बचपन के वो गीत

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स्याही-कलम-दवात से, सजने थे जो हाथ ।
कूड़ा-करकट बीनते, नाप रहे फुटपाथ ।।
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बैठे-बैठे जब कभी, आता बचपन याद ।
मन चंचल करने लगे, परियों से संवाद ।।
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मुझको भाते आज भी, बचपन के वो गीत ।
लोरी गाती मात की, अजब-निराली प्रीत ।।
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छीन लिए हैं फ़ोन ने, बचपन से सब चाव ।
दादी बैठी देखती, पीढ़ी में बदलाव ।।
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मूक हुई किलकारियां, चुप बच्चों की रेल ।
गूगल में अब खो गए, बचपन के सब खेल ।।
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बचपन में भी खूब थे, कैसे-कैसे खेल ।
नाव चलाते रेत में, उड़ती नभ में रेल ।।
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यादों में बसता रहा, बचपन का वो गाँव ।
कच्चे घर का आँगना, और नीम की छाँव ।।

नहीं रही मैदान में, बच्चों की वो भीड़ ।
बना लिए हैं फ़ोन में, उनने अपने नीड़ ।।

सत्यवान सौरभ

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