द न्यूज 15
नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश में पांच साल के योगी शासन के दौरान दलितों, मुस्लिमों, पिछड़ों और महिलाओं पर अत्याचार की जहां सारी हदें पार हो गईं वहीं पत्रकार भी आतंक से बचे नहीं रहे। गुरुवार को जारी एक जांच रिपोर्ट में कहा गया है कि इन पांच सालों में 12 पत्रकारों की हत्या हुई और पत्रकारों पर हमले के मामले में 138 मामले दर्ज किए गए।
पत्रकारों पर हमले के विरुद्ध समिति (CAAJ) और मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (पीयूसीएल) ने यह रिपोर्ट जारी की है। मीडिया की घेराबंदी के नाम से जारी इस पूरी रिपोर्ट को यहां पढ़ा जा सकता है।
इस रिपोर्ट के अनुसार, साल 2017 में यूपी में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से लेकर इस रिपोर्ट के प्रकाशन तक राज्य में कुल 12 पत्रकारों की हत्या हुई है। सबसे ज्यादा सात पत्रकार 2020 में मारे गये। 2018 और 2019 में एक भी पत्रकार की हत्या नहीं हुई। जिस साल राज्य में भारतीय जनता पार्टी की सरकार आयी, 2017 में दो पत्रकार मारे गये- कानपुर के बिल्हौर में हिंदुस्तान अखबार के नितिन गुप्ता और ग़ाज़ीपुर में दैनिक जागरण के प्रतिनिधि राजेश मिश्रा।
उत्तर प्रदेश में पिछले पांच वर्ष के दौरान प्रेस की आज़ादी पर हुए हमलों पर केंद्रित इस रिपोर्ट को हमलों की प्रकृति के आधार पर चार श्रेणियों में बांटा गया है:
(1) हत्या, (2) शारीरिक हमला, (3) मुकदमे/गिरफ्तारी और (4) हिरासत/धमकी/जासूसी।
सभी श्रेणियों को मिलाकर पांच साल में पत्रकारों पर हमले के कम से कम 138 मामले दर्ज किये गये हैं जिनमें सबसे ज्यादा हमले 2020 और 2021 में हुए हैं।
पत्रकारों पर हमले के विरुद्ध समिति (CAAJ) ने सितंबर 2018 में दिल्ली में आयोजित अपने दो दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन में देश भर में मारे गए जिन पत्रकारों की गवाहियां करवायी थीं, उनमें नितिन गुप्ता के परिजन भी शामिल थे। आज नितिन गुप्ता के छोटे भाई खुद पत्रकारिता कर रहे हैं और स्थानीय स्तर पर एक चैनल चला रहे हैं। राजेश मिश्रा की हत्या को शुरुआत में संदिग्ध माना गया था क्योंकि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता भी थे। 2018 में प्रकाशित अपनी पहली रिपोर्ट में CAAJ ने राजेश मिश्रा का केस शामिल नहीं किया था क्योंकि उस वक्त तक स्थिति स्पष्ट नहीं थी। बाद में ग़ाज़ीपुर की पत्रकार यूनियन सहित और क्षेत्रीय पत्रकार संघों ने इस मामले को उठाया। कमेटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (सीपीजे) ने काफी बाद में इस मामले में ज़मीन पर जाकर पड़ताल की और राजेश मिश्रा को अपनी आधिकारिक रिपोर्ट में जगह दी, जिसके आधार पर CAAJ ने भी इसे अपनी रिपोर्ट में शामिल किया है।
