हम हिन्दू नहीं हैं ?

0
182
Spread the love

सुमेघ जग्रवाल

वर्तमान में जिन लोगों को अनुसूचित जाति, जनजाति पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक के रूप में जाना जाता है, वे सभी लोग 74000 वर्ष से भारत में निवास करने वाले प्रथम मूल निवासी हैं। जिनकी सभ्यता सिंधु घाटी की सभ्यता के रूप में जानी जाती थी, जो 4500-5000 ईसा पूर्व से स्थापित थी? अफ्रीका से अन्य दीपों की तरफ विचरण करते हुए आए, सभी भारतीय लोग एक मां-बाप की संतान हैं, जो डीएनए जांच से भी प्रमाणित हो चुका है। मतलब विज्ञान के आधार पर प्रमाणित हो गया है। भारतीय मूल निवासियों की संस्कृति बहुत ही उत्तम किस्म की थी। उनकी संस्कृति में किसी भी प्रकार की कोई भी त्रुटि नहीं थी। ना ही कोई ऊंच-नीच और ना ही कोई छुआछूत थी।

कोई भी जाति बंधन नहीं था। आज से 4000 वर्ष पूर्व घुमक्कड़ओं के रूप में कुछ कबीले मध्य एशिया से भारत की सरहद में आए और उन्होंने भारत में आकर सिंधु घाटी की सभ्यता को नष्ट करके यहां के लोगों को गुलाम बनाकर, उनको हजारों जातियों में विभाजित कर दिया। हर भारतीय को उनके धंधे के अनुसार सेवा के कार्य बांट दिए गए और स्वयं उनकी मेहनत पर गुलछर्रे उड़ाने लगे। भारतीय मूल निवासियों को अपमानित करने के लिए उन्होंने शूद्र और अति अतिशूद्र का नाम दिया गया और उनको शारीरिक गुलामी के साथ-साथ मानसिक गुलामी में भी जकड़ दिया गया । इस प्रकार भारतीय मूलनिवासी, कभी भी आर्य संस्कृति के अंग नहीं रहे हैं ।

वेदों में आर्य और अनार्य के परस्पर युद्धों से प्रमाणित है कि अनार्य लोग हिंदू नहीं है। ब्राह्मणों, राजपूतों और वैश्यों के डीएनए का नमूना लेकर, सारी दुनिया के मनुष्यों के डीएनए के साथ परीक्षण किया गया। यूरेशिया प्रांत में मोरुवा समूह है जो कि रूस के पास काला सागर नामक क्षेत्र के पास है और  जिसकी मोरू नाम की जाति के लोगों का डीएनए ,भारत में रहने वाले ब्राह्मणों, राजपूतों और वैश्यों के डीएनए से मिला। यह शोध से यह प्रमाणित हो गया कि ब्राह्मण राजपूत और वैश्य भारत के मूलनिवासी नहीं है। महिलाओं में पाए जाने वाले डीएनए (जो हजारों सालों में सिर्फ महिलाओं से महिलाओं में ट्रांसफर होता है) पर यह परीक्षण के आधार पर यह भी साबित हुआ कि भारतीय महिलाओं का डीएनए किसी भी विदेशी महिलाओं की जाति से मेल नहीं खाता है।

भारत की एससी, एसटी ओबीसी, ब्राह्मण, राजपूत और वैश्य की औरतों का डीएनए एक ही है और 100% आपस में मिलता है। वैदिक धर्म शास्त्रों में भी कहा गया है कि औरतों की कोई जाति या धर्म नहीं होती है यह बात भी इस शोध से प्रमाणित हो गई कि जब सभी महिलाओं का डीएनए एक है, तो इसी आधार पर यह बात वैदिक धर्म शास्त्रों में कही गई होगी। अब इस शोध के द्वारा इस बात का वैज्ञानिक प्रमाण भी मिल गया है।
ऋग्वेद में इंद्र के संदर्भ में 250 श्लोक आते है। इंद्र पर लिखे सभी श्लोकों में यह बार बार आता है कि हे इन्द्र! उन असुरों के दुर्ग को गिराओ, उन असुरों (बहुजनों) की सभ्यता को नष्ट करो।
(प्रमाण संदर्भ-ऋग्वेद खंड10 अध्याय80 श्लोक14)

इस संदर्भ से स्पष्ट है कि आर्य लोग भारतीय लोगों से द्वेष भावना रखते थे और उनको हमेशा नष्ट करने की कामना अपने देवता से करते थे। आर्य लोगों को भारतीय लोग फूटी आंख नहीं सुहाते थे। इस प्रकार आर्य लोग भारतीय लोगों के शुभचिंतक कभी भी न तो थे और न है और न ही हो सकते है। बटें हुए भारतीय समाज को यथावत रखने के लिए उनके द्वारा विधान बनाए गए। विधानों में एसे कानूनों की रचना की गई, जिनमें सभी प्रकार के लाभ विदेशी आर्य लोगों को ही मिलें। ईश्वरीय सत्ता की रचना की गई। ईश्वरीय सत्ता की रचना से उत्पन्न पूजा-पाठ और अनुष्ठानों का सौ फीसदी धार्मिक आरक्षण विदेशी आर्य लोगों ने अपने स्वाम् के लिए आराक्षित कर लिया। इसके बाद भारतीए मूलनिवासी समाज को शिक्षा से वंचित रखने के लिए कानूनों की रचना की गई और भारतीयों को शिक्षा से वंचित कर दिया और शिक्षा का सौ फ़ीसदी आरक्षण अपने स्वाम् के लिए आरक्षित कर लिया।

