बगिया सूखी प्रेम की, मुरझाया है स्नेह ।
रिश्तों में अब तप नहीं, कैसे बरसे मेह ।।
आकर बसे पड़ोस में, ये कैसे अनजान ।
दरवाजे सब बंद है, बैठक हुई वीरान ।।
बुझ पाए कैसे भला, ये नफरत की आग ।
बस्ती-बस्ती गा रही, फूट-कलह के राग ।।
खींच रहे हर रोज हम, नफरत की दीवार ।
पनपे कैसे सोचिये, आपस में अब प्यार ।।
भान प्रेम का है नहीं, ईर्ष्या आठों याम ।
कैसे जीवन में मिले, ‘सौरभ’ सुख आराम ।।
बड़े बात करते नहीं, छोटों को अधिकार ।
चरण छोड़ घुटने छुए, कैसे ये संस्कार ।।
सोच-कर्म अब है नहीं, धरती के अनुकूल ।
‘सौरभ’ कैसे अब खिले, रंग-बिरंगे फूल ।।
चोर-उचक्के माफ़िये, बैठे जिस दरबार ।
सच्चाई का फिर वहाँ, कैसे हो सत्कार ।।
ये भी कैसा दौर है, कैसे सोच-विचार ।
घड़ा कहे कुम्हार से, तेरा क्या उपकार ।।
(सत्यवान ‘सौरभ’ के चर्चित दोहा संग्रह ‘तितली है खामोश’ से। )