गहन लगे सूरज की भांति ढल रहा है आदमी ।
अपनी ही चादर को खुद छल रहा है आदमी ।।
आदमी ने आदमी से,
तोड़ लिया है नाता ।
भूल गया प्रेम की खेती,
स्वार्थ की फसल उगाता ।।
मौका पाते गिरगिट ज्यों, बदल रहा है आदमी ।
अपनी ही चादर को खुद छल रहा है आदमी ।।
आलस के रंग दे बैठा,
संघर्षी तस्वीर को ।
चमत्कार की आशा करता,
देता दोष तकदीर को ।।
पानी-सी ढ़ाल बनाकर, चल रहा है आदमी ।
अपनी ही चादर को खुद छल रहा है आदमी ।।
मंजिल का कुछ पता नहीं,
मरे-मरे से है प्रयास।
कटकर के पंख दूर हुए,
छूए कैसे अब आकाश।।
देख के दूजे की उन्नति, जल रहा है आदमी ।
अपनी ही चादर को खुद छल रहा है आदमी ।।
(प्रियंका सौरभ के काव्य संग्रह ‘दीमक लगे गुलाब’ से।