दीपक कुमार तिवारी
पटना/नई दिल्ली। बिहार अभी विकसित राज्यों में शुमार नहीं हुआ है। निर्माण के क्षेत्र में तकनीकी रूप से पिछड़ा हुआ है तो भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डूबा हुआ भी है। ताश के पत्तों की बनी महल जैसा निर्मित कोई पुल या भवन भरभरा कर गिरता है तो आश्चर्य नहीं होता। वो इसलिए कि घटिया सामग्री के इस्तेमाल का लगातार विरोध होता है। सचेत करने वाले जनप्रतिनिधि के लाख शिकायत के बावजूद सुनवाई नहीं होती। कान में तेल देकर बिहार सरकार सोई रहती है। सुल्तानगंज अगुआनी पुल और अररिया के बकरा नदी पर बन रहे पुल का गिरना स्वीकार भी करता है। अब तो दिल्ली की इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की बिल्डिंग भी खून पीने लगी है।
तो ‘माननीय’ ये मान लें कि भ्रष्टाचार की गंगोत्री को कन्याकुमारी से कश्मीर तक बहने की इजाजत मिल चुकी है?
माननीय! जरा सोचिए कि विश्व के टॉप टेन में शामिल इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे (टर्मिनल- 1) की बिल्डिंग ठीक उसी तरह गिरती है, जैसे बिहार में गिर जाते हैं पुल। हैरत तो ये है कि टॉप टेन में शामिल इस एयरपोर्ट की दीवार, पिलर या कि छतें बारिश का एक झोंका नहीं झेल सकी। दिल्ली एयरपोर्ट का टर्मिनल-1 का एक हिस्सा बारिश की वजह से टूटा क्योंकि छत पर पानी भरने की वजह से छत भारी हो गई। हवा के झोंके से छत में लगे सपोर्टिंग पिलर टूट गए।
सवाल उठता है कि क्या विश्व के कई एयरपोर्ट को टक्कर देने वाले इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा टर्मिनल-1 की छतों से पानी निकासी का साधन नहीं था? आखिर ऐसी क्या वजह रही होगी कि वर्षा के पानी का बोझ भी इस एयरपोर्ट का पिलर थाम नहीं पाया? हवा और वर्षा के झोंके ने केवल अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट को ही ध्वस्त नहीं किया ये तो उस सोच पर भी पूर्ण विराम है, जहां से विश्व गुरु बनने का सपना संजोए बैठे हैं। सवाल तो ये भी है कि इस तरह कि यह कोई अकेली घटना नहीं है, जहां आपको निर्मित भवन के दुरुस्तगी को आंकने का मौका नहीं मिला।
जबलपुर, असम और अंडमान के एयरपोर्ट पर आपदा के कारण ही ऐसी ही घटना घटी। मगर माननीय, उन घटनाओं से सबक लिया होता तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अभी थू-थू नहीं होती।बिहार में पुल और भवन गिरने का तो ठीकरा भी मौसम की बेरुखी से अक्सर जोड़ दिया जाता रहा है। कभी नदी ने धार बदल दी, अचानक से भारी मात्रा में नेपाल से पानी छोड़ दिया गया और कभी-कभी तो बांध के टूटने का कारण भी ये बता दिया जाता है कि चूहे ने मिट्टी कुरेद दी थी।
दिल्ली का अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा भी मौसम की मार पर कुर्बान हुआ।
हद तो ये है कि बिहार में घटिया सामान की वजह से पुल या भवन गिरने का ठीकरा नहीं फोड़ा गया। वो भी तब, जब जमीनी स्तर पर कई सूत्र अपने-अपने तरह से घटिया सामग्री के इस्तेमाल का आरोप लगाते रहे हैं। बिहार विधानसभा तो जनप्रतिनिधियों के आरोपों से भरा पड़ा है। खास कर पुल को लेकर बिहार के जनप्रतिनिधि ने सरकार का ध्यान आकृष्ट कराया था। जिसमें कहा गया था कि निर्माण कंपनी सही सीमेंट का इस्तेमाल नहीं करती।
अधिक राख वाली सीमेंट सही नहीं होते। सही अनुपात में सीमेंट और बालू का इस्तेमाल भी नहीं करती। भवन निर्माण में छड़ के उपयोग को लेकर शिकायतें आती रही हैं। कई बार तो जंग लगे छड़ का इस्तेमाल भवन निर्माण में जानलेवा हो जाता हैं।
जाहिर है सत्ता के आकाओं के पास कमेटी-कमेटी का खेल काफी पुराना और फुल प्रूफ जैसा है। बिहार में पुलों के गिरने के कारणों की जांच के लिए ऑडिट कमेटी बनाई गई है। इस ऑडिट कमेटी में इंजीनियर के अलावा विशेषज्ञ और स्थानीय पदाधिकारी होंगे।
ये कमेटी पुल के गिरने के कारणों का खुलासा तो करेगी। साथ ही वर्तमान में मौजूद सभी पुलों की भी गुणवत्ता की जांच करेगी। पुल की आयु भी तय करेगी।इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट टर्मिनल-1 के ध्वस्त होने की घटना की जांच के लिए भी कमेटी बनेगी। ये कमेटी भवन के गिरने के कारणों का खुलासा करेगी। संभव है निर्माण कंपनियों को काली सूची में डालने की प्रक्रिया शुरू होगी। या हो सकता है सुल्तानगंज अगुआनी पुल के निर्माण कंपनी को जिस तरह से बतौर खुद के खर्चे से पुल निर्माण करने का दंड सुनाया गया, वैसा ही कुछ हो।
लेकिन सच मानिए ये निर्माण कंपनी के लिए दंड की तरह नहीं है। काली सूची से उबरने के लिए कई कंपनियां पहले से बनाकर रखी जाती है। अपने खर्च पर निर्माण करने वाली कंपनियों के लिए आगे भी काम करने का रास्ता खुल जाता है।