योगेंद्र यादव
ट्रोल्स-सेना चढ़ आयी है, खतरा है कि कहीं ये ट्रोल्स-सेना हमारे गणतंत्र को रौंद ना डाले। यह सेना सार्वजनिक बहस-मुबाहिसे को पतन के गर्त में ढकेल चुकी है, इसने सामाजिक दायरे में होनेवाली बतकहियों में जहर घोला है और भारत की राष्ट्रीयता के लिए खतरा पैदा किया है। ट्रोल्स-सेना अपनी पूरे दमखम के साथ आगे बढ़ रही है—वह झूठ और फरेब का अपना साम्राज्य कायम करने पर आमादा है। यह सीधे-सीधे हमारी सभ्यता पर चोट है।
अब ट्रोल्स-सेना की बनायी झाँसापट्टी के सच को सबके सामने उजागर करने का वक्त आ चुका है। ‘ओह क्या हो रहा है ये सब’ और ‘आह,क्या होना था और क्या हो रहा है इस देश में’ जैसी बड़बड़ाबटों और झल्लाहटों से उबरते हुए अब वक्त आ चला है जब हम ट्रोल्स-सेना के सामने अपना प्रतिरोध खड़ा करें—यह वक्त सत्याग्रहियों की सेना यानी ट्रूथ-आर्मी बनाने का है।
यह कोई नेक खयाल भर नहीं—कोरी कामना भर नहीं। ट्रूथ-आर्मी बनाने का एक ठोस प्रस्ताव आपके सामने है। चाहे इस गणतंत्र के मुहाफिज तमाम जन आपस के सियासी भेद और वैर को पहले की ही तरह जारी रखें, मगर बस एक बात में वे एक हो जाएँ। इस गणतंत्र के रखवालों को एकजुट होकर मौजूदा सत्तातंत्र, उसके दरबारियों और दरबारियों के भी दरबारियों, उनके लगुओ-भगुओं के फैलाये झूठ की काट करनी होगी। आइए, इस एक मकसद के लिए एकजुट हो जाएँ और कोई ऐसा उपाय करें—मसलन, कोई थिंक टैंक बनाना या फिर कोई ऐसी टोली बनाना जो सोच और बता सके कि सत्तातंत्र के फैलाये झूठ की काट के लिए किस तरह की रणनीति संवाद-संचार के लिए कारगर रहेगी।
इस रणनीति पर सहमति बन जाती है तो फिर देश भर के सबसे उर्वर और रचनाशील मनो-मानस के कुछ लोगों को साथ जोड़कर ताकतवर संदेश गढ़े जा सकते हैं। ऐसे कारगर युक्ति-उपकरण होने चाहिए जिसके सहारे इन संदेशों को बहुविध चैनल और प्लेटफॉर्म से लोगों के बीच पहुँचाया जा सके। इस सिलसिले की आखिरी कड़ी के तौर पर एक काम और करना होगा—लाखों स्वयंसेवकों का नेटवर्क खड़ा करना होगा जो आम जन के बीच उनकी अपनी भाषा और मुहावरे में ये संदेश पहुँचाने में मददगार हो।
किसी बात, प्रसंग आदि की सच्चाई क्या है—इसे जाहिर करने के लिए सिर्फ सही-सही तथ्यों को खोजना और सामने लाना भर पर्याप्त नहीं। झूठ के पर्दाफाश के लिए सही आँकड़ों और तथ्यों को सामने लाना बेशक जरूरी होता है लेकिन ट्रोल्स-सेना पर अब तथ्य और आँकड़े असर नहीं करते, ट्रोल्स-सेना ने अपने को इस तरह से प्रतिरक्षित कर रखा है कि तथ्य और आँकड़े उसके ऊपर असर नहीं डाल पाते। हमें अनुभूत सच्चाई को सबके सामने लाने की जुगत करनी होगी—ऐसी सच्चाई को सामने लाना होगा जो हमारा भोगा हुआ हो, जिसका हमने खुद ही अनुभव किया हो। रोजमर्रा की चलताऊ बातों या फिर सुदूर अतीत की बातों के बारे में झूठ बोलना आसान होता है लेकिन जिन बातों का लोगों ने साक्षात अनुभव किया हो—जो बातें आँखिन देखी हों,उन्हें झुठलाना आसान नहीं होता।
लद्दाख में हमारे देश को जमीन गँवानी पड़ी है, मोदी सरकार ने इस तथ्य को अँधेरे में ढँक रखा है—इस अँधेरे को भेद पाना आसान नहीं। ऐसे ही, मोदी सरकार रोजगार बढ़ाने के दावे बढ़-चढ़कर करती रही है। कोविड महामारी के उभार के दिनों में कुप्रबंधन से लोगों की भारी संख्या में मौत हुई लेकिन मोदी सरकार ऐसी मौत की तादाद के बारे में भी झूठ बोलती रही है। मोदी सरकार के ऐसे मनगढ़न्त की काट करने का तरीका यह है कि जो कुछ हमारे जीवन में इन मामलों में गुजरा है, जो हमने भोगा और जाना है, उसे सीधी-सच्ची जबान में लोगों के सामने लाना। सिर्फ तथ्यों को सामने लाना काफी नहीं बल्कि इन तथ्यों को ऐसी कहानी में गूँथना-पिरोना जरूरी है जिससे लोगों के लगे कि कहानी में उनकी जिन्दगी की सच्चाई बयान हो रही है और विषय पर आगे सोचने का एक नजरिया मिल रहा है।