शिक्षाहीन होने पर भारतीय मूलनिवासी धनहीन और संपत्तिहीन हो गए। इसके बाद विधानों कानूनों की रचना करके सौ फीसदी आरक्षण धन संपत्ति को स्वम के लिए आरक्षित कर लिया। जिससे भारतीय मूलनिवासी लोग धन और संपत्ति नही रख सकते थे। धन और संपत्ति रखने का अधिकार केवल विदेशी आर्य लोगों को हो था।

राजाओं के दरबार में मंत्रीपद की गद्दी संभालने के लिए शिक्षित लोगों की अवश्यकता होती थी। विदेशी आर्य के अतिरिक्त भारतीय समाज में कोई अन्य शिक्षित नही होता था। राजा की गद्दी को परंपरागत संभालने के लिए सदियों तक सौ फीसदी आरक्षण विदेशी आर्य लोगों के लिए ही आरक्षित रहा। सेवा और बेगार करने का सौ फ़ीसदी आरक्षण पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों को आरक्षित कर दिया गया था।

दुनिया के समस्त धर्म ग्रन्थ अपने देश के समस्त नागरिकों को समान रूप से शिक्षा का अधिकार प्रदान करते है, जबकि विदेशी आर्य संस्कृति के ग्रंथ अपने देश के नागरिकों को अनपढ़ रहने की शिक्षा देते हैं। जो धर्म अपने अनुयायियों को अनपढ़ रहने के लिए बाध्य करता है, वह धर्म उन अनुयायियों का बिल्कुल भी नहीं हो सकता है। धर्म अनुयायियों की उन्नति के लिए बनाया जाता है, अवनति के लिए नही। यदि भारतीय लोग हिन्दू होते तो उनको आर्य संस्कृति में शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार निश्चित होता। परन्तु आर्य लोग भारतीयों को शूद्र के अतिरिक्त कुछ नहीं मानते थे। जिन लोगों से आर्यो ने लड़ कर सत्ता छीनी, वे लोग भारतीयों लोगो को शिक्षित करके अपने पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारते? इसलिए भारतीय लोगों को आर्य संस्कृति में शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था। शिक्षा के अभाव में पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जाति जनजाति के लोग अछूत होने के कारण उनका निवास शहरों और गांवों से बहुत दूर होता था, वे लोग शिक्षा के सम्बंध में सपने में भी नहीं सोच सकते थे। जो मूलधर्म भारतीय लोगों की दुर्दशा इस प्रकार करता है, तो हम कैसे कह सकते हैं कि हम मूल भारतीय लोग हिन्दू संस्कृति के अंग है।

किसी भी संस्कृत ग्रंथ को उठाकर देख लीजिए, सभी में पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति जनजाति और स्त्रियों के लिए मानसिक और शारीरिक अत्याचार का भंडार भरा पड़ा है। जो धर्म जिन लोगों को शारीरिक मानसिक यातनाए देता हैं, वे लोग उस धर्म के अनुयायी कैसे हो सकते हैं। वाल्मीक रामायण के पृष्ठ990 के श्लोक 26एवं28 में उल्लेख है कि शूद्र (पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति जनजाति) को शिक्षा प्राप्त करना महान अधर्म माना गया है।
रामचरित मानस के पृष्ठ 870पर गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि_
जे बरनाधम तेली कुम्हारा। स्वापच किरात कोल कलवारा।।
नारि मुई गृह संपत्ति नासि। मूड मुड़ाइ होहिं संन्यासी।।

अर्थात — तेली, कुम्हार, चण्डाल, भील, कोल और कोल्हार आदि जो वर्ण में नीचे है अर्थात शूद्र है, स्त्री के मरने पर अथवा घर की संपत्ति के नष्ट हो जाने पर सिर मुड़वाकर संन्यासी हो जाते हैं।

इस प्रकार ब्राह्मणी संस्कृति अर्थात हिन्दू संस्कृति में किसी भी भारतीय को साधु संन्यासी बनने का अधिकार नहीं था, ब्राह्मणी सत्ता में ब्राह्मण के अतिरिक्त कोई भी साधु संन्यासी नही बन सकता था।यदि पिछड़ा वर्ग हिन्दू धर्म का अंग होता तो उसको भी निस्चित रूप से साधु संन्यासी बनने का अधिकार होता, परंतु हिन्दू धर्म भारतीय लोगों को हिन्दू धर्म का अंग मानता ही नही था।
सूद्र करहि जप तप व्रत नाना। बैठी बरासन कहहि पुराना।।
सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ ना बरनि अनीति अपारा।।
अर्थात -तुलसीदास रामायण में पिछड़े वर्ग को प्रताड़ित करते हैं कि -शूद्र नाना प्रकार के जप, तप और व्रत करते है तथा ऊंचे आसन पर बैठ कर पुराण कहते हैं। सब मनुष्य मनमाना आचरण करते है। अपार अवनति का वर्णन नही किया जा सकता।

