणे में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन था। अधिवेशन समाप्ति के बाद पुणे के रेलवे स्टेशन पर कर्पूरी जी से उनके सुपुत्र रामनाथ ठाकुर शिकायत कर रहे थे कि बाबूजी हमारा कोट फट गया है, कब आप हमको नया दिलवाएंगे, कर्पूरी जी ने कहा दिलवाएंगे, दिलवाएंगे,
रामनाथ ने फिर दोहराया आप हमेशा ऐसे ही कहते हैं, उस पर कर्पूरी.जी ने कहा तुम कोट तो पहन रहे हो, इसमें थेकली लगी है तो क्या हुआ। यह बिहार का मुख्यमंत्री बोल रहा था, क्या आज इसकी कल्पना की जा सकती है?
इस तरह के कई रोचक किस्से मेरे जहन में है। एक बार युवा जनता का एक प्रतिनिधिमंडल जिसमें मेरे साथी मारकंडेय सिंह, मयाकृष्णन तथा दो-तीन और अन्य साथी थे, कर्पूरी जी से मिलने के लिए उनके डेरे पर गए थे। कर्पूरी जी ने हमारे लिए चाय मंगवाई, एक रिक्शावाला उनके घर के बाहर खड़ा रहता था, उसको कर्पूरी.जी ने कहा चाय लेकर आओ, घर के थोड़ी दूरी पर सड़कपर एक चाय बनाने वाला था, उसके यहां से एलमुनियम की केतली में मिट्टी में बने हुए दिए के साइज मे चाय पीने के लिए दी गई। कर्पूरी जी ने पूछा गरम तो है ना, कौन उनको बताता कि चाय से तो गला भी गीला नहीं हुआ। सब ने कहा बहुत ही स्वादिष्ट चाय है। कर्पूरी जी को कहीं बाहर मीटिंग के लिए जाना था, उन्होंने चलते-चलते अपने पी ए सुरेंद्र से कहा कि इनको खाना खिला कर भेजना। कमरे में बैठी उनकी धर्मपत्नी सुन रही थी, कर्पूरी जी के जाते ही उन्होंने कहा हमरा कपार खिला दीजिए, जो आता है कि सबको खाना खिला दीजिए सामान घर में कोई है नहीं, हम सब जोर से बोल उठे अरे नहीं, हम तो अभी ही खाना खाकर आए हैं।
मधुलिमए के घर पर दिल्ली में अक्सर कर्पूरी जी आते थे, उनसे कई बार बातचीत होती थी। सोशलिस्ट तहरीक के हमारेर्इस महानायक पर हमें फख्र है।

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