दो साल के अंतराल के बाद 2020 में कुल सात पत्रकार राज्य में मारे गये- राकेश सिंह, सूरज पांडे, उदय पासवान, रतन सिंह, विक्रम जोशी, फराज़ असलम और शुभम मणि त्रिपाठी। राकेश सिंह का केस कई जगह राकेश सिंह ‘निर्भीक’ के नाम से भी रिपोर्ट हुआ है। बलरामपुर में उन्हें घर में आग लगाकर दबंगों ने मार डाला। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की पड़ताल बताती है कि भ्रष्टाचार को उजागर करने के चलते उनकी जान ली गयी। राकेश सिंह राष्ट्रीय स्वरूप अखबार से जुड़े थे। उन्नाव के शुभम मणि त्रिपाठी भी रेत माफिया के खिलाफ लिख रहे थे और उन्हें धमकियां मिली थीं। उन्होंने पुलिस में सुरक्षा की गुहार भी लगायी थी लेकिन उन्हें गोली मार दी गयी। गाजियाबाद में पत्रकार विक्रम जोशी को भी दिनदहाड़े गोली मारी गयी। इसी साल बलिया के फेफना में टीवी पत्रकार रतन सिंह को भी गोली मारी गयी।
सोनभद्र के बरवाडीह गांव में पत्रकार उदय पासवान और उनकी पत्नी की हत्या पीट-पीट के दबंगों ने कर दी। उन्नाव में अंग्रेजी के पत्रकार सूरज पांडे की लाश रेल की पटरी पर संदिग्ध परिस्थितियों में बरामद हुई थी। पुलिस ने इसे खुदकुशी बताया लेकिन परिवार ने हत्या बताते हुए एक महिला सब-इंस्पेक्टर और एक पुरुष कांस्टेबल पर आरोप लगाया, जिसके बाद उनकी गिरफ्तारी हुई।
कौशांबी में फराज असलम की हत्या 7 अक्टूबर 2020 को हुई। फराज़ पैगाम-ए-दिल में संवाददाता थे। इस मामले में पुलिस को मुखबिरी के शक में हत्या की आशंका जतायी गयी है क्योंकि असलम पत्रकार होने के साथ-साथ पुलिस मित्र भी थे। इस हत्या के ज्यादा विवरण उपलब्ध नहीं हैं। पुलिस ने जिस शख्स को गिरफ्तार किया था उसने अपना जुर्म कुबूल कर लिया जिसके मुताबिक उसने असलम को इसलिए मारा क्योंकि वह उसके अवैध धंधों की सूचना पुलिस तक पहुंचाते थे। ज्यादातर मामलों में हुई गिरफ्तारियां इस बात की पुष्टि करती हैं कि मामला हत्या का था।
2021 में दो पत्रकारों की हत्या यूपी में हुई। दोनों मामले चर्चित रहे। प्रतापगढ़ में सुलभ श्रीवास्तव ने अपनी हत्या से पहले अर्जी देकर आशंका जाहिर की थी कि शराब माफिया उन्हें मरवा सकता है। उन्होंने स्थानीय शराब माफिया के भ्रष्टाचार को उजागर किया था। पुलिस ने चेतावनी पर कार्रवाई करने के बजाय हत्या को सामान्य हादसा ठहरा दिया। इस मसले पर एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने बाकायदे एक बयान जारी करते हुए उत्तर प्रदेश पुलिस की कार्यशैली पर सवाल उठाया था। दूसरी हत्या लखीमपुर खीरी में रमन कश्यप की थी जिसका आरोप केंद्रीय मंत्री अजय मिश्र टेनी के बेटे आशीष मिश्रा के ऊपर है, जिसने अपनी गाड़ी से कथित रूप से प्रदर्शनरत किसानों को रौंद दिया था जिसमें कश्यप भी शिकार हुए थे। इस मामले में एक अखिल भारतीय जांच टीम जिसमें पीयूसीएल भी शामिल था, उसने निष्कर्ष दिया कि यह एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत की गयी हत्या है।
इस साल की शुरुआत सहारनपुर में एक पत्रकार सुधीर सैनी की हत्या से हुई है। सैनी को गाड़ी ओवरटेक करने के मामले में कथित तौर पर सरेराह दिनदहाड़े पीट-पीट कर मार डाला गया। इस मामले में दो आरोपियों की गिरफ्तारी हो चुकी है। हत्या के पीछे का कारण अब तक स्पष्ट नहीं हो सका है कि इसके पीछे कोई सुनियोजित साजिश है या नहीं।
