राजेश कुमार
पत्रकार होने के नाते यूं तो मैं रोज ही ढेर सारी ख़बरें पढ़ता हूं, लेकिन पिछले दिनों जब एक ख़बर पढ़ी तो मन गहरी चिंता का भाव आया। वित्तमंत्री ने जानकारी दी कि सरकार 60 खरब की सरकारी संपत्ति की बिक्री की तैयारी कर रही है। इस फैसले को अगले 4 साल में अमल में लाया जाएगा और अगर ऐसा होता है तो सार्वजनिक उपक्रमों और परिसंपत्तियों की अभी तक की ये सबसे बड़ी बिक्री होगी, जिसमें सरकार ट्रांसमिशन लाइन, टेलिकॉम टावर, गैस पाइपलाइन, हवाई अड्डे, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (पीएसयू) समेत दूसरी राष्ट्रीय परिसंपत्तियों को भी निजी हाथों में सौंप देगी। मेरी चिंता का आशय ये नहीं था कि सरकार सालों की मेहनत से तैयार संसाधनों को कौड़ियों के भाव लुटाने में लगी है, ये अब कोई नई बात नहीं है। आने वाले दिनों में प्रचंड बहुमत की आड़ में सरकार इस तरह के फैसले लेती रहेगी, यह हम सब भली भांति जानते हैं। मेरी चिंता का कारण ये था कि इस फैसले के बाद जिस तरह की प्रतिक्रिया देखने को मिलनी चाहिए थी, विरोध के जो सुर सुनाई देने चाहिए थे, वो नहीं मिल रहे हैं। केवल इसी मुद्दे पर नहीं बल्कि इस तरह के हर जन-विरोधी और संविधान-विरोधी फैसलों को लगभग चुपचाप या रस्मी विरोध दर्ज करके स्वीकार कर लिया जाता है।
मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों में तो ख़ैर इतना साहस अब बचा ही नहीं कि खुलेआम सांप्रदायिकता और नवउदारवाद को चुनौती दे सकें। लेकिन बौद्धिक और वैचारिक वर्ग की तरफ से भी अब कोई खुलकर बोलता नहीं दिख रहा है। कम से कम वैचारिक असहमति जाहिर करने की जरूरत भी लोग नहीं समझ रहे हैं। ये हमारे जैसे लोगों की चिंता का सबसे बड़ा कारण है।
मैं खुद यूनिवर्सिटी के जमाने से सोशलिस्ट विचारों से प्रभावित रहा। हर गोष्ठी, मंच और कार्यक्रमों में शिरकत करता रहा। बौद्धिक जमात की तरफ से ऐसी चुप्पी मैंने पहले कभी नहीं देखी। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) की तरफ से इस तरह के फैसलों पर लगातार संघर्ष के मोर्चे पर अपनी प्रभावी मौजूदगी दर्ज कराई जाती थी। संसद और विधानसभाओं के बाहर पार्टी ज़मीनी संघर्ष के साथ वैचारिक मोर्चे पर एक सार्थक और प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभाती नजर आती थी। देश की सौ ऐतिहासिक धरोहरों सहित लाल क़िला, जिसकी प्राचीर से हर स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्रीय फहराया जाता है, का रख-रखाव निजी हाथों में सौंपने की बात हो, रेलवे जैसे वृहद विभाग का बड़े पैमाने पर निजीकरण करते जाने का फैसला हो, या फिर इस तरह के अन्य दूसरे फैसले – सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से साफगोई के साथ एक प्रतिबद्ध वैचारिक प्रतिपक्ष की मिसाल देखने को मिलती थी।
डॉ प्रेम सिंह के महासचिव और फिर अध्यक्ष रहते पार्टी ने निजीकरण-निगमीकरण के खिलाफ राजधानी और देश के अन्य हिस्सों में कई बड़े कार्यक्रम किए। सबका यहां जिक्र संभव नहीं, लेकिन कुछ बड़े कार्यक्रम हुए जिनका जिक्र जरूरी है। 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की याद में पार्टी 10 मई को हर साल कार्यक्रम करती थी। जिस साल लाल किला का रख-रखाव एक व्यापारिक घराने को सौंपा गया सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं ने 10 मई को मेरठ स्थित क्रांति-स्थल से दिल्ली दरवाजा और लाल किला तक मार्च निकाला। कई साल पहले ही यूपीए सरकार के कार्यकाल में पार्टी ने बहादुरशाह जफर के अवशेष यांगून से दिल्ली लाने की मांग का ज्ञापन राष्ट्रपति को सौंपा था। तब से पार्टी के कार्यकर्ता हर 10 मई को राष्ट्रपति को अपनी उस मांग की याद दिलाते थे। दूसरा कार्यक्रम अगस्त क्रांति की याद में होने वाला सालाना आयोजन था जिसे पार्टी ज़ोर शोर से मनाती थी। पार्टी की युवा इकाई सोशलिस्ट युवजन सभा (एसवाईएस) के सक्रिय सहयोग से किए जाने वाले इन आयोजनों का मकसद नवउदारवाद पर निर्णायक चोट करना और नव-साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय चेतना को मजबूत करना था। साथ ही पार्टी की ओर से जारी होने वाले प्रस्ताव, ज्ञापन, प्रेस विज्ञप्ति आदि नवउदारवादी नीतियों के विरोध के साथ एक मुकम्मल विकल्प प्रस्तुत करते थे। इनका स्थायी महत्व है और ये पुस्तकाकार प्रकाशित होने चाहिए।