दुनिया के समस्त धार्मिक ग्रंथ अपने देश के समस्त नागरिकों को समान रूप से शिक्षा का अधिकार प्रदान करते हैं, जबकि विदेशी आर्य संस्कृति के ग्रंथ भारतीय लोगों को गुलाम बनाए रखने के लिए अनपढ़ रहने की शिक्षा देते हैं। इस प्रकार हिन्दू धर्म पिछड़े वर्ग की शिक्षा को अपार अनीति समझता है और उनको अनपढ़ बने रहने के लिए निर्देशित करता है।
ढोल गंवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।
रामचरित मानस के पृष्ठ संख्या663 पर भारतीए लोगों को मानसिक और शारीरिक गुलाम बनाने के लिए तुलसीदास द्वारा ढोल और पशुओं के साथ भारतीए मनुष्यों की तुलना की गई है जोकि घोर मानवता विरोधी है। जिस प्रकार ढोल और पशुओं को मारपीटकर बस में किया जाता है, उसी प्रकार भारतीय नारी और पिछड़े समाज को मारपीटकर अपने बस में रखना चाहिए।जी धर्म भारतीय लोगों के साथ इस प्रकार के घृणित कार्य करने के आदेश देता हैं, वह धर्म भारतीय लोगों का धर्म कैसे हो सकता है?
पूजिए विप्र सील गुन हिना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीणा।।

रामचरित मानस के पृष्ठ संख्या571 पर लिखी गई चौपाई के माध्यम से तुलसीदास भारतीय समाज को निर्देशित करते है कि शील और गुणहीन होने पर भी ब्राह्मण पूजनीय है, और गुणों से युक्त और ज्ञान मे निपुण होने पर भी शूद्र पूजनीय नही है। इस प्रकार हिन्दू धर्म के नायक भारतीय लोगों को तुच्छ और नीच बताते हैं और जातिवाद एवं छुआछूत की भावना पैदा करके मानसिक विकार उत्पन्न करते है। भारतीए समाज को ज्ञानहीन और बुद्धिहीन मार्ग की तरफ धकेलते है। ये कैसा धर्म है, जो अपने ही अनुयायियों को अनपढ़ रहने की शिक्षा देता हैं। जो धर्म अपने अनुयायियों को ऐसी शिक्षा देता है, वह उसका धर्म कभी नही हो सकता है।।
गीता अध्याय9 श्लोक 32-

महीं पार्थ व्यापाश्रीत्य स्यु रु येपि पाप योनियांअं।
स्त्रियों वैश्यार तथा शूद्रस्तेअपि यांति प्राम गतिम।।
अर्थात – हे अर्जुन! स्त्री, शूद्र तथा वैश्य पापयोनी के होते है, परंतु यदि ये भी मेरी शरण में आ जाएं तो उनका भी उद्धार मैं कर देता हूं।
स्त्री, शूद्र और वैश्य को गीता ने पाप योनि का बता दिया है। क्या ऐसा धर्म आप भारतीयों का हो सकता है।
येस धर्म, कभी भी हम भारतीयों का नही हो सकता।।
आप पर, यह थोपा धर्म है।।

व्यास स्मृति के अध्याय 1 के श्लोक 11 और 12 में वेदव्यास ब्राह्मण को उपदेश देते हैं कि बढ़ाई, नाई, ग्वाले, कुम्हार बनिया, किरात, कायस्थ, भंगी, कोल, चांडाल ये सब शूद्र (नीच) कहलाते है। इनसे बात करने पर स्नान और इनको देख लेने पर सूर्य के दर्शन से शुद्धि होती हैं।

मनुस्मृति के अध्याय 4 श्लोक215 से विदित है कि लोहार, निषाद, नट, गायक के अतिरिक्त सुनार और शास्त्र बेचने वाले का अन्न वर्जित है।

मनुस्मृति के अध्याय 4 श्लोक215 से विदित है कि शूद्र यदि ब्राह्मण के साथ एक आसान पर बैठे तब राजा उसकी पीठ को तपाए गए लोहे से भगवा कर अपने राज्य से निष्कासित कर दे

मनुस्मृति के अध्याय 8 श्लोक 282 से विदित है कि यदि शूद्र गर्व से ब्राह्मण पर थूक दे, तब राजा उसके दोनों ओठो पर पेशाब कर दे, उसके लिंग को और अगर उसकी ओर अपान वायु निकाले तब उसकी गुदा को कटवा दें।

मनुस्मृति के अध्याय 4 श्लोक215 से विदित है कि यदि कोई कोई शूद्र ब्राह्मण के विरुद्ध हाथ या लाठी उठाए तब उसका हाथ कटवा दिया जाए और अगर शूद्र गुस्से में ब्राह्मण को लात से मारे तब उसका पैर कटवा दिया जाए।
मनुस्मृति के अध्याय 8 श्लोक 272 से विदित है कि शूद्र यदि अहंकार वश ब्राह्मणों को धर्म उपदेश करें तो उस शूद्र के मुंह और कान में राजा गर्म तेल डलवा दें।

