रूस –यूक्रेन युद्ध के परिपेक्ष्य में विश्व कूटनीति

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विजय शंकर सिंह

म एक उन्माद और अजीब पागलपन के दौर में हैं। दुनियाभर के इतिहास में ऐसे पागलपन के दौर आते रहते हैं, ठीक उसी तरह जैसे, हम सबके जीवन में, अच्छे और बुरे वक्त आते हैं, हमें बनाते और बिगाड़ते हैं और फिर चले जाते हैं। ऐसा ही एक दौर आया था, 1937 से 1947 का। पूरी दुनिया एक उन्माद से ग्रस्त थी। एक महायुद्ध छिड़ा एक प्रतिक्रियावादी फासिस्ट ताकत का अंत हुआ, औपनिवेशिक साम्राज्य का बिखराव हुआ, सदियों के गुलाम देश आजाद हुए और दुनिया का एक नया स्वरूप देखने को मिला। पर क्या हाल के रूस यूक्रेन युद्ध ने दुनिया को आज फिर से 80 साल के उन खतरनाक दिनों की ओर झोंक रहा है, जिसकी कल्पना से लोग आज भी सिहर जाते हैं ? अभी इस पर हां कहना, जल्दबाजी होगी। पर यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने एक इंटरव्यू में कहा है कि “रूस ने अब तृतीय विश्वयुद्ध शुरू कर दिया है और इसमें पूरी सभ्यता दांव पर लगी है। पुतिन के यूक्रेन हमले का परिणाम अभी बाकी है, लेकिन इससे विश्वयुद्ध के हालात बन चुके हैं।”

अब आते हैं इस युद्ध पर नोआम चोम्स्की के विचार क्या हैं। नोआम से बातचीत इसलिए शुरू की जा रही है कि नोआम ने द्वितीय विश्वयुद्ध देखा है। उसकी विभीषिका को महसूस किया है। वे युद्ध के खिलाफ रहते हैं। युद्ध को साम्राज्यवाद के एक बर्बर और असभ्य विस्तार माध्यम के रूप में देखते हैं। उनका यह स्पष्ट मत है कि ” रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन एक संप्रभु राष्ट्र के खिलाफ आक्रमण को सही ठहराने के लिए जो तर्क दे रहे हैं, उन्हें सही नहीं ठहराया जा सकता है। इस भयानक आक्रमण के सामने अमेरिका को सैन्य वृद्धि और विकल्पों पर विचार न करके इसके समाधान के लिए, तत्काल कूटनीतिक राह का उपयोग किया जाना चाहिए। क्योंकि यदि बिना किसी विजेता के यह युद्ध यदि यूं ही गहराता रहा तो मानव प्रजाति के लिए, यह मौत का वारंट  हो सकता है।”

नोआम चोमस्की ने यह बात आज नहीं, बल्कि जब युद्ध शुरू हुआ था और पुतिन अपने आक्रमण के औचित्य पर दुनिया के सामने अपने तर्क रख रहे थे, तब कहा था। वे, आगे कहते हैं,”हमें कुछ ऐसे तथ्यों को सुलझाना चाहिए जो निर्विवाद हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि हमें यह मानना चाहिए कि यूक्रेन पर रूसी आक्रमण एक प्रमुख युद्ध अपराध है। यह वैसे ही है जैसे इराक पर अमेरिकी और सितंबर 1939 में पोलैंड पर हिटलर का आक्रमण।”फिलहाल वे बस यही दो उदाहरण देते हैं और कहते हैं कि, ‘जैसे, इन दो आक्रमणों का कोई औचित्य नहीं था, वैसे ही इस आक्रमण का भी कोई औचित्य नहीं है।’ वे पुतिन के अत्यधिक आत्मविश्वास को पागल कल्पनाओं में फंसे हुए एक युयुत्सु जीव के रूप में देखते हैं।