शरीरिक हमलों की सूची बहुत लंबी है। कम से कम 50 पत्रकारों पर पांच साल के दौरान शारीरिक हमला किया गया, जो इस रिपोर्ट में दर्ज है। इसमें जानलेवा हमले से लेकर हलकी-फुलकी झड़प भी शामिल है। हमलावरों में पुलिस से लेकर नेता और दबंग व सामान्य लोग शामिल हैं। ज्यादातर हमले रिपोर्टिंग के दौरान किये गगे। सबसे भयावह तीनों मामले 2019 में शामली जिले में न्यूज 24 के पत्रकार अमित शर्मा, ईटीवी भारत के खुर्शीद मिसबाही और सोनभद्र के विजय विनीत से जुड़े हैं। खुर्शीद और अमित शर्मा के केस CAAJ की पिछली रिपोर्ट में शामिल हैं। 2018 का सत्येंद्र गंगवार का केस भी CAAJ की सितंबर 2018 में प्रकाशित पहली रिपोर्ट में विस्तार से शामिल था। सोनभद्र में यूपी वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन (यूपीडब्लूजेयू) के जिलाध्यक्ष विजय विनीत पर कातिलाना हमला नवंबर 2019 में हुआ था। हमलावर एक हिस्ट्रीशीटर है जो अब तक 110 बार पाबंद हो चुका था। उसने विजय विनीत पर अवैध कब्जे और आपराधिक हरकतों का विरोध करने पर बुरी तरह से मारपीट कर हाथ तोड़ दिया। विनीत दैनिक जागरण में रह चुके हैं और हमले के वक्त भाजपा विधायक भूपेश चौबे के मीडिया प्रभारी के रूप में काम कर रहे थे। पत्रकारों पर शारीरिक हमले के मामले में संख्या 2020 में काफी बढ़ी है और 2021 सबसे ज्यादा हमलों का गवाह रहा है। इस रिपोर्ट में शारीरिक हमलों की श्रेणी में दर्ज केवल वे मामले हैं जिनमें मुकदमा कायम नहीं किया गया। मुकदमे वाली श्रेणी में भी कई मामले ऐसे हैं जिनमें मारपीट और झ़ड़प देखने में आया। इनमें सबसे चर्चित दो मामले पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सुरक्षाकर्मियों के साथ पत्रकारों की हुई धक्कामुक्की के रहे। पहले मामले में दोनों पक्षों की ओर से एफआइआर दर्ज करवायी गयी थी। इन हमलों में इकलौता मामला जो महिला पत्रकार से जुड़ा था, वह सितंबर 2021 का है जब लखनऊ में एक दलित महिला पत्रकार मुस्कान कुमारी को चाकू से मारा गया था।
गंभीर हमलों में एक मामला सीतापुर से 2020 का है। सीतापुर जिले में न्यूज़ एजेंसी “शार्प मीडिया” के मान्यता प्राप्त पत्रकार शैलेन्द्र विक्रम सिंह 9 अगस्त को अवैध रूप से संचालित हो रहे एक अस्पताल की कवरेज करने पहुंचे थे। वहां के झोलाछाप डॉक्टर और उसके साथियों ने उसे बुरी तरह पीटा जिससे पत्रकार को सिर में गंभीर चोटें आयी थीं। पत्रकार ने जैसे-तैसे वहां से भागकर अपनी जान बचायी और थाने जाकर आरोपियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया। इसी तरह मुरादनगर में प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के फोटोग्राफर रवि चौधरी पर जानलेवा हमला दिसंबर 2020 में हुआ। इसी तरह सितंबर में सहारनपुर के एक पत्रकार देवेश त्यागी पर दिनदहाड़े सरेराह गंभीर हमला हुआ, जिसका आरोप एक स्थानी भाजपा नेता पर है। उक्त मामले में भाजपा नेता सहित कुल 11 लोगों के खिलाफ एफआइआर दर्ज की गयी।