मनुस्मृति के अध्याय 4 श्लोक 166 से विदित है कि जानबूझकर या क्रोध से यदि शूद्र ब्राह्मण को एक तिनके से भी मारता है तो वह 21 जन्मों तक कुत्ते बिल्ली आदि की तरह, 5 योनियों में जन्म लेता है ।
मनुस्मृति के अध्याय 10 श्लोक 25 से विदित है कि शूद्र को भोजन के लिए जूठा अन्न, पहनने को पुराने वस्त्र, बिछाने के लिए धान का पुआल और फटे पुराने वस्त्र देने चाहिए ।
मनुस्मृति के अध्याय 11 श्लोक 131 से विदित है की बिल्ली ,नेवला ,नीलकंठ ,मेंढक ,कुत्ता, गोह, उल्लू, कौवा किसी एक की भी हिंसा का प्रायश्चित, शूद्र की हत्या के प्रसिद्ध के बराबर है ।
मनुस्मृति के अध्याय 10 श्लोक 50 से विदित है कि शुद्र लोग, बस्ती के बीच में मकान नहीं बना सकते ,गांव या नगर के समीप किसी वृक्ष के नीचे अथवा शमशान, पहाड़ या उपवन के पास बस कर अपने कर्मों द्वारा जीविका चलाएं ।
मनुस्मृति के अध्याय 14 श्लोक 417 से विदित है कि ब्राह्मण को चाहिए कि वह शूद्र का धन बिना किसी संकोच से छीन ले, क्योंकि शूद्र का धन,उसका अपना कुछ नहीं है ,उसका धन उसके मालिक, ब्राह्मण को छीनने योग्य है।
मनुस्मृति के अध्याय 8 श्लोक 418 से विदित है कि राजा वैश्य और शुद्र को अपना अपना कार्य करने के लिए बाध्य करने के बारे में सावधान रहे क्योंकि जब यह लोग अपने कर्तव्य से विचलित हो जाते हैं तब वे इस संसार को अव्यवस्थित कर देते हैं ।
मनुस्मृति के अध्याय 10 श्लोक 52 से विदित है कि मुर्दों से उतरे हुए वस्त्र ही इनके वस्त्र हैं। शुद्र टूटे-फूटे बर्तनों में भोजन करें। शूद्र महिलाएं लोहे के ही गहने पहने।
जो संस्कृत ग्रंथ और उनके ईश्वर ,भारतीय समाज के लोगो को इस प्रकार की गालियों से मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित करते हैं, वे उस संस्कृति के अंग कैसे हो सकते है??
हिन्दू संस्कृति के एसे दुराचरण के कारण ही भारतीय मूलनिवासियों का पतन हुआ है। ब्राह्मणी लोगों के एक भी देवी देवता का नाम बताइए, जिसने मनुष्य जाति के हित के लिए कोई भी आविष्कार किया हो । पृथ्वी पर सभी आविष्कार बुद्धिमान मनुष्यों द्वारा किए गए हैं। कागज, चक्के  खेती, बड़े-बड़े घर, बंगले ,जहाज हवाई, जहाज, कंप्यूटर, फोन, मोबाइल्स, गाड़ियां, समाज निर्माण, धर्म निर्माण, मंदिर, मस्जिद, मूर्ति निर्माण और अपने चारों तरफ मनुष्य के सुख सुविधा की जितनी भी वस्तु दिखाई देती हैं उन सभी का आविष्कार मनुष्य के अथक प्रयासों से हुआ है और गुणगान किया जाता है कि ईश्वर और देवी-देवताओं के चमत्कारों का, दुनिया में ऐसा एक भी आविष्कार बताइए जो किसी ईश्वर भगवान और देवी देवता द्वारा किया गया हो। ईश्वर भगवान और देवी देवताओं की रचना ही मनुष्यों द्वारा की गई है । ये मनुष्य को क्या दे सकते हैं। इसकी पुष्टि इस कथन से भी होती है कि मनुष्य के अलावा दुनिया का एक भी प्राणी भगवान और देवी देवताओं को नहीं मानता । जितने भी भारत में जानवर रहे हैं ।

वे देवी देवता और भगवानों की सवारी के लिए प्रयोग किए गए हैं । उन जानवरों का एक भी बच्चा उन भगवानों का गुणगान नही करता है। उनकी पूजा अर्चना करते हुए नहीं देखा गया है ,जो उनकी सवारी करते थे । जहां मनुष्य की पहुंच नहीं रही, वहां कोई भी मंदिर मस्जिद या चर्च नहीं मिला है। यदि संपूर्ण सृष्टि का कोई रचयिता होता, तो उसको संपूर्ण संसार में जाना जाता और संपूर्ण सौरमंडल में उसके पूजा स्थल होते परंतु अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग देवता और भगवानों की मनुष्यों द्वारा काल्पनिक रचना की हुई है । मनुष्य को जैसी कल्पना सूजी वैसे ही भगवान और देवी देवताओं की रचना कर डाली। दुनिया में अनेक धर्म पंत और उनके अपने-अपने देवता हैं । दिन प्रतिदिन नए-नए भगवान और उनकी नई नई प्रार्थनाएं तैयार हो रही हैं ।

दुनिया में देवताओं के अलग-अलग आकार और उन को प्रसन्न करने के लिए अलग-अलग पूजाओं का निर्माण किया गया है । अभी तक किसी भी मनुष्य के पास भगवान मिलने का कोई प्रमाण नहीं है । भगवान को मानने वाले भी और नहीं मानने वाले भी एक जैसी समान जिंदगी जीते हैं । भगवान किसी का भी भला या बुरा नहीं कर सकता । यदि ऐसा कोई भगवान होता तो सबसे पहले भ्रष्टाचार अन्याय चोरी बलात्कार आतंकवाद अराजकता और ऊंच-नीच पर रोक लगाता और दुनिया के समस्त इंसानों को सुख शांति प्रदान करता परंतु हजारों वर्षों से पूरी पृथ्वी करोड़ों लोगों के खून और अत्याचारों से रंगी और फटी पड़ी है। हजारों वर्षों से बच्चियों की भ्रूण हत्या होती जा रही है।

