मिथिला की पहचान मिटाने में लगे हैं खुद मिथिला के बौद्धिक!

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अशोक कुमार झा 

मिथिला के बौद्धिक खुद अपने लिए बुद्धि-विलास में लिप्त रहते हैं और जब समाज को नष्ट करना होता है तो अपने-अपने स्तर से अपने योग्यतानुसार इसमें आहुति देने से नहीं चूकते। हर तरह की बरबादी में इनके कदमों के निशान देखे जा सकते हैं। दो दिन पहले के अपने इस पोस्ट में मैंने लिखा था कि मिथिला विश्वविद्यालय और कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय के परिसर में स्थित सेंट्रल लाइब्रेरी किस तरह अपनी क़िस्मतों को रो रहा है।

जानकारी मिली है कि इसका लगाम जिन लोगों के पास है वे काफ़ी Connected हैं। मसलन किसी के पिता प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं तो किसी के पिता/श्वसुर/चाचा/मामा आदि विश्वविद्यालय में admin में बड़े पद पर रह चुके हैं या हैं। मधुबनी-दरभंगा में आपको ऐसे बहुत लोग मिल जाएंगे जिन्होंने विश्वविद्यालय में अपने पद और पहुँच का प्रयोग अपने बच्चों को बिना कभी विश्वविद्यालय गए पीएचडी की उपाधि तक दिलाने में सफल रहे हैं। और फिर जब इतना कुछ सफलता से कर सकते हैं तो प्रोफ़ेसरी दिलाना कौन सा मुश्किल है। तो ऐसे लोग मिथिला विश्वविद्यालय में बहुतायत में मिल जाएंगे। एक सज्जन को मैं जानता हूँ जो मिथिला विश्वविद्यालय से मैथिली में पीएचडी कर चुके हैं और अब लोगों से 20 से 40 हज़ार लेकर उनके लिए पीएचडी का थीसिस लिख रहे हैं। यह उनकी आजीविका का प्रमुख स्रोत है। उनके पास नक़ली पीएचडीधारी और अपने बाप-माय के रसूख़ के कारण नौकरी पानेवाले कथित प्राध्यापकों की कहानी की भरमार है। और यह भी कि ऐसा कहनेवाले वे अकेले नहीं हैं।

पुत्र के कारनामों के लिए मैं पिता को दोष नहीं दे सकता। पर हम मैथिलों में संस्कार का बहुत ही महत्व है और बच्चों में थोड़े से संस्कार-विचलन के लिए भी उसके मां-बाप और पूरे ख़ानदान को ज़िम्मेदार बता दिया जाता है। कई लोग तो किसी एक व्यक्ति के कारण उसके पूरे गाँव को ही लुच्चा-लफ़ंगों और अनपढ़ों का गाँव बता देते हैं। पर मेरा इसमें विश्वास नहीं है और मैं उस व्यक्ति को ही उसके कुकर्मों कि लिए ज़िम्मेदार मानता हूँ। अगर आप किसी लाइब्रेरी के कर्ता-धर्ता हैं तो उसे अपंग बनाने के एक से अधिक रास्ते आपको उपलब्ध होते हैं और बड़ी बात यह कि आप ऐसा करते हुए इच्छानुसार अपनी जेबें भी भर सकते हैं। मसलन, आप किसी लाइब्रेरी के मुखिया हैं तो आपको प्रकाशकों से पुस्तकालय के लिए मुफ़्त की पुस्तकें मिलती हैं।

कुछ लेखक जो आपसे अच्छा संबंध बनाए रखना चाहते हैं, वे भी आपको अपनी पुस्तकें मुफ़्त में भेजकर आपको उपकृत करते हैं। आपको कुछ नहीं करना है, इन सभी पुस्तकों का वाउचर बनाइए और यह बता दीजिए कि इन्हें लाइब्रेरी के लिए ख़रीदा गया है। मुफ़्त में मिली पुस्तकों को monetise करने यह आसान तरीक़ा है। इस तरह के पुस्तकों को उस लाइब्रेरी में रखने के बजाय आप अपने घर में रखते हैं। वैसे अगर सभ्य समाज में इन बातों की तहक़ीक़ात हो तो इसमें ऐसी चोरी के पकड़े जाने की संभावना 100 फ़ीसदी होती है। पर शर्त है कि उस सभ्य समाज में इस तरह का कोई ऑडिट हो!
मैथिलों की दुनिया बहुत छोटी है और मिथिला में ‘मैथिलों की लत्ती’ बहुत ही प्रसिद्ध है। (यहाँ पर आप मैथिलों का मतलब मैथिल बाभन ही समझिए क्योंकि मिथिला को नष्ट करने में किसी और जाति की कोई भूमिका इन अहमकों ने नहीं रहने दी है।) कई बार आपको पता चलता है कि मिथिला को नष्ट करने में इतने मनोयोग से लगे लोगों का यह समूह आपके ही गाँव का या पड़ोस के किसी गाँव का है या फिर किसी निकट संबंधी/दोस्त (फ़ेसबुकिया दोस्त को भी शामिल कर लीजिए) को जाननेवाले लोग हैं। ऐसे में मैथिलों की नीति गांधी के तीन बंदरों जैसी हो जाती है – मैं कुछ देख नहीं रहा हूँ, कुछ सुन नहीं रहा हूँ और कुछ बोलना तो दूर की बात!

यह लेख अशोक कुमार झा के फेसबुक पेज से लिया गया है। 

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