महानगरों में रह रहे युवाओं को अपनी ओर खींच लेती थी गांवों की मिटटी की सौंधी खुशबु
दिवाली का त्यौहार रोशनी का त्योहार माना जाता है और रोशनी का महत्व अंधेरे से होता है। आज भले ही विभिन्न संसाधनों के चलते दिवाली के दिन गांव और शहर जगमगा जाते हों पर किसी समय गांवों की जो दिवाली होती थी उसका कोई जवाब नहीं हो सकता है। उस दौर में जब गांव देहात में बिजली नहीं थी और अमावस्या की रात जब दीये जलाकर रखे जाते थे तो उनकी रंगत कुछ और ही होती थी। उन दिनों भले ही लोग अभाव की जिंदगी जीते हो पर त्योहारों का मजा दिल से लेते थे। वह दौर आत्मीयता और प्यार मोहब्बत का था। यह दौर चकाचौंध का नहीं बल्कि कैंडिल और दीये का था। आज भले ही घरों को जगमगाने की प्रतिस्पर्धा होती हो पर तब प्रतिस्पर्धा इस बात की होती थी कि किसका कैंडिल सबसे ऊंचा होगा और ज्यादा समय तक जलेगा।
गांवों में युवा दोपहर से ही लम्बे बांस से कैंडिल को ऊंची करने के लिए लग जाते थे। बांस जमीन में गाड़कर शाम को जब अँधेरा हो जाता था तो कैंडिल में तेल से भरा एक दीया रखा जाता था और रस्सी के सहारे बांस की चोटी पर ऊपर पहुंचाया जाता था। गांवों में एक दूसरे की दीवाली पुजवाने की एक अनोखी परंपरा थी। गांवों में घर-घेर के साथ ही कुएं, कुड़ी, खेत, होली दहन की जगह, गांव के देवता हर जगह दीये रखने की परंपरा रही है जो आज तक चली आ रही है।
वह दौर आज की तरह स्वार्थ का नहीं था। गांवों के अलावा रिश्तेदारों से आत्मीयता से मिला जाता था। कम कमाई से बड़ी ख़ुशी हासिल की जाती थी। आत्मीयता के रिश्ते त्योहारों का मजा कई गुना कर देते थे। कहना गलत न होगा कि आज हम कितने भी संसाधन हासिल कर लें पर त्योहार तो वे ही थे। वह भी गांवों के। हमने कितना भी हासिल कर लिया हो पर आत्मीयता के रिश्ते और प्यार मोहब्बत को हम खोते जा रहे हैं। यदि वास्तव में त्योहार मना रहे हैं तो आत्मीयता और प्यार मोहब्बत फिर से ले आइये। यकीन मानिये फिर न केवल खुशहाली आएगी बल्कि स्वास्थ्य के मामले में भी एक बड़ी क्रांति समाज में आएगी। तो आइये हम इन त्योहारों को आत्मीयता और प्यार मोहब्बत से मनाएं।