कैसा है उपहास

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तुच्छ परिंदे ही सदा, करते हैं आवाज़ ।
रहते सौरभ चुप मगर, उड़ते ऊँचे बाज़ ।।

ये भी कैसा दौर है, कैसा है उपहास।
अपनों से करते दगा, गैरों पे विश्वास।।

मानवता के नाम पर, खूब छपे सौजन्य।
हुए बाजारू लोग भी, देखो सौरभ धन्य।।

काम निकलते हों जहां, रहो उसी के संग।
सत्य यही बस सत्य है, यहॉ आज के ढंग।।

बगुले से बगुला मिले, और हंस से हंस।
कहाँ छुपाने से छिपे, तेरी संगत, अंश।।

सुन मेरी दो पंक्तियाँ, हो जाते सब दूर ।
दर्पण-सी बातें यहाँ, कौन करे मंजूर ।।

भाग-दौड़ में दिन कटे, और सोच में शाम ।
तन्हाई बस रात की, रहती मेरे नाम ।।

कष्ट-दुखों को काटने, रोज रहा अभ्यस्त ।
पर किस्मत की लाइनें, रही सदा ही व्यस्त ।।

नींद गई, सपने गए, मिला नहीं आराम ।
थकने भी देते नहीं, ‘सौरभ’ मुझको काम ।।

डॉ. सत्यवान सौरभ

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