रवींद्र गोयल
नई दिल्ली। अगले साल होने वाले राज्य चुनावों के मद्देनज़र ही सही, राजस्थान सरकार ने इस बजट में जनवरी 2004 से बहाल सरकारी करमचारियों के लिए नयी पेंशन योजना के अंतर्गत पेंशन देने की जगह पुरानी पेंशन देने की घोषणा की है। अभी खबर आ रही है कि हिमाचल प्रदेश में लाखों कर्मचारियों ने पुरानी पेंशन योजना की बहाली को लेकर सारे बैरिकेट तोड़ते हुए विधानसभा का घेराव कर दिया, लेकिन जबसे राजस्थान सरकार ने यह घोषणा की है कुछ बुद्धिजीवियों, विशेषज्ञों ने इसकी तीखी आलोचना शुरू कर दी है। इनके द्वारा इस घोषणा के विरोध का कारण यह भी है कि राजस्थान तो महज शुरुआत है। नयी पेंशन योजना की अनिश्चित पेंशन राशि के भुगतान आश्वासन के मुकाबले निश्चित भुगतान के आश्वासन वाली पुरानी पेंशन योजना के पक्ष में मुखर आवाजें देश भर में पहले से ही उठ रही थीं। और भविष्य में यदि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार आती है तो संभव है वहां भी पुरानी पेंशन योजना लागू हो जाये। और ऐसी भी ख़बरें आ रही हैं कि शायद छत्तीसगढ़ की सरकार भी इसी दिशा में सोच रही है।
Indian Express अख़बार ने तो इस फैसले की आलोचना में सम्पादकीय ही लिख दियाहै। दो (2)* कलम घिस्सू विशेषज्ञों ने इस फैसले पर ‘राजकोषीय तबाही’ का फतवा भी जारी कर दिया है (1)*। ये विशेषज्ञ क्या कहते हैं और उनकी सोच कहाँ तक सही है उनके उनके चिंतन का वैचारिक आधार क्या है और जनपक्षधर ताकतों का इस सवाल पर क्या रुख होना चाहिए आदि सवालों पर चर्चा करने से पहले आइये समझते हैं कf ये दोनों योजनायें क्या हैं?
पुरानी पेंशन योजना को पूर्व निर्धारित पेंशन योजना कहते हैं (Defined Pension Benefit Schemes (DPBS)। इस योजना के अंतर्गत कर्मचारी सेवा निवृति के उपरांत अपनी सेवानिवृति के समय मिलने वाले वेतन पर आधारित एक निश्चित दर से पूरी ज़िन्दगी पेंशन पाने का हक़दार होता है। और उसकी मृत्यु के उपरांत पेंशन प्राप्तकर्ता के पति या पत्नी को भी पेंशन मिलती है। इसके विपरीत नयी पेंशन योजना ( New Pension Scheme(NPS) ) में नियोक्ता या काम पर रखने वाला मालिक काम के दौरान ही निश्चित योगदान करके अपनी पेंशन की जिम्मेवारी से मुक्ति पा लेता है।
इस पैसे को निर्धारित नियमों के अनुसार शेयर बाज़ार में लगाया जायेगा और उससे जो भी लाभ होगा उससे सेवानिवृति के बाद कर्मचारी को पेंशन दी जाएगी। वो कम हो या ज्यादा इससे पेंशन देने के लिए जिम्मेवार नियोक्ता का कोई सरोकार नहीं रहेगा।
हिंदुस्तान में सरकारी करमचारियों को अधिकारिक तौर पर पेंशन उपलब्ध है। 1990 में नवउदारवादी आर्थिकी के स्वीकार करने के बाद ही पेंशन सुधार के नाम पर पूर्व निर्धारित पेंशन योजना को त्यागकर उसके बदले नयी पेंशन योजना लागू करने का दबाव सरकार पर बना हुआ था।
दुनिया में टैक्स आधारित सरकारी खजाने से दी जाने वाली पेंशन योजना को रद्द कर उसके बदले शेयर बाज़ार में पेंशन फंड्स के निवेश द्वारा मिली आय से ही पेंशन का भुगतान आज के दौर में प्रभावी नवउदारवादी आर्थिकी का एक आवश्यक स्तम्भ है।
इस परिवर्तन के द्वारा सरकारी खजाने पर आर्थिक दबाव कम होगा और भविष्य में ही सही पूंजपतियों को सरकारी खजाने से सुविधाएँ लेना आसान होगा। इसके आलावा वित्तीय पूँजी को शेयर बाज़ार को ऊँचा करने और इसमें प्रभावी लोगों के हित साधन के लिए शेयर बाज़ार में उलटफेर करने के लिए विशाल धनराशी का एक ऐसा महत्वपूर्ण स्रोत मिल जाता है जिसको वो अपनी सुविधा अनुसार इस्तेमाल कर सकते हैं।
