पूंजीपतियों के लिए आपदा में अवसर बनी कोरोना महामारी : ऑक्सफैम इंटरनेशनल की रिपोर्ट 

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आपदा में अवसर बनी कोरोना महामारी
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द न्यूज 15 

नई दिल्ली। विक्टोरिया मास्टर्सन ने वर्ल्ड एकोनोमिक फोरम की बेवसाइट पर 5 नवंबर 2021 को दुनिया के सामने मौजूद मुख्य चिंताओं पर एक सर्वे प्रकाशित किया था। इसे ‘दुनिया के सामने चिंता की बड़ी वजहें क्या हैं’?  (What Worries The World?) नाम दिया गया।  इसमें जो निष्कर्ष सामने आए थे उनमें बताया गया था कि गरीबी और सामाजिक असमानता सबसे बड़ी चिंता के तौर पर देखी जा रही है। दुनिया के 33 प्रतिशत लोगों ने यह माना था। इसके बाद बेरोजगारी को एक प्रमुख चिंता के तौर पर देखा गया, जिसे दुनिया के 30 प्रतिशत लोगों ने माना। कोरोना वायरस, आर्थिक-राजनैतिक भ्रष्टाचार और बढ़ती हिंसा व अपराधों को क्रमश: तीसरी, चौथी और पाँचवीं चिंता के तौर देखा गया जिसे क्रमश: 29, 28 और 27 प्रतिशत लोगों ने महसूस किया। इस सर्वे में शिक्षा, कर, मंहगाई, आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन आदि जैसी वैश्विक चिंताओं को भी शामिल किया गया लेकिन दुनिया के नागरिकों ने इन्हें पाँच प्रमुख चिंताओं में नहीं गिना। जलवायु परिवर्तन को दसवें क्रम पर रखा गया तो आतंकवाद और भी कम परेशानी या चिंता का सबब माना गया।
इस लेख में विक्टोरिया ने अलग-अलग देशों के नागरिकों की चिंताओं को शामिल किया। भारत की केवल 26 प्रतिशत आबादी ने यह माना कि गरीबी और असमानता उनकी सबसे बड़ी चिंता और चुनौती है। देश के मौजूदा हालात और हिन्दी मीडिया के मुताबिक अगर इस सर्वे में भारतीयों के सामने सबसे बड़ी चिंता के बारे में पूछा जाता तो शायद 80 प्रतिशत भारतीयों का जबाव यह होता कि उनके लिए अपना धर्म को लेकर सबसे बड़ी चिंता है। ये 80 प्रतिशत नागरिक वो होते जिनके समर्थन को लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आश्वस्त होते हुए 80-20 का समीकरण देते हैं। बहरहाल।
इस सर्वे को असमानता पर आयी ऑक्स्फ़ाम इन्टरनेशनल की रिपोर्ट ‘इनइक्वालिटी किल्स’ ने न केवल मुहर लगाई है बल्कि इसे कहीं ज़्यादा बड़ी चिंता के तौर पर दुनिया के सामने रखा है। 17 जनवरी 2022 को दावोस में हो रही विश्व आर्थिक मंच की सालाना बैठक में सार्वजनिक हुई इस रिपोर्ट के निष्कर्ष बेहद चिंताजनक हैं जो बताते हैं मानव सभ्यता अपने उन्नत दौर में किस कदर असमानता की तरफ जा रही है।
इस रिपोर्ट के निष्कर्षों पर पूरी दुनिया में चर्चा हो रही है। शायद कुछ दिन चर्चा की यह जुगाली जारी भी रहे और हर बार की तरह पूरी दुनिया इसे भुलाते हुए आगे असमानता की खाई को और चौड़ा करने में जुट जाए। फिर भी इस रिपोर्ट का महत्व इस लिहाज से पहले आयीं रिपोर्ट्स की तुलना में इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि कोरोना -काल में जब पूरी दुनिया की आर्थिक-व्यवस्था चरमरा गयी या चरमराते हुए दिखलाई गयी उससे इतर यह रिपोर्ट कोरोना काल को अमीरों के लिए ‘आपदा में पैदा हुए अवसर’ के तौर पर सामने रखती है।