हालांकि वे पुतिन का बचाव भी करते हुए कहते हैं कि यह हो सकता है कि, “चूंकि पुतिन की प्रमुख मांग एक आश्वासन के रूप में थी कि नाटो संगठन अब कोई और नया सदस्य नहीं बनाएगा, विशेष रूप से यूक्रेन या जॉर्जिया को अपने गुट में नहीं शामिल करेगा।’ अब एक उद्धरण पढ़े, “यह तो स्पष्ट  है कि वर्तमान संकट का कोई आधार ही नहीं होता यदि नाटो विस्तार की कोई महत्वाकांक्षा अमेरिका में न पनप रही होती तो। सोवियत संघ के विघटन औऱ शीत युद्ध की समाप्ति के बाद नाटो गठबंधन का विस्तार यूरोप में जिस सुरक्षा संरचना के निर्माण के अनुरूप हुआ उसने रूस को सशंकित किया और जब रूस में कुछ मजबूती आई तो, वह चुप नहीं रहा। “यह शब्द हैं, रूस में पूर्व अमेरिकी राजदूत जैक मैटलॉक के, जो अमेरिकी राजनयिक कोर में रूस के कुछ गंभीर विशेषज्ञों में से एक हैं, और यह उनके एक लेख का अंश है, जिसे, आक्रमण से कुछ समय पहले उन्होंने लिखा था। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि यह संकट,”सामान्य सहमति की विंदु पर बातचीत के माध्यम से पहुंच कर हल किया जा सकता है। कोई भी समझदार व्यक्ति यह समझ सकता है कि यह संघर्ष,  संयुक्त राज्य अमेरिका के हित में नहीं है। यूक्रेन को रूसी प्रभाव से अलग करने की कोशिश करना, इसके लिये नस्ली क्रांति की बात करना, उसके लिये किसी भी तरह का अभियान चलाना, एक मूर्खता थी, और यह एक खतरनाक नीति भी। क्या हम इतनी जल्दी क्यूबा मिसाइल संकट का सबक भूल गए हैं ?”

मैटलॉक इन निष्कर्षों पर पहुंचने वाले अकेले राजनयिक नहीं हैं, बल्कि ऐसी धारणा रूस विशेषज्ञों में से एक सीआईए प्रमुख विलियम बर्न्स के संस्मरणों में भी आयी है। राजनयिक जॉर्ज केनन, पूर्व रक्षा सचिव विलियम पेरी द्वारा समर्थित और राजनयिक रैंकों के बाहर प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विद्वान जॉन मियर शाइमर और कई अन्य कूटनीति के विशेषज्ञ भी लगभग इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। ट्रुथआउट वेबसाइट के द्वारा जारी किए गए अमेरिकी आंतरिक दस्तावेजों से पता चलता है कि जॉर्ज बुश की यूक्रेन को नाटो में शामिल कराने की प्रबल उत्कंठा ने रूस को बेहद असहज और सतर्क कर रखा था और युद्ध की भूमिका अंदर ही अंदर बनने लगी थी। रूस ने तीखी चेतावनी भी दे दी थी कि सैन्य खतरे का विस्तार बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है।  इससे यह समझा जा सकता है कि युद्ध के तार कहाँ से इग्नाइट हो सकते थे। नोआम चोम्स्की कहते हैं, ” संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि, यह संकट 25 वर्षों से चल रहा है क्योंकि अमेरिका ने रूसी सुरक्षा चिंताओं को तिरस्कारपूर्वक खारिज कर दिया था, विशेष रूप से उनकी स्पष्ट लाल रेखाएं: जॉर्जिया और विशेष रूप से यूक्रेन। यह मानने का अच्छा कारण है कि इस त्रासदी को अंतिम क्षण तक टाला जा सकता था। हमने पहले भी इस पर बार-बार चर्चा की है।  पुतिन ने अभी आपराधिक आक्रमण क्यों शुरू किया, हम अनुमान लगा सकते हैं कि वे क्या चाहते हैं। पर अब धीरे धीरे सब स्पष्ट हो रहा है।”

नोआम चोम्स्की  वियतनाम युद्ध का उल्लेख करते है। वे कहते हैं, ” पहले की तरह मुझे एक सबक याद आ रहा है जो मैंने बहुत पहले सीखा था। 1960 के दशक के अंत में मैं यूरोप में नेशनल लिबरेशन फ़्रंट ऑफ़ साउथ वियतनाम के कुछ प्रतिनिधियों से मिला था। यह सम्मेलन वियतनाम पर भयानक अमेरिकी युद्ध अपराधों के तीव्र विरोध के लिए आयोजित किया गया था। उस मुलाकात में कुछ युवा इतने क्रोधित थे कि उन्हें लगा कि केवल हिंसक प्रतिक्रिया ही सामने आने वाली राक्षसी युद्ध के लिये एक उपयुक्त प्रतिक्रिया होगी। मेन स्ट्रीट पर खिड़कियां तोड़ना  एक आरओटीसी केंद्र पर बमबारी। इससे कम कुछ भी इन भयानक युद्ध अपराधों में संलिप्तता के समान था।  वियतनाम ने इस युद्ध में, चीजों को बहुत अलग तरीके से देखा। लेकिन उन्होंने ऐसे सभी हिंसक उपायों का कड़ा विरोध किया। उन्होंने एक प्रभावी विरोध का अपना मॉडल प्रस्तुत किया। उन्होंने वियतनाम में मारे गए अमेरिकी सैनिकों की कब्रों पर मौन प्रार्थनायें की। वे युद्ध से ऊबे थे। शांति चाहते थे। उन्होंने अपने क्रोध, उन्माद और हिंसक मनोवृत्ति पर नियंत्रण रखा। पर क्या अमेरिका ने अपना मानवीय चेहरा दिखाया ? बिल्कुल नहीं।”

