पिछले काफी दिन से जो बाते चल रही थी उन सभी बातों पर अब पूरी तरह से विराम लग गया है। कमलनाथ काफी दिनों से अपने सभी कार्येकर्ता के साथ दिल्ली में डेरा डाले बैठे रहे लेकिन न तो अमित शाह ने घास डाली और न नड्डा ने बुलाया… बिचौलिए बात चला रहे थे, लेकिन गोटियां नहीं बिठा पा रहे थे। इन दिनों कमलनाथ मानों अनाथ-से नजर आ रहे हैं…न इनकार कर पा रहे थे और न ऐलान कर पा रहे थे…कांग्रेस से निकल कर ऐसा सन्देश देना चा रहे थे जैसे मानों कुछ बड़ा करने जा रहे हो पर पासा तब बदल गया जब बीजेपी वालो ने न तो संपर्क किया और न ही कोई बात बनी। उधर बंद कमरों में शाह-नड्डा गणित लगा रहे थे…कि अगर एक जन को बुलाएँगे तो भीड़ लग जाएगी और पार्टी में पहले के संभल नहीं पा रहे हैं…नयों के लिए कहां से थालियां लाएंगे…कमलनाथ आएंगे तो सौ-पचास लादकर लाएंंगे… सिंधिया आए थे तो सरकार गिराने की मजबूरी थी, लेकिन फिलहाल न कमलनाथ की जरूरत है, न ही उनसे कोई मोहब्बत है…केवल छिंदवाड़ा की एक लोकसभा सीट को पुख्ता करने के लिए कमलनाथ की जोखिम उठाना और उनसे जुड़ी कांग्रेस की पाप की गठरी को कंधे पर लादना न भाजपा के चाणक्य शाह को सुहाया और न नड्डा के गले उतर पाया…और फिर देश के दद्दू नरेंद्र मोदी ने भी टरकाया…इधर प्रदेश में भी हलचल मची…संदेश भिजवाया…कमलनाथ आना भी चाहेंगे तो भाजपाई उन्हें अपना नहीं पाएंगे और उन्हें अपना भी लेंगे तो उनसे लिपटे कांग्रेसियों के बोझ को अपनी गाड़ी में कैसे चढ़ाएंगे…प्रदेश के नेताओं ने समझाया…भाजपा यदि जोखिम पर दांव भी लगाएगी तो क्या हासिल कर पाएगी…मध्यप्रदेश में अगले पांच साल तक तो कांग्रेस नाम की जोखिम कोने में सिमटी पड़ी है… इस जोड़-तोड़ से यदि भाजपा एक राज्यसभा सीट और हासिल करने का गणित भी लगाए और यह विचार दिमाग मेें भी लाए कि कमलनाथ के आने से कई विधायक टूट जाएंगे और कांग्रेस की इकलौती राज्यसभा सीट भी हड़प जाएंगे तो यह सौदा भी महंगा पड़ेगा…क्योंकि जो विधायक आज दल बदलकर भाजपा में आएंगे, वे या तो अयोग्य होकर दोबारा चुनाव लडऩे के लिए भाजपा से टिकट की उम्मीद लगाएंगे और ऐसे में जिस तरह सिंधिया समर्थकों ने भाजपाइयों का हक छीना, उसी तरह नाथ समर्थक भी बरसों की भाजपा की निष्ठा से जुड़े कार्यकर्ताओं के हकों पर डाका डालेंगे…भाजपा के नेतृत्व में इतनी तो बुद्धि है ही कि वो एक कमलनाथ का साथ जुटाने के लिए अपने कार्यकर्ताओं को अनाथ नहीं करेगी… …हालांकि राजनीति विचित्र होती है…यहां निष्ठा नहीं सौदे होते हैं…यहां सिद्धांत नहीं सफाए होते हैं… यहां मैत्री नहीं युक्ति होती है…यहां समूह का नहीं स्वयं का फायदा देखा जाता है…यहां अपने लिए दूसरों का गला काटा जाता है…सच तो यह है कि देश में राजनीति अब जुनून बन चुकी है…उसूलों के खून से रंग चुकी है…जो सर झुकाए उसे गुलाम बनाओ…जो अकड़े उसकी गर्दन काटकर लाओ…विपक्ष को पक्ष में लाओ…न बना तो देश को विपक्षविहीन बनाओ…यहां सत्ता के चटोरे नीतीश मौका ताड़ते हैं… अजीत पवार अपने चाचा को मिटाकर आगे बढ़ जाते हैं…अकड़ दिखाने वाले उद्धव दर-दर की ठोकरें खाते हैं…सारे के सारे मोदी की माला जपते नजर आते हैं… केजरीवाल जैसे नेता उलटा सातिया बनाते हैं तो उनके सपने में भी जेल की सींखचे नजर आती हैं… अब ऐसे में कमलनाथ यदि भाजपा की शरण में आने की जुगत भिड़ाएं तो इसे समय की समझदारी और वक्त की वफादारी ही कहा जाएगा… लेकिन गले लगाने वाला भी तो दिमाग लगाएगा…बिना शकर की खीर कौन खाएगा…