बेचैनी पैदा करती यह रिपोर्ट न केवल गरीब देशों बल्कि पूरी दुनिया के शासक वर्ग (राजनैतिक-वर्ग) के कारनामों को भी उजागर करती है। यह रिपोर्ट काली स्याही में छपे शब्दों से एक अंधकार रचती है जिसमें मानवीय मूल्य मसलन बराबरी और गरिमा से जीवन जीने के तमाम अवसर कुछ पूँजीपतियों की तिजोरियों में बंद किए जा चुके हैं। जैसा कि ऑक्स्फ़ाम इन्टरनेशनल के कार्यकारी निदेशक गैब्रिला बूचर कहती हैं कि “कोरोना महामारी से निपटने के लिए दुनिया (तमाम देशों) ने जो भी कदम उठाए उससे हर तरह की असमानता को गहरा किया है। यह  असमानता से न केवल अस्वस्थ और नाखुश समाज का निर्माण करती है बल्कि यह हिंसक समाज का निर्माण करती है। असमानता मारती है”।
पूरी रिपोर्ट गैब्रिला बूचर की इस बात की ताकीद करती है और हर स्तर पर असमानता की चौड़ी होती खाई के बारे में बताती है। यह रिपोर्ट बताती है कि जब से कोरोना वायरस का प्रसार दुनिया में हुआ है यानी दिसंबर 2020 से, तब से दिसंबर 2021 तक यानी महज़ एक साल में दुनिया के दस सबसे अमीर व्यक्तियों की संपत्ति में दो गुने का इजाफा हुआ है । 2020 में इन दस व्यक्तियों की कुल संपत्ति 70,000 करोड़ डॉलर थी वो दिसंबर 2021 में एक लाख करोड़ डॉलर तक पहुँच गयी है। इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया के 99 प्रतिशत लोगों की आय में बेतहशा कमी आयी है। लगभग 16 हज़ार करोड़ लोगों को गंभीर गरीबी में पहुंचा दिया गया है। इन दस व्यक्तियों के पास पूरी दुनिया के 310 करोड़ डॉलर यानी पूरी दुनिया की लगभग आधी आबादी के बराबर संपत्ति है।
यह रिपोर्ट बहुत रोचक ढंग से आर्थिक असमानता पर बात करते हुए पूरी दुनिया में व्याप्त लैंगिक और नस्लीय भेदभाव को भी उजागर करती है। यह बताती है कि दुनिया के 252 पुरुषों के पास अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और कैरेबियन देशों की 300 करोड़ महिलाओं की कुल संपत्ति के बराबर है। एक दुखद बिडम्बना की तरह यह रिपोर्ट कहती है काश काले अमरीकियों की भी जीवन प्रत्याशा सफ़ेद अमरीकियों के जैसी होती तो अभी 3.4 मिलियन काले अमेरिकी आज ज़िंदा होते। यह इशारा है कि अमेरिका जैसे वियकसित देश में रंगभेद किस कदर गढ़ी जड़ें जमाए हुए हैं और जिसका सीधा प्रभाव उनकी अलग अलग आर्थिक स्थिति पर पड़ता है।
1995 से जब पूरी दुनिया में आर्थिक उदारीकरण, वैश्वीकरण, निजीकरण के नव-उदारवादी इंजन ने गति पकड़ी है दुनिया के 1 प्रतिशत लोगों ने दुनिया के सबसे गरीब 50 प्रतिशत लोगों की कुल संपत्ति का 20 गुना ज़्यादा हासिल कर लिया है। पर्यावरण को हुए नुकसान का आंकलन करते हुए यह रिपोर्ट एक रोचक लेकिन भयावह पक्ष सामने रखती है कि दुनिया के 20 खरबपति लोग हमारे वायुमंडल में 1 अरब लोगों के बराबर कार्बन का उत्सर्जन करते हैं।
भारत के बारे में यह रिपोर्ट मौजूदा सरकार की तथाकथित राष्ट्रवादी आर्थिक नीति यानी ‘क्रोनी कैपिटलिज़्म’ का रिपोर्ट कार्ड पेश करती है और भारत के मौजूदा शासन व्यवस्था के बारे में बताती है जो संपत्ति के केन्द्रीकरण को प्रोत्साहित करती है। भारत में जहां 2020 में अरबपतियों की संख्या महज़ 102 थी वहीं 2021 में अरबपतियों की संख्या 142 हो जाती है। यानी एक साल में महज़ 40 अरबपति इस देश में पैदा हो जाते हैं। और यह तब है जब निचले पायदान पर हाशिये पर पड़ी 50 प्रतिशत आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का महज़ 6 प्रतिशत हिस्सा है।