यह एक सबक है जिसे मैंने अक्सर एक या दूसरे रूप में ग्लोबल साउथ में भयानक पीड़ा के शिकार लोगों से सुना है, जो हिंसा के मुख्य लक्ष्य और शिकार थे। हमें परिस्थितियों के अनुकूल उसका हल सौहार्द से निकलना चाहिए। आज इसका यह अर्थ है कि, हम यह समझने का प्रयास करें कि यह त्रासदी क्यों हुई और इसे टालने के लिए क्या किया जा सकता था, और अब भी क्या किया जा सकता है।”

यह मामला, अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट ऑफ जस्टिस में भी यूक्रेन द्वारा ले जाया गया। वहां का फैसला भी यूक्रेन के पक्ष में आया। रूस को युद्ध रोकने के लिये कहा भी गया। पर आईएसजे एक ऐसी न्यायपालिका है जो, आदेश दे सकती है पर आदेश का पालन न किये जाने पर कुछ कर भी नहीं कर सकती है। रूस का यूक्रेन पर यह आक्रमण, संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 2(4) का स्पष्ट उल्लंघन है, जो किसी अन्य राज्य की क्षेत्रीय अखंडता के खिलाफ धमकी या बल प्रयोग को प्रतिबंधित करता है। फिर भी पुतिन ने 24 फरवरी को अपने भाषण के दौरान आक्रमण के लिए कानूनी औचित्य प्रस्तुत करने की कोशिश की और रूस ने कोसोवो, इराक, लीबिया और सीरिया को सबूत के रूप में उद्धृत किया कि संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके सहयोगी बार-बार अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन करते हैं। मतलब साफ है, जब जब जो मज़बूत रहा उसने हमला किया, यूएनओ, आईएसजे सहित अंतर्राष्ट्रीय परम्परा, कानूनों का उल्लंघन किया, और न्याय की जगह मतस्य न्याय की परंपरा का पालन किया। यह सब न्याय से दूर है। न्याय से बहुत दूर।  लेकिन अंतरराष्ट्रीय मामलों में न्याय की जीत कब हुई है ?

यदि आप अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं को ध्यान पूर्वक देखें और उसका विवेचन करें तो यह बात बिल्कुल सच है कि अमेरिका और उसके सहयोगी देश बिना किसी अपराधबोध के अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन करते रहे हैं। न केवल उल्लंघन ही करते रहे हैं, बल्कि वे ऐसे अंतर्राष्ट्रीय कानून गढ़ते भी रहे हैं, मनमानी और पक्षपातपूर्ण व्याख्या भी उन कानूनों की करते रहे हैं, और दुनिया मे एक बेशर्म दादागिरी जैसी हरकतें करते रहें। पर एक की दबंगई, किसी अन्य की दबंगई के लिये औचित्य का आधार नहीं हो सकती है। इसलिए, इस युद्ध में भी, रूस को यह छूट नहीं दी जा सकती कि जब जब अमेरिका ने जो जो युद्ध अपराध किये हैं, उन्हें रूस भी दुहराए और अपनी मनमर्जी चलाये। कोसोवा हो इराक हो या लीबिया हो, यह सब रूस द्वारा छेड़े गए इस नए युद्ध का औचित्य साबित नहीं करते हैं। हालांकि इन युद्धों ने रूस को यूक्रेन पर हमला करने के लिये एक बहाना ज़रूर दिया है।