गरीब और असहाय लोगों पर अत्याचार होते आ रहे हैं। मासूम बच्चों पर गोलियां दागी जा रही हैं। तथाकथित धार्मिक स्थलों पर नारियों की इज्जत लूटी जा रही है। यदि कोई ऐसा भगवान होता तो उसको यह अत्याचार दिखाई नहीं देते और दिखाई देते तो ऐसे अत्याचारों को आकर नहीं रोकता । उसी भगवान के मंदिर मस्जिद तोड़े जा रहे हैं उसकी ही संतान को दूसरी संतानों द्वारा गुलाम बनाकर अत्याचार ढाए जा रहे हैं। यदि कोई ऐसा भगवान होता तो वह इन सब बुरे कृतियों से मानव जाति की रक्षा नहीं करता । भगवान और देवी देवताओं के नाम पर ब्राह्मणी लोगों द्वारा अपने स्वार्थ के लिए दुकानदारी चलाई जा रही है और इस दुकानदारी के माध्यम से संपूर्ण भारत में ऊंच-नीच छुआछूत और पाखंड का जाल बिछाया हुआ है और इस जाल के माध्यम से भारतीय लोगों का शोषण दिन और रात किया जा रहा है।  हिंदू धर्म में दलितों की गिनती इंसान तो छोड़िए जानवरों में भी नहीं होती।

जानवर तो पूजा का पात्र है ,उसका मल मूत्र भी आस्था का प्रतीक है लेकिन दलित को छूना भी पाप है। दलित अछूत है । यदि ब्राह्मण लोग अपने घरों में तमाम जानवर रखते हैं जैसे गाय भैंस बकरी कुत्ता इत्यादि कितना अपनेपन का व्यवहार रखते हैं। इन जानवरों से ,इनको अपने ही थाल में जूठन आदि खिलाते हैं। अपने ही बाल्टियों से पानी पिलाते हैं, फिर उन्हें धोकर रख देते हैं। बाद में खुद इस्तेमाल करते हैं। इन्हीं बर्तनों में खाते हैं, इन्हीं बाल्टी में पानी पीते हैं, लेकिन अगर यही बाल्टी दलित छू ले, तो उसको घर से बाहर कर देते हैं, मतलब दलित जानवर से भी गया गुजरा है। इतना सब होने पर दलित किस मुंह से कह सकता है कि वह हिंदू है।

दलित तो हिंदू धर्म की चतुर्थवर्ण व्यवस्था में भी नहीं आता है। उसको पंचम वर्ग के नाम से जानते हैं। कुछ लोग गलती से दलित को शुद्र कहते हैं ,लेकिन दलित शुद्र की श्रेणी में नहीं आते अर्थात दलित शुद्र नहीं है । ये, शुद्र से बाहर दलित को अछूत समझा जाता है। दलित अपने घर पर सवर्णों के आने पर ही चारपाई पर भी नहीं बैठ सकता है। सोचिए घर हमारा चारपाई हमारी इनको बनाने वाले भी हम लेकिन हम सवर्णों के आने पर अपनी चारपाई पर नहीं बैठ सकते ,यह कैसा धर्म है ।यह कैसी इंसानियत है । दलितों को हमारे गांव से बाहर बसने के लिए बाध्य किया गया। दलितों का घर गांव में दक्षिण दिशा में रखा गया सवर्णों का मानना था कि हवा दक्षिण दिशा में कम चलती है। दलित गंदा होता है इसलिए हवा इसे छू कर हमें गंदा ना करें। जिससे दलितों को दक्षिण दिशा की ओर बसने के लिए मजबूर किया गया । दलित हिंदू धर्म के किसी भी त्योहारों में, उनके यहां शामिल नहीं हो सकता ।

हिंदू के किसी कार्यक्रम में शामिल होने की इजाजत नहीं है। मंदिर नहीं जा सकता । जाएगा तो पीटा जाएगा । उनकी चारपाई पर नहीं बैठ सकता। उनके बीच में बैठकर खाना नहीं खा सकता। इतनी बड़ी आस्पर्शता था! क्या दशा है दलितों की हिंदू समाज में? किसी बुद्धिजीवी ने कहा है कि अगर आज आस्पर्शता पाप नहीं है, तो दुनिया में कुछ भी पाप नहीं है ।आस्पर्शता पाप ही नहीं, महापाप है । जिस महापाप को करने में हिंदुओं को जरा सी भी तकलीफ नहीं होती है। वे लोग दलितों को अपनी टूटी जूती से अधिक नहीं समझते हैं। इसलिए दलितों को उन्हें नीच और तुच्छ कहने में जरा सा भी संकोच नहीं होता है और वे बड़ी शान से कहते हैं । बाबा साहब ने कहा है कि दलितों को जानवर से भी नीचे दर्जा देना, यह साबित करता है कि दलित और चाहे कुछ भी हो सकता है, लेकिन हिंदू नहीं हो सकता है । अगर यह हिंदू होता, तो कभी भी इनके साथ जानवर से बदतर व्यवहार नहीं होता ।

बाबा साहब ने कहा है कि हिंदू धर्म में दलितों की स्थिति गुलामों से भी बदतर है । क्योंकि गुलामों के मालिक उन्हें छूते हैं । उनके हाथ का बना खाना खाते हैं, लेकिन हिंदू धर्म में दलितों को छूना भी पाप है । चुनाव में दलित वोटों को प्रभावित किया जाता है। दलित बहन बेटियों की अस्मिता लूटी जाती है। शिक्षा केंद्र पर उनके बच्चों के साथ भेदभाव किया जाता है। नौकरी और पदोन्नति में उन को पीछे रखा जाता है । पुलिस थानों और न्यायालयों में उनकी कोई आवाज नहीं सुनी जाती। अंधविश्वास और भगवानों के नाम पर उनको मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है । सार्वजनिक मंच पर बोलने से उनको रोका जाता है। सार्वजनिक संस्कारों के स्थान पर उनको दाह संस्कार नहीं करने दिया जाता है । इतना सब होने पर भी दलित किस मुंह से कह सकता है कि वह हिंदू है। अगर वह हिंदू होता तो क्या उसके साथ यह सब होता। दलितों को मारना पीटना, इनके घर जलाए जाना । यह साबित करता है कि दलित हिंदू नहीं है और ना ही हिंदू धर्म दलितों का धर्म है वरना अपने सहकर्मी के साथ क्या कोई ऐसा व्यवहार करता। मुस्लिमों को पानी पी पीकर कोसने वाला हिंदू उनके यहां खानपान में, उनके यहां रिश्तेदारी करने में, कोई परहेज नहीं करता। जबकि दलित अपने आपको हिंदू कहता है, फिर भी उसके साथ यह भेदभाव है।