भारत के उच्च 10 प्रतिशत आबादी के पास सन 2020 में देश की कुल संपत्ति का कुल 45 प्रतिशत हिस्सा जमा हो गया है। देश में सबसे धनी मात्र 98 व्यक्तियों के पास कुल इतनी संपत्ति जा चुकी है जितना देश की लगभग बादी यानी 55.2 करोड़ लोगों के पास है। देश के सबसे अमीर मात्र 10 लोगों के पास कुल संपत्ति है जिससे पूरे देश की प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा का कुल खर्चा 25 वर्षों तक पूरा किया जा सकता है।
कोरोना काल में मौजूदा सरकार द्वारा खुलेआम अमीरों के हितों में काम करने का नतीजा भी इस रिपोर्ट में सामने आया है। इसमें बताया गया है कि मार्च 2020 से 30 नवंबर 2021 के दौरान के दौरान भारतीय अरबपतियों की संपत्ति 23.14 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 53.16 लाख करोड़ रुपये हो गई है। भारत में अब अमेरिका और चीन के बाद सबसे ज़्यादा अरबपति हैं।
हम दो हमारे दो के नाम से जानी जाने वाली आर्थिक नीति की बात करें तो इस सरकार के लिए परिणाम उत्साहजनक रहे हैं। महज़ एक साल में इस सरकार के सबसे प्रिय गौतम अडानी की संपत्ति में 8 गुना बढ़ोत्तरी हुई है। 2020 में जहां उनके पास 8.9 अरब डॉलर की संपत्ति थी वो 2021 में 50.5 अरब डॉलर की हो गयी है। गौतम अडानी आज दुनिया में अमीरों की सूची में 24वें स्थान पर विराजमान हो चुके हैं। वहीं अगर मुकेश अंबानी की संपत्ति की बात करें तो इसमें भी दोगुनी से ज़्यादा बढ़ोत्तरी दर्ज़ हुई है। 2020 में जहां उनके पास कुल संपत्ति 36.8 अरब डॉलर थी वह 2021 में 85.5 अरब डॉलर पहुँच गयी है।
भयावह आंकड़े भारत के बजट की प्राथमिकताओं के हैं। जब देश में कोरोना महामारी का प्रकोप बढ़ रहा था देश की पहले से ही जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था दम तोड़ रही थी तब स्वास्थ्य बजट में बढ़ोत्तरी करने के वजाय उसे  2020-21 में 10 फीसदी तक घटा दिया गया। इसके अलावा शिक्षा के बजट में भी 6 फीसदी की गिरावट दर्ज़ हुई तो सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी योजनाओं में 1.5 प्रतिशत से 0.6 फीसदी किया गया। यहाँ भी 0.9 प्रतिशत की कटौती देखने को मिली। यानी ऐसे समय में देश की आवाम को सरकार से मदद की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी सारी कटौतियाँ तभी की गईं। इससे न केवल असमानता की खाई और चौड़ी हुई बल्कि ऐसा लगता है जैसे सुनियोजित ढंग से लोगों को सरकार-विहीन कर दिया गया।
इस रिपोर्ट में दुनिया के तमाम देशों की सरकारों से समाधान की दिशा में कुछ ठोस कदम उठाए जाने की सिफ़ारिशें भी गईं हैं। जिनमें पहली और सबसे प्रमुख सिफ़ारिश यह की गयी अरबपतियों की संपत्ति के पुनर्वितरण के बारे में सोचा जाये और उनसे प्राप्त राजस्व का इस्तेमाल बहुसंख्यक गरीब आबादी को बेहतर सुविधाएं व रोजगार के अवसर सृजित करने की दिशा में किया जाए।
अमीरों पर नए कर लगाने की मांग नयी नहीं है। अमेरिका के बर्नी सेंडर्स ने इस रिपोर्ट के प्रकाश में आने के साथ ही अपनी पुरानी मांग को फिर दोहराया है कि अमीरों पर ज़्यादा से ज़्यादा कर लागए जाएँ ताकि इस विषमता को न केवल और गहरा होने से रोका जा सके बल्कि इस अर्जित अतिरिक्त राजस्व से बहुसंख्यक गरीब लोगों के लिए आजीविका की नियमित व्यवस्था भी की जा सके।
