दरअसल, इन वन्य जीवों के शिकारी जीवों के अंगों को अंतरराष्ट्रीय बाजार में इनकी मुंहमांगी कीमत मिलती है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में एक हाथी मारने की कीमत पच्चीस से साठ हजार, एक बाघ साढ़े आठ हजार से पचास हजार और तेंदुआ पंद्रह से पैंतीस हजार डॉलर तक है। दुर्भाग्यपूर्ण यह कि शौक के लिए शिकार यानी ट्राफी हंटिंग को अमेरिका समेत दुनिया के कई देशों ने मान्यता दे रखी है। ट्राफी हंटिंग में अमेरिकी शिकारी सबसे आगे हैं। पिछले एक दशक में दुनिया भर में ग्यारह हजार बाघों का शिकार किया गया जिनमें पचास फीसद बाघों को अमेरिकी शिकारियों ने मारा है। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन यह तर्क दे रहा है कि अगर कानूनी दायरे में ट्राफी हंटिंग हो तो वन्य जीवों के संरक्षण में मदद मिलेगी और जीवों की आबादी नियंत्रित होगी। साथ ही स्थानीय लोगों को आर्थिक फायदा भी पहुंचेगा। मगर यह दलील सही नहीं है। सबसे बड़ा सच यह है कि इससे वन्य जीवों की संख्या में कमी आएगी और पहले से ही लुप्त हो रहे जीवों का अस्तित्व मिट जाएगा।
प्रियंका सौरभ
एक वक्त था जब वन्यजीव हमारे ग्रामीण अंचलों में सवेरे-सवेरे जंगलों से निकलकर सड़कों पर और अन्य जगहों पर देखने मिल जाते थे लेकिन आज हमें अभ्यारण्यों और जंगलों में वन्यजीवों को देखने के लिए जाना पड़ता है। ध्यानतव्य है कि वर्तमान कल्प में शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने और सार्वजनिक स्थलों का नवीनीकरण करने के चक्कर में कहीं हम वनों को तबाह तो नहीं करते जा रहे? आज की दुनियाँ में मुसलसल टेक्नोलॉजी को इंसान करीबी बनाता जा रहा है और प्रकृति व वन्य जीवों से दूर होता जा रहा है।विश्व वन्यजीव कोष यानी डब्ल्यूडब्ल्यूएफ ने लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट 2022 जारी की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में निगरानी वाली वन्यजीव आबादी में साल 1970 से 2018 के बीच 69 प्रतिशत की भारी गिरावट दर्ज की गई है। ताजे पानी में रहने वाले जीवों की 83 प्रतिशत आबादी अब नहीं बची है। धरती की 70 प्रतिशत और ताजे पानी की 50 प्रतिशत जैव विविधता खतरे में है।
भारत की बात की जाए तो भारत में 12 प्रतिशत स्तनधारी वन्यजीव समाप्ति के कगार पर हैं। 40 प्रतिशत मधुमक्खियां पिछले 25 साल में खत्म हो चुकी है। ताजे पानी के कछुओं की 17 प्रजातियां खत्म हो गई है। 137 वर्ग किमी के सुंदरबन का इलाका 1985 के मुकाबले खत्म हो चुका है। इसका बड़ा हिस्सा भारत में है। जाहिर तौर पर यह दावे। यह आंकड़े चिन्ता में डालने वाले हैं। इसलिए मुद्दा आपका में आज हम बात वन्य जीवों के अस्तित्व पर मंडराते संकट की करेंगे। लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट के हर पहलु को समझने की कोशिश करेंगे कि वन्यजीवों की आबादी कम हो रही है तो क्यों हो रही है। हमने हमेशा देखा है कि विशेष लोग पर्यावरण में कमी का कारण आधुनिकता को देते हैं। लेकिन यह वास्तविकता से बहुत दूर है। हम आधुनिकता को पर्यावरणीय कमी का कारण नहीं बता सकते, लेकिन यह मानवीय व्यवस्था की कमी है जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं। मानव अस्तित्व के लिए पर्यावरण का होना आवश्यक है और इन पर्यावरण से संबंधित सभी तथ्य या तो वन्य जीवन हो या जंगली जानवर, पृथ्वी पर सभी का चलना आवश्यक है ताकि पर्यावरण में संतुलन बना रहे। आज समय आ गया है कि हमें पर्यावरण और आधुनिकता दोनों को साथ लेकर चलना चाहिए और इसमें हम सक्षम भी हैं। लेकिन सरकार की अनभिज्ञता के कारण अभी यह संभव नहीं है, लेकिन भविष्य में यह भी संभव होने की उम्मीद है.
