द न्यूज 15
तिरुपुर। तमिलनाडु का तिरुपुर शहर कपड़ा उत्पादन के लिए विश्व प्रसिद्ध है। यह शहर वॉलमार्ट, सी एंड ए, डीज़ल, फिला रीबॉक अदि जैसे बड़े अंतरारष्ट्रीय ब्रांडों के लिए कपड़ों की आपूर्ति करता है।
लेकिन दूसरी ओर इसी शहर में पिछले दो सालों में 800 से अधिक मजदूरों ने आत्महत्या की है ओर हर रोज आत्महत्या की 20 कोशिशें दर्ज होती हैं।
लेकिन दूसरी ओर इसी शहर में पिछले दो सालों में 800 से अधिक मजदूरों ने आत्महत्या की है ओर हर रोज आत्महत्या की 20 कोशिशें दर्ज होती हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, इसके लिए उत्पीड़न की वह परिस्थियाँ जिम्मेदार हैं जो अत्यधिक मुनाफा कमाने के लिए वहां के कारखाना मालिकों ने बना दी हैं। तिरुपुर के कारखाना मालिकों ने उत्पीड़न के नए नए प्रयोग किये हैं। इसमें से एक है सुमंगली योजना। यह योजना विवाह योग्य लड़कियों के लिए है। कारखानों में नवयुवतियों को बतौर मजदूर तीन साल के लिए ठेके पर काम दिया जाता है।
ठेका अवधि की समाप्ति पर 30000 से 60000 के बीच एक मुश्त रकम दहेज़ के लिए इन नवयुवतियों को थमा दी जाती है। यदि इस अवधि में इन में से कोई बीमारी या किन्ही कारणवश काम में उपस्थित नहीं हो पता तो मालिक रकम देने से इनकार कर सकता है।
ठेके की अवधि के दौरान लड़कियां हॉस्टल में रहती हैं और अपने निकट के परिचितों (जिनका नाम और फोटो उनके रजिस्टर में दर्ज होता है) के आलावा किसी से नहीं मिल सकतीं। उनके बहार जाने में पाबन्दी होती है। हॉस्टल में घटिया किस्म का खाना दिया जाता है जो लगातार इनके स्वस्थ पर बुरा असर डालता है। सुमंगली के रूप में काम करने वाली लड़कियों को ‘प्रशिक्षार्थी’ या ‘प्रशिक्षु’ में वर्गीकृत किया जाता है और इस तरह वे नियमित मजदूरी दरों की हकदार नहीं होती।
एक अन्य ‘कैम्प कूली’ व्यवस्था के तहत श्रम ठेकेदार बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा तथा राजस्थान से सस्ते मजदूर लाते हैं। ठेकेदार इन मजदूरों पर नज़र रखते हैं तथा प्रबंधन ठेकेदारों के माध्यम से मजदूरों के साथ सम्बन्ध रखते हैं। यह मजदूर फैक्टरी मालिक द्वारा उपलब्ध हॉस्टल में रखे जाते हैं।
ये मजदूर यूनियन से नहीं जुड़ सकते। इस तरह तिरुपुर के करीब 4 लाख मजदूरों में से केवल 10 प्रतिशत ही यूनियन के सदस्य है। यहाँ के मजदूरों को सप्ताह में करीब 1710 रु की मजदूरी मिलती है और ये अन्य किसी प्रकार की सुविधा के हकदार नहीं है।
यहाँ के मजदूर अलगाव का जीवन जीने को मजबूर हैं। ये अपने परिवार के साथ नहीं रह सकते सप्ताह में 6 दिन12 से 18 घंटे के बीच काम करना पड़ता है।
