यूँ ही बनते है कहाँ, कवि सवेंदनशील ।
पीने पड़ते है उन्हें, आँसू समकालीन ।।
जगा न पाए लेखनी, जिनकी सुप्त समाज।
बोलो कैसे मान ले, उनको हम कविराज।।
होते प्रहरी सजग कवि, देते युग को मोड़ ।
करे प्रतिकूल समय से, सौरभ खुलकर होड़।।
बोल मंच के और है, कवि होना कुछ और।
होते सच्चे कवि वही, करे समाज की गौर।।
समसामयिक विवाद पर, अगर रहे कवि मौन।
युग बोध धर्म की पालना, यहाँ करेगा कौन।।
कविवर परहित सर्वहित, रचते छन्द अपार।
जाग्रत कवि की कल्पना, रखती नवल विचार।।
जनहितकारी भाव से, करते युग उत्कर्ष।
कवि करता कवि कर्म से, जीवन भर संघर्ष।।
सही समय पर बात का, करते कवि उल्लेख।
दूरदृष्टि कवि कल्पना, सब कुछ लेती देख।।
होती कवि की लेखनी, ब्रह्म रूप साक्षात।
गीत सृजन का ये लिखे, यही प्रलय की बात।।
डॉ० सत्यवान सौरभ