नवंबर 2020 मे सोनभद्र में मनोज कुमार सोनी पर हुआ हमला बहुत जानलेवा रहा। उनके ऊपर यह दूसरी बार हुआ हमला था। इससे पहले 2018 में वे हमले का शिकार हो चुके हैं। दैनिक परफेक्ट मिशन में काम करने वाले मनोज के ऊपर लोहे की रॉड से छह लोगों ने 4 नवंबर को हमला किया था जिसमें उनकी कई हड्यिां टूट गयी थीं। सीपीजे के मुताबिक अपना इलाज करवाने में उन्हें ढाई लाख का खर्च आया था। अगर पुलिस ने 2018 में उन पर हुए हमले के बाद कार्रवाई की होती तो यह नौबत नहीं आती।
2021 में हमलों की संख्या भले ज्यादा है लेकिन ज्यादातर मामले पुलिस उत्पीड़न से जुड़े हैं। 2022 में अब तक अमेठी, कौशाम्बी, कुंडा, सीतापुर, गाजियाबाद से पत्रकारों पर शारीरिक के मामले सामने आए हैं। इनमें से अधिकतर का स्रोत सोशल मीडिया और स्थानीय अखबारों में प्रकाशित सूचनाएं हैं जिनकी जमीनी पुष्टि नहीं हो सकी है। हत्या के बाद यदि संख्या और गंभीरता के मामले में देखें तो कानूनी मुकदमों और नोटिस के मामले 2020 और 2021 में खासकर सबसे संगीन रहे हैं। उत्तर प्रदेश का ऐसा कोई जिला नहीं बचा होगा जहां पत्रकारों को खबर करने के बदले मुकदमा न झेलना पड़ा हो। जरूरी नहीं कि खबर बहुत बड़ी और खोजी ही हो- सामान्य चिकित्सीय लापरवाही की खबर से लेकर क्वारंटीन सेंटर के कुप्रबंधन और पीपीई किट की अनुपलब्धता जैसे मामूली मामलों पर भी सरकार की ओर से एफआइआर दर्ज की गयी हैं। मिड डे मील नमक रोटी परोसे जाने, लॉकडाउन में मुसहर समुदाय के बच्चों के घास खाने से लेकर स्कूल में बच्चों से पोछा लगवाने जैसी खबरों पर बाकायदा प्रतिशोधात्मक रवैया अपनाते हुए मुकदमे किये गये।
स्कूली बच्चों को घटिया भोजन परोसे जाने के मामले में पुलिस आंचलिक पत्रकार पवन जायसवाल के पीछे तब तक पड़ी रही, जब तक भारतीय प्रेस काउंसिल ने इस मामले को संज्ञान में नहीं लिया। योगी सरकार की ज्यादती यहीं नहीं रुकी। सरकार ने दैनिक जनसंदेश का विज्ञापन भी रोक दिया जहां यह खबर प्रकाशित हुई थी। इस घटना के कुछ ही दिन बाद आज़मगढ़ जनपद के आंचलिक पत्रकार संतोष जायसवाल को 7 सितंबर 2019 को एक प्राथमिक विद्यालय में बच्चों से जबरदस्ती परिसर की सफाई कराये जाने का मामला उजागर करने पर गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। इस रिपोर्ट में महत्वपूण्र योगदान देने वाले CAAJ के यूपी प्रभारी विजय विनीत ने ऐसे मामलों पर न्यूज़क्लिक में एक विस्तृत रिपोर्ट की है जिसमें वे लिखते हैं: ”कोविड काल में लॉकडाउन के दौरान बिगड़े हुए हालात पर रिपोर्ट करने के कारण उत्तर प्रदेश में कम से कम 55 पत्रकारों और संपादकों के खिलाफ मामला दर्ज हुआ अथवा उन्हें गिरफ्तार किया गया। उत्तर प्रदेश सरकार की नाकामियों को तोपने के लिए नौकरशाही ने काफी तेजी दिखायी है और कुछ ही महीनों में कई सारे ऐसे मामले सामने आये जहां प्रशासन पर सवाल उठाने वाली खबरों के कारण पत्रकारों पर एफआइआर दर्ज की गयी। साल 2020 में लॉकडाउन शुरू होते ही मार्च के अंतिम दिनों में भूख से बेहाल मुसहर समुदाय के लोगों की हालात पर रिपोर्ट लिखने पर वाराणसी के जिलाधिकारी कौशलराज शर्मा ने इस लेखक के लिए कानूनी नोटिस भिजवाया और गिरफ्तार करने की धमकी भी दी। यही नहीं, अपने बेटे के साथ अंकरी घास खाते हुए मीडिया और सोशल मीडिया में तस्वीरें भी वायरल की। घास को दाल बताते हुए उन्होंने फर्जी ढंग