मगर जैसा हाल आज वन और वन्य जीवों का दिख रहा है उससे प्रतीत होता है कि रफ्ता-रफ्ता इंसानों ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए वनोन्मूलन का कार्य किया है तथा इंसान आधुनिकीकरण की आड़ में वनों और वन्यजीव संरक्षण को विस्मृत करता जा रहा है। एक अनुमान के मुताबिक ज्यादातर वन्यजीवों का शिकार उनके मास को खाने कि लिए किया जा रहा है एवं वनों को काटकर उनके दरवाजे और फर्नीचर तथा घरेलू प्रथक-प्रथक वस्तुओं का निर्माण किया जा रहा है जिसके अस्बाब से वन कट रहे हैं और वन्यजीव घट रहें हैं। वनों के कटने से यह स्थिति पैदा हो रही है कि हमारे वन्यजीवों को मुनासिब आवास की व्यवस्था भी नहीं है जो उनके लिहाज से उन्हें उपयुक्त सुरक्षा प्रदान कर सके इसलिए हमारी अग्रता वन्यजीवों के लिए उपयुक्त आवास व्यवस्था और वन व वन्यजीव संरक्षण होनी चाहिए क्योंकि यही हमारे जीवन में स्वास्थ्य पर्यावरण के निर्माण के लिए नितांत अत्यावश्यक है।
औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण ने वनों को नष्ट कर दिया है। वन विभिन्न प्रकार के पक्षियों और जीवों की आश्रय स्थली हैं और जब इनके घरों पर मनुष्यों ने कब्ज़ा करके अपना घर बना लिया है तो वे अपना हिस्सा मांगने हमारे घरों में ही आएंगे। मानव-वन्यजीव संघर्ष भारत में वन्यजीवों के संरक्षण के लिये एक बड़ा खतरा है। वन कटान, पर्यावास की क्षति, शिकार (भोजन) की कमी और जंगल के बीचो-बीच से गुज़रने वाली अवैध सड़कें मानव-वन्यजीव संघर्ष के कुछ अहम कारण हैं। संरक्षित क्षेत्रों से होकर गुज़रने वाली सड़कों के कारण दुर्गम जंगलों तक भी पहुँचना मनुष्य के लिये आसान हो गया है। इससे शिकारी दल आसानी से वन्यजीवों को अपना शिकार बना लेते हैं।
आजकल शायद ही कोई दिन ऐसा जाता है, जब मानव तथा वन्यजीवों के बीच संघर्ष की खबर सुनने को नहीं मिलती। किसी स्थान पर किसी हिंसक जानवर ने बस्ती में आकर लोगों पर आक्रमण कर दिया होता है, तो कहीं लोग ऐसे जानवर को घेरकर मार देते हैं। मानव और वन्यजीवों के बीच होने वाला संघर्ष इधर कुछ वर्षों से बहुत अधिक बढ़ गया है। ऐसे में इनकी रोकथाम के साथ वन्य जीवों के हमलों की वज़ह और इन पर प्रभावी रोक के उपायों पर गौर करने की आवश्यकता बहुत अधिक है। वन्य जीवों के प्रति लोगों को जागरूक कर और वन विभाग के साथ लोगों को मॉक ड्रिल के ज़रिये तकनीकी जानकारियाँ उपलब्ध कराकर इस समस्या पर कुछ अंकुश लगाया जा सकता है। पर्वतीय क्षेत्रों में दावानल की घटनाओं की वज़ह से भी वन्यजीव मानव बस्तियों का रुख करते हैं और मारे जाते हैं। वन्यजीवों के हमले और फॉरेस्ट फायर को विशेष रणनीति के तहत रोका जाना अहम है। जब तक जंगल कटते रहेंगे, मानव-वन्यजीव संघर्ष को टालने की बजाय बचाव के उपाय करना ही संभव हो सकेगा। ऐसे में संघर्ष को टालने का सबसे बेहतर विकल्प है पर्यावरण के अनुकूल विकास अर्थात् ऐसी नीतियाँ बनाने की ज़रूरत है, जिससे मनुष्य व वन्यजीव दोनों ही सुरक्षित रहें।
दरअसल, इन वन्य जीवों के शिकारी जीवों के अंगों को अंतरराष्ट्रीय बाजार में इनकी मुंहमांगी कीमत मिलती है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में एक हाथी मारने की कीमत पच्चीस से साठ हजार, एक बाघ साढ़े आठ हजार से पचास हजार और तेंदुआ पंद्रह से पैंतीस हजार डॉलर तक है। दुर्भाग्यपूर्ण यह कि शौक के लिए शिकार यानी ट्राफी हंटिंग को अमेरिका समेत दुनिया के कई देशों ने मान्यता दे रखी है। ट्राफी हंटिंग में अमेरिकी शिकारी सबसे आगे हैं। पिछले एक दशक में दुनिया भर में ग्यारह हजार बाघों का शिकार किया गया जिनमें पचास फीसद बाघों को अमेरिकी शिकारियों ने मारा है। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन यह तर्क दे रहा है कि अगर कानूनी दायरे में ट्राफी हंटिंग हो तो वन्य जीवों के संरक्षण में मदद मिलेगी और जीवों की आबादी नियंत्रित होगी। साथ ही स्थानीय लोगों को आर्थिक फायदा भी पहुंचेगा। मगर यह दलील सही नहीं है। सबसे बड़ा सच यह है कि इससे वन्य जीवों की संख्या में कमी आएगी और पहले से ही लुप्त हो रहे जीवों का अस्तित्व मिट जाएगा।
(लेखिका रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)