यकीन नहीं हो रहा है…

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राजकुमार जैन 

यकीन नहीं हो रहा पर सच है! आईटीएम यूनिवर्सिटी के उस्ताद अलाउद्दीन खान सभागार में दाखिल होने से पहले दरवाजे पर ही स्टील की प्लेट पर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के गुरु जिनके नाम पर इस सभागार का नामकरण हुआ है, जिन्होंने मध्य प्रदेश के एक छोटे से कस्बे मैहर के पुराने मामूली मकान मे शास्त्रीय संगीत की गुरु शिष्य परंपरा में तालीम देते हुए मंजाई -धुलाई करने के बाद शागिर्दो की जो जमात तैयार की जिसमें अधिकतर ना केवल हिंदुस्तान में पूरी दुनिया में जिनके फन का डंका बजा, स्टील की प्लेट पर उनके नामों जैसे अली अकबर खान, पंडित रविशंकर, अन्नपूर्णा देवी, निखिल बनर्जी,हरिप्रसाद चौरसिया जैसे कलाकारों की पूरी फैहरिस्त के नामों का अंकन गुरु के चित्र के नीचे गोदा गया है, उसको पढ़कर विश्वविद्यालय के संस्थापक रमाशंकर सिंह के तालिमी विस्तृत वितान की रचना से भी साक्षात्कार हो जाता है।
आज इसी सभागार में यूनिवर्सिटी की ओर से आयोजित ‘कलाओं में अंतर संबंध, विद्वत संवाद’में दर्शक की हैसियत से शिरकत करने का मौका मिला। मंच पर मुल्क के पैमाने पर अपने -अपने फन के लिए नामवर शख्सियत जैसे पद्मभूषण गुलाम मोहम्मद शेख, रेत समाधि की लेखिका गीतांजलि श्री, ओमकारा फिल्म के निर्माता विशाल भारद्वाज,चित्रकार मनीष पुष्कले, इतिहासकार डॉ सुधीर चंद्रा, कवि पवन करण विराजमान थे।
मैंने अपनी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा दिल्ली के शहरी तथा दिल्ली यूनिवर्सिटी के अंदर खास तौर पर मेन कैंपस में गुजारा है। सैकड़ों सेमिनारो, गोष्ठियों, वार्तालापो, व्याख्यानो को देखा -सुना है।पर आज के इस कार्यक्रम को देखकर मैं हैरान था। सभागार में दर्शकों मे शहर के आलिम- फाजिल, कलाओं में रुचि रखने वालों के साथ- साथ सैकड़ों की तादात में मैनेजमेंट, इंजीनियरिंग, साइंस, फिजिकल एवं एग्रीकल्चर साइंस चिकित्सा विज्ञान के छात्र बैठे थे।
लड़कपन मे सोशलिस्ट तहरीक से अपनी तालीम शुरू करने वाले तथा आज के प्रोग्राम के असली रूहेरवां रमाशंकर सिंह ने जब कलाओं के आपसी संबंधों की ऋषि मार्कंडेय के नाट्यशास्त्र के एक अंग की छटाओ का सहारा लेकर उसके मुख्तलिफ रंगों से खेलना शुरू किया तो सभागार मैं बैठा श्रोता स्तब्ध होकर सुन रहा था, इसी बीच मंच पर रखे उनके टेलीफोन की घंटी की गड़गड़ाहट ने व्यवधान डाला तो रमाशंकर ने मुस्कुराते हुए कहा माफ करना मेरा समय समाप्त हो गया है, तो श्रोता उस घंटी को अपना वैरी मानने लगे, क्यों यह हमारी रस में खलल डाल रही है।
मंच पर आसीन विद्वानों ने समय की पाबंदी के बावजूद मुख्तसर अंदाज़ में आपसी बातचीत का सिरा पकड़कर जब इतिहास से शुरू हुई गुफ्तगू संगीत, कला, चित्रकला, कविता, शेक्सपियर की रचनाओं से गोता लगाते हुए रेत समाधि की रचना प्रक्रिया के आंतरिक और बाहरी, आनंद और तनाव, रंगो और वेदनाओं की पगडंडी से शुरू हुई यात्रा अंत में कैसा रूप लेती है इसके विभिन्न छटाओ से कलाकारों ने रूबरू करा दिया तो सभागार में तालियों की गड़गड़ाहट का निरंतर बजना कैसे रुकता? कलाकार, विद्वानों के लिए ऐसा दृश्य पेश करना उनकी रोजमर्रा की पेेशकारी है,कोई नई बात नहीं परंतु आज तकनीकी और साइंस के छात्रों ने उक्ताहट या सिटी बजाकर नहीं पूरी शिद्दत से अपने कोर्स के सिलेबस से ज्यादा गौर देकर ध्यान देकर सुना। 50 से अधिक छात्रों ने लिखित में सारगर्भित सवालों की छड़ी लगा दी तो लगा कि आज मैं केवल क्रिकेट, फिल्म, फैशन तक महदूद रहने वाली नस्ल के बीच नहीं गंभीर वैचारिक मंथन में रुचि लेने वाली पीढ़ी के बीच बैठा सुन रहा हूं

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