बड़े बने ये साहित्यकार

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बंटते बंदर बांट पुरस्कार ।
दौड़ रहे है पीछे-पीछे,
बड़े बने ये साहित्यकार ।।

पुरस्कारों की दौड़ में खोकर,
भूल बैठे हैं सच्चा सृजन ।
लिख के वरिष्ठ रचनाकार,
करते है वो झूठा अर्जन ।।
मस्तक तिलक लग जाए,
और चाहे गले मे हार ।
बड़े बने ये साहित्यकार।।

अब चला हाशिये पे गया,
सच्चा कर्मठ रचनाकार ।
राजनीति के रंग जमाते,
साहित्य के ये ठेकेदार ।।
बेचे कौड़ी में कलम,
हो कैसे साहित्यिक उद्धार ।
बड़े बने ये साहित्यकार।।

देव-पूजन के संग जरूरी,
मन की निश्छल आराधना ।।
बिन दर्द का स्वाद चखे,
न होती पल्लवित साधना ।।
बिना साधना नहीं साहित्य,
झूठा है वो रचनाकार ।
बड़े बने ये साहित्यकार।।

 

(प्रियंका सौरभ के काव्य संग्रह ‘दीमक लगे गुलाब’ से।

 

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