चरण सिंह
आज प्रथम स्वतंत्रता की नायिका महारानी लक्ष्मीबाई की जयंती है। आज के दिन झांसी के महारानी लक्ष्मीबाई कॉलेज के अग्निकांड पर लिखना पड़ रहा है। बात यह नहीं है कि स्पेशल चाइल्ड केयर यूनिट में आग कैसे लगी। बात यह है कि इस अग्निकांड में विभिन्न परिवारों के भविष्य १२ नवजातों की जान गई है। समझ सकते हैं कि इस हादसे से कितनी बड़ी सामाजिक क्षति हुई है। ऐसा भी नहीं है कि यह पहला अग्निकांड है। इस तरह के अग्निकांड देश में लगातार देखने को मिल रहे हैं। देखने और समझने की बात यह है कि इस तरह के हादसों पर राजनीति तो होती है पर लोगों पर इसका कोई असर नहीं होता। शासन और प्रशासन के लोग तो संवेदनहीन बने हुए ही हैं। उत्तर प्रदेश के राजनीतिक दलों को भी उप चुनाव से फुर्सत नहीं है। मामले को राजनीतिक रूप से भुनाने के लिए विपक्ष ने जरूर इस मामले को उठाया है। झांसी हत्याकांड जैसे मामलों को लेकर आम लोगों की ओर से भी संवेदनशीलता का कोई ऐसा संदेश देखने को नहीं मिलता कि यह माना जाए कि लोगों में इंसानियत अभी जिंदा है। अभी किसी पार्टी का नेता या कोई बाबा मर जाए तो देश का एक बड़ा तबका बवाल मचा देगा पर जब झांसी अग्निकांड जैसे मामले होते हैं तो लोग जैसे सो जाते हैं। लोग यह समझने को तैयार नहीं कि यदि इस तरह के मामलों के खिलाफ खड़ा न हुआ गया तो आने वाले समय में इस तरह के हादसों में और वृद्धि हो सकती है।
दरअसल समाज में देखने को मिल रहा है कि लोग नेताओं और बाबाओं के हाथों इस्तेमाल हो रहे हैं। समाज से जुड़े और जनहित के मुद्दों पर लोग उदासीन बने हुए हैं। देश और समाज के प्रति यह संवेदनहीनता आने वाले समय में घातक साबित हो सकती है। देखने में आ रहा है कि किसी के मरने या बीमार होने से किसी को कोई असर नहीं पड़ रहा है। लोग एक अनजाने रास्ते पर दौड़े चले जा रहे हैं। कोई हिन्दुत्व के नाम पर इस्तेमाल हो रहा है तो कोई मुस्लिम के नाम पर। कोई पीडीए के नाम पर इस्तेमाल हो रहा है तो कोई जातिवाद के नाम पर।
देश और समाज से जुड़े मुद्दों को लेकर लोग गंभीर नहीं हैं। झांसी हत्याकांड को लेकर जांच कमेटी बनाई गई है। जांच चल रही है। बयान लिये जा रहे हैं। क्या होगा ? ढाक के तीन पात। अभी धर्म के नाम पर कोई मामला हो जाता तो लोग एक दूसरे को मारने और मरने को तैयार हो जाते। किसी की लापरवाही, भ्रष्टाचार, मक्कारी से कोई हादसा हो रहा है। उस ओर लोग गंभीर नहीं हो रहे हैं। इस ओर प्रयास नहीं किये जा रहे हैं कि आखिरकार कैसे झांसी जैसे अग्निकांड रुकें। कैसे जमीनी मुद्दों पर लोग गंभीर हों।
गांवों में तो अभी भी थोड़ी बहुत मानवता है। शहरों में तो पड़ोस में मुर्दा पड़ा रहता है और लोग जश्न मना रहे होते हैं। उन्हें इस बात से मतलब नहीं है कि पड़ौसी पीड़ा में हैं। उन्हें तो बस अपना शौक पूरा करना है। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि कल उनके साथ भी ऐसा हो सकता है। जब पड़ौसी जश्न मनाएंगे तो उनके दिल पर क्या गुजरेगी। दूसरों की पीड़ा में आनंद लेने वाले लोग एक दूषित समाज तैयार कर रहे हैं, जिसमें दुख ही दुख हैं। जिसमें मक्कारी ही मक्कारी है। जिसमें संवेदनहीनता ही संवेदनहीनता है। यदि ऐसे समाज का निर्माण हो रहा है तो फिर इस समाज से किसी के भले की क्या उम्मीद की जा सकती है। समाज कैसे संवेदनशील हो। कैसे झांसी जैसे अग्निकांड रुके ? इस ओर प्रयास बहुत जरूरी है।