भारत में भी प्रो. प्रभात पटनायक जैसे अर्थशास्त्री लंबे समय से यह कहते आ रहे हैं कि अपने नागरिकों को आर्थिक अधिकारों से सम्पन्न बनाते हुए एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए और देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य व शिक्षा और रोजगार जैसे बुनियादी मुद्दों को सुलझाने के लिए 15 लाख करोड़ के राजस्व की ज़रूरत है। यह कहां से आएगा इसके बारे में वे भी ठीक यही बात कहते हैं कि– “देश को एक नयी ‘कर व्यवस्था’ की ज़रूरत है जहां देश के इन अरबपतियों से 1 प्रतिशत अतिरिक्त कर लेने और एकमुश्त 33 प्रतिशत उत्तराधिकार कर, संपत्ति हस्तांतरण की स्थिति में लेने की ज़रूरत है। मात्र इतने से ही यह संभव हो सकता है”।
हालांकि यह सोचना भी ऐसे समय में एक बड़ा दुस्साहस करने जैसा है कि भारत सरकार या दुनिया के तमाम देशों की सरकारें इस दिशा में कुछ सोचेंगीं भी। विश्व आर्थिक मंच के दावोस एजेंडा को संबोधित करते हुए देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पीठ केवल इस बात पर ही ठोकी है कि “जब से उन्होंने देश का राज-काज सँभाला है तब से कॉर्पोरेट्स करों (टैक्सेस) में न केवल कटौती की है बल्कि 25000 वैधानिक प्रक्रियाओं से मुक्त भी किया है”।
हिंदुस्तान में अभी भी कॉर्पोरेट्स के हितों को अनदेखा करना तमाम सरकारों के लिए सबसे मुश्किल काम है। फिर इनके खिलाफ अतिरिक्त कर लगाने की दिशा में सोचना आज की राजनीति के लिए किसी दुस्साहस से कम नहीं है। इसकी एक बानगी 25 अप्रैल 2020 को आइआरएस (इंडियन रेवेन्यू सर्विस) असोसिएशन के आधिकारिक  ट्विटर हैंडल से जारी हुई 44 पेज की एक रिपोर्ट और उसके बाद हुए घटनाक्रम के रूप में  देखी जा सकती है। इस रिपोर्ट का शीर्षक था – फ़िस्कल ऑप्शंस एंड रेस्पोंस टु कोविड-19 एपिडेमिक (Fiscal Options and response to Covid-19 Epidemic – FORCE)।
इस दस्तावेज़ में कोविड-19 की वजह से भारत की अर्थव्यवस्था में राजस्व संग्रहण को जो भारी नुकसान पहुंचा है उसकी भरपाई के लिए कुछ प्रस्ताव दिये गये। इन प्रस्तावों में दो महत्वपूर्ण प्रस्ताव इसके जारी होते ही चर्चा में आ गये। पहला, जिनकी आमदनी 1 करोड़ से ज्यादा है उनसे 40 फीसद की दर से आयकर लिया जाय या फिर 5 करोड़ से अधिक सम्पत्ति रखने वालों पर सम्पत्ति कर को पुन: लागू किया जाए। दूसरा, 10 लाख से अधिक आमदनी वाले करदाताओं से 4 फीसद की दर से महामारी उपकर (CESS) वसूला जाय।
इस रिपोर्ट के आते ही वित्त मंत्रालय, सेंट्रल बोर्ड ऑफ़ डायरेक्ट टैक्सेज़ (CBDT) सकते में आ गये और आनन–फानन में इस रिपोर्ट से पल्ला झाड़ने लगे। मात्र चौबीस घंटे के अंदर रिपोर्ट जारी करने वालों पर अनुशासनात्मक कार्यवाही की दिशा में ठोस कदम उठा लिए गये। बहरहाल, यह ऑक्स्फ़ाम इन्टरनेशनल की यह रिपोर्ट एक गंभीर चेतावनी तो हमें देती है कि आर्थिक असमानता केवल अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ती खाई तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि यह एक हिंसक समाज के रूप में अपने दीर्घकालीन असर पैदा करती है। (न्यूज क्लिक से आभार)

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