इतनी यातना, इतनी प्रताड़ना, इतनी असमानता, इतनी अमानियवीयता दलितों के साथ। यह सब होने पर यह प्रश्न बार-बार उठता है कि क्या दलित हिंदू है? क्या दलित हिंदू हो सकता है? क्या हिंदू धर्म दलितों का धर्म हो सकता है? बाबा साहब का यह कथन बिल्कुल सही है कि दलित कुछ भी हो सकता है, लेकिन हिंदू नहीं हो सकता है।
कुत्ता आता है इनके भगवान पर मूत कर चला जाता है। ये कुत्ते की पूछ भी नहीं उखाड़ पाते हैं और बचाव में कहते हैं क्या संतान अपने पिता के ऊपर मूत्र त्याग नहीं सकती करती है। अगर एक दलित इंसान के भगवान के पास से गुजर भी जाए तो भगवान अपवित्र हो जाता है। यह उनके उसके ऊपर लाठी डंडे लेकर चढ़ जाते हैं।

एक चूहा और बंदर आता है इनके भगवान के भोग अर्थात भोजन को खाकर झूठा करके चले जाते हैं। यह उनका एक बाल तक भी नहीं उखाड़ पाते हैं और कहते हैं यह सब तो भगवान के रूप हैं। अगर एक दलित आदमी इसी काम को करता है तो यह उसको काटने को दौड़ पड़ते हैं और उसको नीच, दुष्ट, अधर्म और ना जाने कैसी कैसी उपाधियों से नवाजा जाता है । यह धर्म के ठेकेदार एक पत्थर के पैर स्पर्श करने के लिए अपना धन और समय दोनों गवाते हैं और अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते हैं, जबकि एक इंसान के देखने और छूने मात्र से ही इनका अमंगल हो जाता है, यह नर्क के भागी हो जाते हैं । यह धर्म के ठेकेदार पशुओं के साथ बिस्तर साझा करते हैं लेकिन इंसानों के साथ बैठना भी सांझा नहीं कर सकते ।

यह जानवरों को मां-बाप कह सकते हैं लेकिन इंसानों को इंसान नहीं कह सकते। यह पत्थरों पर भी और दूध की नदियां बहा सकते हैं लेकिन भूखे नंगे इंसानों को दुत्कार कर भगा देते हैं। यह दूसरों से कहते हैं कि क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन हैं। क्रोध मत करो लेकिन यह खुद क्रोध और क्रोध की जिंदा तस्वीर होते हैं। क्रोध तो नाक पर रखा होता है। किसी ने कुछ विपरीत विचार रखे नहीं, कि सांप की तरह जीभ लपलापने लगते हैं। यह दूसरों को उपदेश देते हैं कि मोह माया का त्याग करो , लेकिन खुद इस चक्कर में लगे रहते हैं किस तरह से मूर्ख बनाकर बेवकूफो से धन ऐठा जाए । यह कहते हैं  सादा जीवन उच्च विचार लेकिन खुद आलीशान आश्रमों और बंगलों में रहते हैं वातानुकूलित गाड़ियों में चलते हैं अब आप सोचो कि इनसे बड़ा धूर्त और पाखंडी क्या कोई और हो सकता है।

इनकी संस्कृति झूठ की, लूट की, जातिवाद की, विषमता की, भेदभाव की, शोषण की, उच्च नीच की, देवतावाद की, अवतारवाद की, श्रद्धा से खेलने की, धर्म स्थलों में लूट की, गुरु घंटालो की, अश्लीलता की, नंगे नाच गाने की, नंगे बाबाओं की, कामवासना की, बलात्कारियों की, मुर्ख और अय्याशी बाबा की, अंधश्रद्धा की, अनैतिक संबंधों की, प्रदूषण फैलाने वाले त्योहारों की, अश्लील क्रत्यो की, मद्यपान की, गंजे के नशे की, खोपड़ी में दारु पीने की, पत्थर पर दूध बहाने की, भोग के नाम पर अन्न को जाया करने की, भूखे को भूखा मारने की, संस्कृति है। क्या ऐसी संस्कृति में आदर्श समाज का निमार्ण हो सकता है? क्या ऐसी संस्कृति में समाज में समता, ममताऔर मानवता का वातावरण स्थापित हो सकता है? ऐसी घटिया संस्कृति भारतीय लोगों की कभी भी नहीं हो सकती है। इसलिए एक भारतीय अछूत दलित मूलनिवासी कुछ भी हो सकता है, परंतु हिन्दू नही हो सकता है।