रिपोर्ट के अनुसार, ‘तिरुपुर की कामयाबी मजदूरों की लूटखसोट पर आधारित है। तिरुपुर के कपड़ा उद्योग के मजदूरों के रहने-सहने वा काम करने की परिस्थितियाँ उनके जीवन को भारी नुक्सान पहुचती है। मजदूरों को न केवल उद्योग से सम्बंधित पेशागत जोखिम उठाना पड़ता है बल्कि उनसे जो अत्यधिक काम किया जाता है उसके चलते कम उम्र में ही उनके काम करने की क्षमता का ह्रास हो जाता है।’ बिहार में कहावत है कि ‘नरेगा जो करेगा वो मरेगा’ इसका मतलब है कि नरेगा योजना के अंतर्गत काम करने वालों को 2वर्षों तक भुगतान नहीं किया जाता और जब भुगतान होता है तो आमदनी का 30 प्रतिशत सरकारी अधिकारी ले लेते है। (साभार वर्कर्स यूनिटी)
ठेका अवधि की समाप्ति पर 30000 से 60000 के बीच एक मुश्त रकम दहेज़ के लिए इन नवयुवतियों को थमा दी जाती है। यदि इस अवधि में इन में से कोई बीमारी या किन्ही कारणवश काम में उपस्थित नहीं हो पता तो मालिक रकम देने से इनकार कर सकता है।
ठेके की अवधि के दौरान लड़कियां हॉस्टल में रहती हैं और अपने निकट के परिचितों (जिनका नाम और फोटो उनके रजिस्टर में दर्ज होता है) के आलावा किसी से नहीं मिल सकतीं। उनके बहार जाने में पाबन्दी होती है। हॉस्टल में घटिया किस्म का खाना दिया जाता है जो लगातार इनके स्वस्थ पर बुरा असर डालता है। सुमंगली के रूप में काम करने वाली लड़कियों को ‘प्रशिक्षार्थी’ या ‘प्रशिक्षु’ में वर्गीकृत किया जाता है और इस तरह वे नियमित मजदूरी दरों की हकदार नहीं होती।
एक अन्य ‘कैम्प कूली’ व्यवस्था के तहत श्रम ठेकेदार बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा तथा राजस्थान से सस्ते मजदूर लाते हैं। ठेकेदार इन मजदूरों पर नज़र रखते हैं तथा प्रबंधन ठेकेदारों के माध्यम से मजदूरों के साथ सम्बन्ध रखते हैं। यह मजदूर फैक्टरी मालिक द्वारा उपलब्ध हॉस्टल में रखे जाते हैं।
ये मजदूर यूनियन से नहीं जुड़ सकते। इस तरह तिरुपुर के करीब 4 लाख मजदूरों में से केवल 10 प्रतिशत ही यूनियन के सदस्य है। यहाँ के मजदूरों को सप्ताह में करीब 1710 रु की मजदूरी मिलती है और ये अन्य किसी प्रकार की सुविधा के हकदार नहीं है।
यहाँ के मजदूर अलगाव का जीवन जीने को मजबूर हैं। ये अपने परिवार के साथ नहीं रह सकते सप्ताह में 6 दिन12 से 18 घंटे के बीच काम करना पड़ता है।
रिपोर्ट के अनुसार, ‘तिरुपुर की कामयाबी मजदूरों की लूटखसोट पर आधारित है। तिरुपुर के कपड़ा उद्योग के मजदूरों के रहने-सहने वा काम करने की परिस्थितियाँ उनके जीवन को भारी नुक्सान पहुचती है। मजदूरों को न केवल उद्योग से सम्बंधित पेशागत जोखिम उठाना पड़ता है बल्कि उनसे जो अत्यधिक काम किया जाता है उसके चलते कम उम्र में ही उनके काम करने की क्षमता का ह्रास हो जाता है।’ बिहार में कहावत है कि ‘नरेगा जो करेगा वो मरेगा’ इसका मतलब है कि नरेगा योजना के अंतर्गत काम करने वालों को 2वर्षों तक भुगतान नहीं किया जाता और जब भुगतान होता है तो आमदनी का 30 प्रतिशत सरकारी अधिकारी ले लेते है। (साभार वर्कर्स यूनिटी)