द्वितीय विश्वयुद्ध और शीत युद्ध काल के बाद अमेरिका द्वारा इराक पर किया गया हमला, न केवल अंतर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन था, बल्कि वह एक अहंकार और जिद की पराकाष्ठा थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, ज़मीनी साम्राज्यवाद का दौर चला गया था। अब पूंजीवाद के रूप में एक नए प्रकार के साम्राज्यवाद का दौर शुरू हो गया था। युद्धों के कारणों में, आर्थिक कारण सबसे महत्वपूर्ण हो गए थे। तेल व्यापार पर एकाधिकार की जिद और लिप्सा ने इराक पर हमले की भूमिका तय कर दी। फिर लीबिया का नम्बर आया। निशाना तो ईरान भी था और अब भी है, पर अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की जो दुर्गति हुयी, उससे अमेरिका के युद्धाभियान को फिलहाल ठंडा कर रखा है। एशिया में अमेरिकी दखल जिस तरह से बढ़ रहा था, उससे रूस, जो एक समय अमेरिका का प्रबल प्रतिद्वंद्वी रह चुका है, का असहज होना स्वाभाविक भी है। कोसोवो के मामले में नाटो की आक्रामकता (अर्थात् अमेरिकी आक्रमण) को अवैध तो कहा गया था, पर इसे भी येनकेन प्रकारेण उचित ठहराने का दावा किया गया था। उदाहरण के लिए, रिचर्ड गोल्डस्टोन की अध्यक्षता में कोसोवो पर गठित अंतर्राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट देखें। उसमे कोसोवा पर हमले के दौरान बमबारी के औचित्य को यह कह कर सिद्ध किया गया कि यह बमबारी कोसोवा में चल रहे अत्याचारों को समाप्त करने के लिए की गई। कोसोवो युद्ध, (1998-99) कोसोवो में जातीय अल्बानियाई और यूगोस्लाव सरकार (पिछले संघीय राज्य की दुम, सर्बिया और मोंटेनेग्रो के गणराज्यों से मिलकर) के बीच का संघर्ष था। इस संघर्ष ने दुनिया भर का ध्यान खींचा, और अंततः उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन के हस्तक्षेप (नाटो) के दखल के बाद, यह समस्या सुलझी। अल्बानियाई और सर्ब के बीच कोसोवो में तनाव बराबर जारी रहा। उदाहरण के लिए, मार्च 2004 में कोसोवो के कई शहरों और गांवों में सर्ब विरोधी दंगे भड़क उठे। यह मामला अलग तरह का था।

अपनी आक्रामकता के लिए कानूनी औचित्य की पेशकश करने के पुतिन के प्रयास के बारे में पूछने पर, नोआम चोम्स्की कहते हैं,” कहने के लिए कुछ भी नहीं है।  इसका गुण शून्य है। घटनाओं के परिणाम होते हैं;  हालाँकि, तथ्यों को सैद्धांतिक प्रणाली के भीतर भी छुपाया जा सकता है। शीत युद्ध के बाद की अवधि में अंतरराष्ट्रीय कानून और परस्पर प्रतिद्वंद्विता की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया।  यहां तक ​​कि शब्दों में भी कोई बदलाव नहीं दिखा, ऐक्शन की तो बात ही छोड़ दीजिए।”

राष्ट्रपति क्लिंटन ने तो यह स्पष्ट रूप से कह दिया था कि ‘अमेरिका का कोई इरादा, इसका पालन करने का नहीं था।  क्लिंटन सिद्धांत की घोषणा की कि ‘यूएस. “आवश्यक होने पर एकतरफा रूप से” कार्य करने का अधिकार सुरक्षित रखता है, जिसमें “सैन्य शक्ति का एकतरफा उपयोग” भी शामिल है ताकि “प्रमुख बाजारों, ऊर्जा आपूर्ति और सामरिक संसाधनों तक निर्बाध पहुंच सुनिश्चित करने” जैसे महत्वपूर्ण हितों की रक्षा की जा सके। इसका मतलब क्या यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि, अंतरराष्ट्रीय कानून का कोई मूल्य नहीं है या इसकी सीमाएं है, और यह कुछ ही मामलों में एक उपयोगी मानक है ? या यह मान लिया जाय कि, कानून कमजोरों के लिए होता है। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण पर निर्मम तथ्य है कि विजेता का तर्क अलग होता है। हमलावर का तर्क अलग होता है। आक्रामक मानसिकता का तर्क अलग होता है। यह सारे तर्क अहंकार में लिपटे होते है। यह मेमने और भेड़िये की एक पुरानी और लोकप्रिय कहानी में दिए गए भेड़िये की तर्क की तरह होता है कि उसके लिए झरने के पानी को मेमने ने जूठा कर दिया था !