बहुजनो मुक्ति का मार्ग धर्मशास्त्र वह मंदिर नहीं है, बल्कि बहुजानो का उद्धार उच्च शिक्षा, व्यवसाय, रोजगार, उच्च आचरण व नैतिकता में निहित है। तीर्थ यात्रा, व्रत, पूजा पाठ व कर्मकांड में नहीं है ।धर्म ग्रंथों का अखंड पाठ करने, यज्ञ में आहुति देने व मंदिरों में माथा टेकने से बहुजनो की दासता दूर नहीं होगी, गले में पड़ी तुलसी की माला आपको गरीबी से मुक्ति नहीं दिलाएगी, काल्पनिक देवी देवताओं की मूर्तियों के आगे नाक रगड़ने से आपकी भुखमरी दरिद्रता गुलामी दूर नहीं होगी। अपने पुरखों की तरह तुम भी चिथड़े मत लपेटो, दड़बे जैसे घरों में मत रहो और इलाज के अभाव में तड़प तड़प कर जान मत गवाओ, भाग्य व ईश्वर के भरोसे मत रहो । तुम्हे अपना उद्धार खुद ही करना है। धर्म मनुष्य के लिए है । मनुष्य धर्म के लिए नहीं । और जो धर्म तुम्हें इंसान नहीं समझता, वह धर्म नहीं, अधर्म का बोझ है जहां ऊंच-नीच और नीच की व्यवस्था है । वह धर्म नहीं, गुलाम बनाए जाने की साजिश है। एक भी ऐसे अछूत व्यक्ति का नाम बताओ जिसका भला किसी देवी देवता अथवा ब्राह्मणी भगवान ने किया हो।

संविधान लागू होने से पहले किसी एक दलित व्यक्ति की नौकरी दिलवाने वाले किसी देवी देवता का नाम बताओ। किसी भी ऐसे देवता का नाम बताओ जिसमे जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष किया हो । किसी भी ऐसे देवता का नाम बताओ जिसने जाति के कारण अपमानित होते हुए किसी अछूत कहे जाने वाले व्यक्ति को अपमानित होने से बचाया हो । किसी भी ऐसे देवता का नाम बताओ जिसने प्यास से मरते हुए किसी व्यक्ति को पानी पिलाया हो। किसी भी ऐसे देवता का नाम बताओ जो किसी शूद्र के घर पैदा हुआ हो । किसी भी ऐसे देवता का नाम बताओ जिसमे कहां हो जाति भेदभाव करने वाले व्यक्ति को नरक की भट्टी में जलाया जाएगा ,पकोड़े तले जाएंगे या उसको कीलों के बिस्तर पर सुलाया जाएगा । किसी भी ऐसे देवता का नाम बताओ जिसमे कहा कि अगर कोई किसी शूद्र कहे जाने वाले इंसान के स्पर्श अथवा परछाई से अपवित्र होने की बात करता है तो मैं उसको तंग करूंगा।

शूद्रो को संपत्ति रखने का आंदोलन भी कभी भी लक्ष्मी देवी ने नहीं चलाया, शूद्रो को पढ़ने लिखने का आंदोलन भी कभी भी सरस्वती देवी ने नहीं चलाया। शूद्रो के अच्छे भोजन का आंदोलन भी कभी अन्नपूर्णा देवी ने नहीं चलाया तो फिर 33 करोड़ देवी देवताओं को शूद्रो द्वारा नमन का क्या मतलब । यह सब देवी देवता काल्पनिक हैं। काल्पनिक होने के नाते ,यह कुछ भी नहीं कर सकते हैं । जिसका यह भला करते हैं उन्होंने इनकी रचना की है। यदि इनके देवी देवता और भगवान निष्पक्ष होते तो यह देवी देवता और भगवान अपने मंदिरों में अपनी पूजा के लिए किसी बुद्धिमान और योग्य व्यक्ति को बैठाते, परंतु संस्कृत से पीएचडी किया हुआ एक दलित, मंदिर में पूजा नहीं करा सकता। जबकि पांचवी फेल एक ब्राह्मण को यह सभी अधिकार हैं ।

वह मंदिर की पूजा भी करा सकता है। वह मंदिर का पुजारी बनने के साथ-साथ पूजा भी करा सकता है उनके लिए इस प्रकार का आरक्षण 4000 सालों से चला आ रहा है। यह कैसा आरक्षण है । अपने इस धंधे में ,भारतीय मूल के किसी योग्य व्यक्ति को भी प्रवेश नहीं होने दिया, यह कैसा आरक्षण है ? भारत के मंदिरों में अथाह धन जमा है, जो सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मणों और व्यापारियों के एकाधिकार में है और धर्म के नाम पर ब्राह्मण अपनी अय्याशी के लिए उसे प्रयोग करता है इस धन से दलित और गरीब की मदद की जा सकती है किंतु उस धनराशि का प्रयोग दलितों के विरुद्ध उनकी अवनति के लिए प्रयोग किया जाता है। यह धन किसी और का नहीं यह धन दलित और उनके पूर्वजों का है ।जिसे इन ब्राह्मणों ने छल कपट से उससे छीन लिया है । यदि दलितों को अपनी बर्बादी और अपमान से बचना है तो आज से प्राण करें कि हम ना तो मंदिर जाएंगे और ना ही दान मंदिर में करेंगे इन मंदिरों में दलितों को बर्बादी और अपमान के सिवाय कुछ भी नहीं मिलता है।