लेकिन यह फैसला तुरंत लागू न किया जा सका। अटल बिहारी की सरकार नयी पेंशन योजना 01-01-2004 से ही या उसके पश्चात केन्द्र सरकार की सेवा में भर्ती कर्मचारियों के लिए अनवार्य रूप से लागू कर पाई। इस फैसले में सशस्त्र बलों को छोड़ दिया गया। शायद नयी पेंशन योजना में होने वाले अनिश्चित पेंशन राशि के भुगतान आश्वासन की वजह से सरकार उनके विरोध का जोखिम लेने को तैयार नहीं थी। केंद्र सरकार ने नई पेंशन योजना को राज्यों के लिए अनिवार्य नहीं किया था। इसके बावजूद धीरे-धीरे अधिकतर राज्यों ने इसे अपना लिया। फिलहाल पश्चिम बंगाल को छोड़कर सभी राज्य ने नयी पेंशन योजना को अपना लिया है।
सेवानिवृत करमचारियों को पुरानी पेंशन न देने की दुहाई मुख्यतः इस तर्क पर दी जाती है कि इस योजना का बोझ बर्दाश्त करना सरकारी क्षमता से बाहर है। केंद्रीय रिज़र्व बैंक के अनुसार 20-21 में सरकारी खजाने पर (केंद्र और राज्य सरकार दोनों को मिला कर) पेंशन का भार 3।86 लाख करोड़ था। और भविष्य में यदि पुरानी पेंशन योजना चलती रहती है तो यह भार और भी बढेगा। ऊपर चर्चित कलम घिस्सू विशेषज्ञ जिन्होंने पुरानी पेंशन योजना पर ‘राजकोषीय त्ताबाही’ का फतवा चस्पा किया है का तर्क यह भी है कि पुराने पेंशन निज़ाम के चलते राज्य सरकारों को उपलब्ध धन का बड़ा हिस्सा केवल वेतन और पेंशन में ही खर्च हो जाता है तथा अन्य विकास कार्यों के लिए पैसा बचता ही नहीं है।
नवउदारवादी आर्थिकी का जन विरोधी चरित्र तो जग उजागर है पर धन के आभाव का पुरानी पेंशन योजना को त्यागने का तर्क कितना लचर है उसे तथ्यों का आलोक में भी समझा जा सकता है। इस देश की राष्ट्रीय आय करीबन 200 लाख करोड़ रूपया है जिसमें करीबन 35 लाख करोड़ केंद्र और राज्य सरकार दोनों के खजाने में टैक्स क रूप में आता है (2)। इस कुल राशि में से 3।86 लाख करोड़ की पेंशन देनदारी ( यानी कुल टैक्स आय का मात्र 10 प्रतिशत) को भारी बोझ या राजकोषीय तबाही कहना बौद्धिक बेईमानी और मक्कारी नहीं तो क्या है।
न जाने क्यों मुक्तिबोध के शब्दों में ‘रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध’ इन विशेषज्ञों की कलम को यह बताते हुए जंग भी लग जाता है कि दुनिया में हमारे जैसे अन्य देशों कि tax GDP ratio 20।9 प्रतिशत है जबकि हमारे देश में यह अनुपात 17।1 प्रतिशत ही है।
यानि यदि हम अपने देश में टैक्स चोरी को ख़त्म कर दे और अपने जैसे देशों जितना ही टैक्स हम भी लगायें तो आसानी से 8 लाख करोड़ रुपये का, आज की पेंशन की देनदारी से दोगुना अतिरिक्त टैक्स आसानी से जुटा सकते हैं। और विश्व स्तर के आंकड़े देखें तो पाएंगे की यूरोप के कई देशों में tax GDP ratio 40 प्रतिशत है।
यानि कि हम अपने देश में जन हितैषी कार्यों के लिए पैसा आसानी से जुटा सकते हैं यदि हुक्मरानों की नीयत सही हो और नेता लोग धन कुबेरों की दलाली छोड़ें। संक्षेप में कहें तो राजस्थान सरकार का पुरानी पेंशन बहाल करने का फैसला किसान आन्दोलन की तरह नवउदारवादी आर्थिक चिंतन के बढ़ते क़दमों में एक महत्वपूर्ण अवरोध खड़ा कर सकता है और यह जन हितैषी फैसला है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।
अब देखना यह दिलचस्प होगा की कांग्रेसी मुख्यमंत्री अपने संगठन कि नवउदारवादी आर्थिकी के प्रति प्रतिबद्धता के बावजूद इस फैसले को कहाँ तक लागू कर पाते हैं। (साभार : वर्कर्स यूनिटी)