इस बीच ताज़ी खबरों के अनुसार, अमेरिकी खुफिया अधिकारियों का आकलन है कि ‘यूक्रेन पर हमले में दो दिन में ही सफलता मिलने की उम्मीद कर रहे रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन अब तक युद्ध जारी रहने और अपेक्षाकृत सफलता न मिलने पर खफा और निराश हैं और ऐसे में वह यूक्रेन में और अधिक हिंसा और विनाश कर सकते हैं। रूसी राष्ट्रपति यूक्रेन में संघर्ष को और बढ़ाएंगे। रूस अभी भी भारी सैन्य क्षमता रखता है और हफ्तों तक देश पर बमबारी कर सकता है।’ पिछले सप्ताह कांग्रेस के समक्ष खुफिया अधिकारियों ने खुले तौर पर यह चिंता व्यक्त की थी कि, पुतिन क्या कर सकते हैं, और ये चिंताएं इस बारे में, अनेक चर्चाओं को तेजी से आकार दे रही हैं कि अमेरिकी नीति निर्माता यूक्रेन के लिए क्या करने को तैयार हैं। रूस में नियुक्त रह चुके अमेरिकी राजदूत बर्न्स जो कई बार पुतिन से मिल चुके हैं। उन्होंने रूसी राष्ट्रपति की मानसिक स्थिति के बारे में एक सवाल के जवाब में अमेरिका के सांसदों से कहा कि ‘उन्हें नहीं लगता कि पुतिन मूर्ख हैं। उन्होंने कहा, ‘‘मुझे लगता है कि पुतिन अभी गुस्से में हैं और निराश हैं।”

दुनिया मे कोई भी युद्ध लगातार नहीं चल सकता है और अब न उन युद्धों का जमाना ही रहा कि किसी एक पक्ष की सेना घुटने टेक दे। खासकर ऐसे युद्धों में जब उसकी डोर कहीं और से नियंत्रित हो रही हो। युद्ध से क्षत विक्षत होकर, घाव सहलाते हुए बातचीत की मेज पर बैठना ही पड़ता है। हालांकि नाटो ने, जितनी यूक्रेन ने उम्मीद की थी, कि वह, यूक्रेन के समर्थन में प्रत्यक्ष युद्ध में उतर जाएगा, ऐसा तो नहीं हुआ, पर अमेरिका और ब्रिटेन सहित पश्चिमी ब्लॉक ने अपना चिर परिचित कदम आर्थिक प्रतिबन्धों का ज़रूर उठा लिया। लेकिन इसका अभी तक बहुत असर रूस पर नहीं पड़ा है। दिक्कत यह भी है कि, इन प्रतिबन्धों का असर रूस के साथ साथ यूरोपीय देशों को भी भुगतना पड़ सकता है। प्रतिबंधो के बावजूद, रूस से यूरोप में तेल व गैस का आयात खूब चल रहा है। 24 फ़रवरी से अब तक 15 अरब यूरो का भुगतान हो चुका है। इसे भी अमेरिकी खेमे की विफलता के रूप में देखा जा सकता है।

आक्रमण के बाद जो विकल्प अब बचे हैं, वे भी कम गंभीर नहीं हैं।  कम से कम अब उन राजनयिक विकल्पों की तलाश की जानी चाहिए, जिससे यह युद्ध समाप्त हो और शांति स्थापित हो। नोआम चोम्स्की कुछ विकल्प भी सुझाते हैं। जैसे, यूक्रेन की ऑस्ट्रियाई शैली का तटस्थीकरण, मिन्स्क द्वितीय संघवाद का कुछ संस्करण। पर लंबे  समय से रूस अमेरिका के बीच परस्पर बढ़ रहे अविश्वास के वातावरण में, ब्लादिमीर पुतिन और जो बाइडेन के बीच गम्भीरता से हल ढूंढने के लिए कोई बातचीत हो पायेगी, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।