देश के बहुजन महापुरुषों ने इस सामाजिक कैंसर को मिटाने का भरसक प्रयास किया है । समय-समय पर इसके खिलाफ आवाजें भी उठाई हैं, परंतु यह कोढ़ रूपी बीमारी आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। आधुनिक भारत में अनेक महापुरुषों ने इसके खिलाफ राष्ट्रव्यापी आंदोलन भी किए जैसे पेरियार ई.वी. रामास्वामी, ज्योतिबा फूले, महाराजा गायकवाड ,बाबा साहब डॉ अंबेडकर आदि परंतु अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि इतने लोगों की कुर्बानी के बाद भी यह व्यवस्था आजाद भारत के 75 साल बाद भी सामाजिक सहिष्णुता, भाईचारा, विकास आदि को खाए जा रही है। यह व्यवस्था इसलिए बरकरार है क्योंकि इसे मिटाने का प्रयास समाज के उन व्यक्तियों द्वारा किया गया जो हिंदू वर्ण व्यवस्था के अनुसार चतुर्थ श्रेणी या शुद्र वर्ण में आते हैं ।

इस व्यवस्था के खिलाफ कोई प्रयास सवर्ण समाज के लोगों द्वारा कभी नहीं किया गया। यह बात अलग है कि यह लोग ऐसी व्यवस्था को मिटाने के लिए ढोल पीटने में हमेशा आगे रहे हैं जैसे किताबी स्रोतों से पता चलता है कि गांधी छुआछूत को मिटाने के लिए आजीवन लड़ते रहे परंतु सच्चाई यह है कि उन्होंने हरिजन शब्द को पुनः जीवित किया जिसका अर्थ गाली से भी खतरनाक होता है और एक संघर्षशील समाज को नाजायज समाज की संज्ञा दे दी गई । यह देश हिंदू, मुस्लिम और ईसाइयों का ही नहीं बल्कि बुद्ध और उनके विज्ञान सम्मत उपदेशों द्वारा निर्मित समाज का भी रहा है। बाबा साहब डॉक्टर अंबेडकर ने भी भारत देश को बुद्धमय करने का संकल्प लिया था और इस संबंध में उन्होंने पहल भी की थी ।15 अगस्त 1947 को भारत देश आजाद हुआ था।

26 नवंबर 1949 को बाबा साहब द्वारा निर्मित किए गए संविधान को अंगीकार किया गया था। 26 जनवरी 1950 को संविधान पूरी तरह लागू हुआ था। भारतीय संविधान में बाबा साहब ने भारत के मूल बुद्ध धम्म के आसमानी नीले रंग को राष्ट्रीय रंग के रूप में , धम्म के कमल के फूल को राष्ट्रीय फूल के रूप में , और बोधि वृक्ष के पीपल को राष्ट्रीय वृक्ष के रूप में मान्यता दी गई। बौद्ध धम्म के धम्म चक्र को राष्ट्रीय चिन्ह की मान्यता दी गई। और राष्ट्रीय झंडे पर धम्मचक्र अंकित किया गया। सम्राट अशोक की राजधानी चार सिंह वाली मुद्रा के प्रतीक को भारत देश की राज मुद्रा के रूप में घोषित किया गया। पंचशील और अष्टांगिक मार्ग पर भारतीय संविधान की रचना की गई । सम्राट अशोक के सत्यमेव जयते को भारतीय शासन व्यवस्था में स्वीकृति दी गई । भारत को पूरी दुनिया में पहचान बौद्ध संस्कृति के कारण मिली है। राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा का पहला रंग लाल है जो बौद्ध भिक्षु के चीवर का रंग है जो कि त्याग का प्रतीक है।

दूसरे सफेद रंग का बौद्ध धम्म में विशेष महत्व है, जो कि शांति एवं सत्य का प्रतीक है। बौद्ध उपासक/उपासिका का शील ग्रहण करते समय सफेद वस्त्र धारण करते हैं। तीसरा हरा रंग है जो कि प्रेम का प्रतीक है। तिरंगे के बीच में बौद्ध धम्म का धम्म चक्र नीले रंग में अंकित किया गया है जो कि पूरी दुनिया को बौद्ध धम्म की पहचान दिलाता है। भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार का नाम बौद्ध धम्म से सलंग्न है। “भारत रत्न” यह भी बौद्ध धम्म की पदवी है। बुद्धं, धम्मं, संघम – यह तीनों बौद्ध धम्म के त्रिरत्न हैं। बौद्ध धर्म में सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति को रत्न की पदवी दी जाती है, अनेक बौद्ध भिक्षुओं के नाम भी रत्न पर आधारित हैं जैसे भंते ज्योतिरत्न, भंते संघरत्न, भंते शांतिरत्न रखना इत्यादि। रत्न महान शब्दों से देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार का नाम ‘भारत रत्न’ रखा गया है। बौद्ध धम्म के मैत्री और करुणा के प्रतीक कमल के फूल को संविधान कमेटी ने राष्ट्रीय फूल की मान्यता दी है।

पाली भाषा में कमल के फूल को पदम कहा जाता है । भारत रत्न पुरस्कार के बाद तीन प्रमुख पुरस्कार पद नाम पर दिए जाते हैं। प्रमुख पुरस्कार का नाम अशोक चक्र है। राष्ट्रपति भवन के प्रमुख हॉल का नाम भी अशोक हॉल है । हमारे केंद्रीय मंत्रिमंडल के निवास स्थान के परिसर का नाम भी बौद्ध संस्कृति पर रखा है। सम्राट अशोक के मंत्री मंडल के नगर का नाम भी जनपद था इसलिए जनपद का नाम रखा है। भारत की पहचान कराने वाली प्रत्येक बात का बौद्ध धर्म से संबंधित है।

यह लेख हम हिन्दू नहीं हैं पुस्तक से लिया गया है

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here