से गिरफ्तार करने के लिए ताना-बाना तक बुन डाला। यह घटना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लोकसभा क्षेत्र से सटे वाराणसी के कोइरीपुर गांव की है, जहां मुसहर समुदाय के लोग घास खाने को मजबूर हो गये थे। इस मामले में नौकरशाही की कलई खुलने लगी तो खुन्नस निकालने के लिए पत्रकार मोहम्मद इरफान को अकारण शांतिभंग में गिरफ्तार लिया गया। साथ ही विजय सिंह नामक पत्रकार को सरेराह गोदौलिया (बनारस) चौराहे पर पीटा गया और बाद में हवालात में डाल दिया गया।”
उत्तर प्रदेश में खबरों को सरकारी काम में बाधा बताने और झूठ साबित करने के लिए केवल आंचलिक और क्षेत्रीय पत्रकारों को ही निशाना नहीं बनाया गया। इसमें बड़े पत्रकार भी लपेट लिए गये। सबसे दिलचस्प मामला स्क्रोल डॉट इन की संपादक सुप्रिया शर्मा का रहा। यह भी प्रधानमंत्री के चुनाव क्षेत्र बनारस का ही केस है। वाराणसी जिला प्रशासन ने दबाव बनाकर सुप्रिया शर्मा के खिलाफ एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) कानून 1989 और आइपीसी की विभिन्न धाराओं के तहत केस दर्ज कराया। वाराणसी के रामनगर थाने में डोमरी गांव की माला देवी से शिकायत दर्ज करवायी गयी कि सुप्रिया शर्मा ने अपनी रिपोर्ट में गलत तरीके से बताया है कि कोरोना वायरस के कारण लागू लॉकडाउन के कारण आपातकालीन भोजन की व्यवस्था न होने से उनकी स्थिति और खराब हुई है। सुप्रिया ने डोमरी गांव के लोगों की स्थिति की जानकारी दी थी और गांव वालों के हवाले से बताया था कि लॉकडाउन के दौरान किस तरह से उनकी स्थिति और बिगड़ गयी है। डोमरी उन गांवों में से एक है जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत गोद लिया है। सुप्रिया की रिपोर्ट में बताया गया था कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के फेल हो जाने से गांव के गरीब लोगों को जरूरी राशन के बिना गुजारा करना पड़ रहा है। शर्मा पर यह एफआईआर भी कोविड-19 लॉकडाउन से प्रभावित लोगों की स्थिति पर रिपोर्ट करने, स्वतंत्र पत्रकारिता को डराने और चुप कराने की कोशिश थी।
लॉकडाउन में प्रशासनिक कुप्रबंधन को छुपाने के लिए न केवल मुकदमे किये गये बल्कि वरिष्ठ पत्रकारों के परिवारों को भी निशाना बनाया गया। एक गंभी मामला जो चर्चा में नहीं आ सका वो उरई से चलने वाले यंग भारत न्यू़ज़ पोर्टल के संपादक संजय श्रीवास्तव से जुड़ा है जो 35 वर्ष तक बड़े अखबारों में ब्यूरो प्रमुख के पद पर रह चुके हैं। उन्होंने प्रशासन में काफी ऊपर तक अपने साथ हुए अन्याय की गुहार लगायी है लेकिन अब तक उन्हें न्याय नहीं मिल सका है। श्रीवास्तव की दिसंबर 2021 में लिखी एक अर्जी के अंश: ”मेरे द्वारा सच्ची और निष्पक्ष खबरों के प्रकाशन के क्रम में पिछले सप्ताह ‘कैसे आया प्रशासन बैकफुट पर’ नामक शीर्षक से एक समाचार यंग भारत पर प्रसारित किया गया था। इसे DM प्रियंका निरंजन ने अपनी तौहीन माना और तानाशाही रवैये के फलस्वरूप दिनांक 1 दिसंबर को हमारे पैतृक निवास 20, कृष्णा नगर उरई में बिना किसी वारंट अथवा न्यायिक आदेश के लगभग दो दर्जन बदतमीज पुलिसकर्मी कोतवाल उरई