इस बीच, हमें उन लोगों के लिए सार्थक समर्थन प्रदान करने के लिए कुछ भी करना चाहिए जो क्रूर हमलावरों के खिलाफ अपनी मातृभूमि की रक्षा कर रहे हैं। जो भयावहता से बच रहे हैं, और हजारों साहसी रूसियों के लिए सार्वजनिक रूप से अपने राज्य के अपराध का बड़े व्यक्तिगत जोखिम पर विरोध कर रहे हैं। हमें पीड़ितों के अधिक व्यापक वर्ग की मदद करने के तरीके खोजने का भी प्रयास करना चाहिए। यह तबाही ऐसे समय में हुई जब सभी महान शक्तियां एक साथ मिल कर, पूरी दुनिया में पर्यावरण के विनाश के समक्ष आये एक बड़े संकट को नियंत्रित करने के लिए एक साथ काम कर रही हैं।

ऐसा लगता है कि रूसी आक्रमण का उद्देश्य ज़ेलेंस्की सरकार को गिराना और उसके स्थान पर एक रूसी समर्थक सरकार स्थापित करना है। लेकिन यूक्रेन की सबसे बड़ी विफलता यह रही है कि वह न तो, नाटो को समझ पाया और न ही पश्चिमी ब्लॉक के कुटिल साम्राज्यवादी चरित्र को। कूटनीति के खेल में परम स्वार्थ चलता है और अपने देश का हित सर्वोपरि है, यह मूल बोध वाक्य होता है। शब्दों में भी और भावनाओं में भी। मुझे लगता है, अमेरिका को शुरू में अंदाज़ा ही नहीं रहा होगा कि पुतिन की इतनी आक्रामक प्रतिक्रिया होगी। पुतिन एक खुफिया पृष्ठभूमि के कमांडो से राजनीति में आये व्यक्ति हैं। जिस तरह से उन्होंने खुद को रूस का आजीवन सर्वेसर्वा घोषित कर दिया यह उनके अलोकतांत्रिक और एकाधिकारवादी मस्तिष्क को इंगित करता है। रूस के ठीक बगल में स्थित और रूसी संस्कृति से प्रभावित यूक्रेन के राष्ट्रपति कैसे अपने मज़बूत पड़ोसी का मनोवैज्ञानिक अध्ययन नहीं कर सके, यह हैरानी की भी बात है और उनकी कूटनीतिक विफलता भी। हालांकि पश्चिमी ब्लॉक्र ब्रिटेन में लेबर पार्टी सहित मुख्यधारा के विपक्षी दलों और कॉरपोरेट मीडिया ने समान रूप से रूस विरोधी अभियान भी शुरू किया है। इस अभियान के लक्ष्यों में न केवल रूस के कुलीन वर्ग बल्कि संगीतकार, बुद्धिजीवी और गायक और यहां तक ​​​​कि फुटबॉल मालिक जैसे चेल्सी एफसी के रोमन अब्रामोविच भी शामिल हैं। आक्रमण के बाद 2022 में रूस को यूरोविज़न से भी प्रतिबंधित कर दिया गया है। क्या यह वही प्रतिक्रिया है जो कॉरपोरेट मीडिया और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने आम तौर पर इराक के आक्रमण और उसके बाद के विनाश के बाद यू.एस. के प्रति प्रदर्शित की थी।

यह कहना मुश्किल है कि इस युद्ध की राख कहाँ कहाँ तक गिरेगी। चीन फिलहाल इसे शांत होकर देख रहा है। वैसे भी चीन की कूटनीतिक चालें अक्सर चौकाने वाली रहती हैं। कुछ हफ़्ते पहले अर्जेंटीना को बेल्ट एंड रोड योजना के भीतर शामिल करते हुए, अपने, प्रतिद्वंद्वियों को देखते हुए, अपनी विस्तृत वैश्विक प्रणाली के भीतर दुनिया के अधिकांश आर्थिक एकीकरण के अपने व्यापक कार्यक्रम को आगे बढ़ाने की कोशिश में वह लंबे समय से लगा ही हुआ है। फिलहाल वह जाहिरा तौर पर किसी की भी तरफ नहीं है, पर यह बात बिल्कुल सच है कि उसे अमेरिका और रूस में चुनना होगा तो वह रूस की तरफ नज़र आएगा। भारत ने फिलहाल एक तटस्थ दृष्टिकोण अपना रखा है। जैसा कि नोआम चोम्स्की ने पहले ही कहा है कि, “यह युद्ध लम्बा चला तो, यह मानव प्रजातियों के लिए एक डेथ वारंट है, जिसमें कोई विजेता नहीं है।  हम मानव इतिहास में एक महत्वपूर्ण बिंदु पर हैं।  इसे नकारा नहीं जा सकता।  इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।” (साभार : जनचौक)

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