नागेंद्र कुमार पाठक के नेतृत्व में हमारे निवास के अंदर जबरन घुस आए तथा उन्होंने बदतमीजी पूर्ण ढंग से खूब धमकाया, महिलाओं से बदतमीज़ी करी। सरकारी छोटी बंदूक अड़ाकर परिजनों को धमकी दी कि प्रशासन से टकराने की अगर हिम्मत करी तो परिणाम गंभीर होंगे और सबको उठाकर गैंगस्टर एक्ट के तहत जेल भेज देंगे। तब तक पड़ोसी आ गये और पुलिस आलमारी में रखे 600 रुपये- सौ-सौ के 6 नोट एवं एक सोने का टूटा हुआ बाला उठाकर भाग गये। दिनांक 2 दिसंबर को पुलिस ने अपने कहे अनुसार मेरे (संजय श्रीवास्तव) और मेरे दोनों भाइयों के विरुद्ध गैंगस्टर एक्ट की कार्यवाही लागू कर दी जो पत्रकार और पत्रकार परिवार तथा शरीफ समाज का बेहद उत्पीड़न है।”
फतेहपुर में बिलकुल इसी तरह एक वरिष्ठ पत्रकार और जिला पत्रकार संघ के अध्यक्ष अजय भदौरिया के खिलाफ प्रशासन ने मुकदमा दर्ज कर लिया। लॉकडाउन के दौरान गरीबों के लिए चलायी जाने वाली कम्युनिटी किचन बंद होने की खबर लिखने के लिए भदौरिया व अन्य के खिलाफ जिला प्रशासन ने आइपीसी की धारा 505, 385, 188, 270 व 269 के तहत जून 2020 में मुकदमा दर्ज किया था। इसके अलावा आपराधिक षड्यंत्र की धारा 120बी भी लगा दी गयी थी। एफआइआर में पत्रकार पर आरोप लगाया गया कि सामुदायिक रसोईघर बंद होने की खबर से अव्यवस्था फैल गयी।
इस घटना से आक्रोशित होकर फतेहपुर के पत्रकार जल सत्याग्रह पर चले गये। यह उत्तर प्रदेश में अपने किस्म का एक अनूठा आंदोलन रहा जब जिला प्रशासन के खिलाफ पत्रकारों ने गंगा नदी में आधा पैठकर प्रदर्शन किया। पत्रकारों ने लगभग दो घंटे नदी में खड़े होकर जल सत्याग्रह किया, राज्यपाल के नाम ज्ञापन दिया और डीएम के खिलाफ कार्रवाई की मांग की। इसके साथ ही पत्रकारों पर दर्ज फर्जी मुकदमे भी वापस लेने की मांग की। इस पर प्रशासन का जवाब यह आया कि फतेहपुर के डीएम ने 7 जून, 2020 को जारी एक प्रेस नोट में कहा कि जिला सूचना अधिकारी द्वारा की गयी जांच में पता चला है कि बीते 32 साल से पत्रकारिता कर रहे अजय भदौरिया साल 2020 में किसी प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े हुए नहीं हैं। यह एक आधिकारिक खंडन है कि भदौरिया पत्रकार हैं। इसके बाद जल सत्याग्रह कर रहे पत्रकारों की तस्वीर कांग्रेस की नेता प्रियंका गांधी ने ट्वीट की।
खबर को सरकारी काम में दखल और षडयंत्र मानने से लेकर अब पत्रकार को पत्रकार न मानने तक बात आ पहुंची है। यह परिघटना भी केवल स्थानीय पत्रकारों तक सीमित नहीं है, बल्कि उत्तर प्रदेश में बीबीसी और हिंदू जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों के पत्रकारों के साथ भी यही बरताव किया जाता है। दि हिंदू के यूपी ब्यूरो ओमर राशिद का मामला बड़े विस्तार से CAAJ ने अपनी पिछली रिपोर्ट में छापा था। ऐसा ही कुछ बीबीसी के संवाददाता दिलनवाज़ पाशा के साथ घटा जब वे संभल में अपने एक रिश्तेदार को हिरासत में लिए जाने की दरयाफ्त करने थाने पहुंचे थे। दिलनवाज़ ने इस घटना के बारे में अपने फेसबुक पर लिखा था:
“मैंने अपने बारे में अपने साथ उत्तर प्रदेश के संभल जिले के बहजोई थाना क्षेत्र में हुई घटना से जुड़ी कई पोस्ट पढ़ी हैं। मैं वहां पूछताछ के लिए हिरासत में लिए गए एक व्यक्ति के बारे में जानकारी लेने के लिए निजी हैसियत से गया था। मैंने अपना परिचय बीबीसी पत्रकार के तौर पर नहीं दिया था। थाने में ये पूछते ही कि संबंधित व्यक्ति को किस कारण या किस मामले में पूछताछ के लिए बुलाया गया है, वहां मौजूद पुलिसकर्मी ने मेरे फोन छीन लिए और मुझे वहीं बैठने को मजबूर किया। कई बार मांगने पर भी मेरे फोन नहीं दिए गए और मेरे साथ बदसलूकी की। बाद में जब मेरे पहचान पत्र से मेरी पत्रकार के तौर पर पहचान पुलिस को पता चली तो सब माफी मांगने लगे। संभल के पुलिस अधीक्षक को जब इस बारे में पता चला तो उन्होंने मुझसे बात की और जोर दिया कि मैं संबंधित पुलिसकर्मियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराऊं। यूपी पुलिस और प्रशासन के कई शीर्ष अधिकारियों ने भी मुझसे संपर्क करके जोर दिया कि मैं शिकायत दर्ज कराऊं, लेकिन मैंने इस संबंध में कोई कार्रवाई न करने का फैसला लिया।” जिन पत्रकारों पर इन पांच वर्षों में यूपी में मुकदमे दर्ज किये गये हैं उनमें 2021 की सूची हाइ प्रोफाइल है। सिद्धार्थ वरदराजन, मृणाल पांडे, राणा अयूब, ज़फ़र आगा, सबा नक़वी, विनोद के. जोस, अनंत नाथ जैसे दिल्ली के बड़े नामों को योगी सरकार ने अलग-अलग बहानों से मुकदमों में फंसाने की कोशिश की। दि वायर को विशेष रूप से निशाना बनाया गया। भारत समाचार और दैनिक भास्कर पर छापे मरवाये गये।
26 जनवरी, 2021 को किसान ट्रैक्टर रैली के दौरान लाल किले पर हुए उपद्रव को लेकर एक एफआइआर दर्ज की गयी। वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई, जफर आगा और अनंत नाथ सहित कुल सात जानी-मानी हस्तियों के खिलाफ राजद्रोह का केस लगा दिया गया। इन सभी लोगों पर मीडिया पर पोस्ट के जरिये दंगा भड़काने, हिंसा फैलाने को लेकर उत्तर प्रदेश के नोएडा के सेक्टर-20 थाने में एफआइआर दर्ज की गयी।
थाने में बुलाकर पूछताछ, हिरासत, आदि की घटनाएं भी इस रिपोर्ट में दर्ज हैं। जासूसी के मामले में उत्तर प्रदेश से जो पत्रकार पेगासस की जद में आये हैं, उनमें डीएनए लखनऊ के पूर्व पत्रकार दीपक गिडवानी और इलाहाबाद से प्रकाशित पत्रिका ‘दस्तक नये समय की’ की संपादक सीमा आज़ाद हैं। महामारी अधिनियम और धारा 188 के तहत उत्तर प्रदेश में इतने पत्रकारों को पुलिस द्वारा नोटिस थमाया जा चुका है कि जिसकी गिनती करना आसान नहीं है। कोविड के दौर में लगे दो लॉकडाउन के दौरान जिला और प्रखंड स्तर पर पत्रकारों पर हुए मुकदमों के सारे आंकड़े अब तक नहीं प्राप्त हो सके हैं। कुल मिलाकर हमले की सभी श्रेणियों में पांच वर्ष के दौरान जो कुल 138 मामले इस रिपोर्ट में दर्ज हैं, वे वास्तविकता से काफी कम हैं। कोशिश यही की गयी है कि चर्चित मामलों के अलावा स्थानीय स्तर पर दबे रह गए उत्पीड़न के मामलों को भी सामने लाया जाय। यह सूची अब भी अद्यतन हो रही है। उम्मीद की जाती है कि CAAJ की 2020-2021 की समग्र राष्ट्रीय रिपोर्ट आने तक उत्तर प्रदेश में हमलों की कवरेज और सघन हो पाएगी। (इनपुट वर्कर्स यूनिटी)