इस बात को लेकर बड़ी हवा बनायी गयी कि फिरोज़पुर में प्रधानमंत्री के जीवन को खतरा पैदा हो गया था लेकिन अगले दिन जो वीडियो सामने आए, उससे मनगढ़न्त के इस गुब्बारे की हवा निकल गयी। लेकिन बात सिर्फ ऐसे वीडियो डालने से नहीं बनती, आपको इस घटना का तारतम्य चुनाव के ऐन पहले हुई ऐसी ही घटनाओं से जोड़ना होगा, आपको 2002 के चुनावों से पहले अक्षरधाम-हमले की घटना तक जाना होगा। ऐसा करने पर ही लोगों के सामने यह उजागर हो पाएगा कि फिरोजपुर की घटना से लेकर अक्षरधाम हमले तक हुई बातों में एक निश्चित रिश्ता है।
जरूरत सिर्फ वस्तुनिष्ठ सच्चाई को सामने लाने की नहीं बल्कि हमें वस्तुनिष्ठ सच्चाइयों को अपनी भावनाओं के सच से जोड़ना होगा। सुल्ली डील्स या बुल्ली बाई ऐप सरीखी घटनाओं को अपराध-मात्र मानकर उनसे नहीं निबटा जा सकता; ऐसी घटनाएँ और भी आगे जाती हैं, ऐसी घटनाओं के शिकार भावना के धरातल पर गहरी त्रासदी से गुजरते हैं, साथ ही इन घटनाओं को अंजाम देनेवालों को भी भावनात्मक त्रासदी से गुजरना होता है। ऐसे मामलों में सच को सामने लाने का मतलब होता है, बातों को इस तरह रखना कि मानवीयता का घायल चेहरा सबके सामने आ सके—लोग ये सोच पायें कि ऐसी घटना उनकी बेटी के साथ हुई होती तो क्या होता या फिर ऐसी घटनाओं को अंजाम देनेवालों में उनका बेटा शामिल होता तो उन पर क्या गुजरती।
कहने का मतलब यह कि सिर्फ वस्तुनिष्ठ सच को सामने लाने से बात नहीं बनेगी। हमें सच को कहने के कई अन्य रूप अपनाने होंगे—जो हमारा भोगा हुआ सच है, वह कहना होगा, हमें अपने भाव-जगत के घटित को सामने लाना होगा और हमें ऐसी सच्चाइयों को युक्तिसंगत व्याख्या के साथ लोगों के सामने लाना होगा।
सत्य का एक सिद्धांत : किसी भी सेना की तरह सत्याग्रहियों की इस ट्रूथ आर्मी के लिए रणनीतिक सिद्धांत का होना जरूरी है। ट्रूथ आर्मी के लिए जरूरी है कि वह सत्य को अपना सिद्धांत माने और सबसे ताकतवर रणनीति भी। ट्रूथ-आर्मी को हरचंद सत्य बोलना होगा चाहे वो सत्य हमारे लिए कितना भी असुविधाजनक हो या फिर वो सच हमारे लिए मददगार साबित ना होता हो। ट्रूथ-आर्मी को तैयार रहना होगा कि वो जो भी सच्चाइयाँ सामने लाती है, उसकी सार्वजनिक रूप से जाँच-परख होगी। जिन लोगों पर जनता-जनार्दन का विश्वास चला आ रहा है वे किसी लोकपाल की भाँति ट्रूथ-आर्मी की सच-बयानियों की परीक्षा करेंगे। ट्रोल्स-सेना हमें रोजाना ही हिन्दू-मुस्लिम के द्वैत से बने मसलों में घसीट ले जाती है। उसका मकसद होता है कि चाहे लोगों की प्रतिक्रिया जो भी हो मगर जो आग उसने सुलगायी है उसकी आँच कायम रहे।
ऐसी सूरत में रणनीतिक चुनौती लड़ाई के मसले को पूरी तरह बदल डालने की है, चुनौती लड़ाई को ऐसे मसले पर केंद्रित करने की है कि ट्रोल्स-सेना हमलावर ना बनी रहे बल्कि वह अपने बचाव की लड़ाई करने को बाध्य हो जाए। ट्रोल्स और उनके आका पाठ-रचना (टेक्स्ट) और अँग्रेजी भाषा को लेकर कोई खास चिन्ता नहीं करते। इस नाते, ट्रूथ आर्मी को विजुअल्स (दृश्य सामग्री) की ताकतवर जुबान में अपनी बात रखनी होगी, न सिर्फ भारतीय भाषाओं में संवाद की सामग्री तैयार करनी होगी बल्कि इस सामग्री को बिलकुल लोगों के मुहावरे और बोलचाल में रचना होगा। ऐसी सामग्री में ट्रोल्स-आर्मी के झूठ के रचे ताने-बाने को नष्ट करने के लिए चुटकी, फब्ती, हास्य और व्यंग्य सबकुछ का इस्तेमाल होना चाहिए।
अभी तो पूरी दुनिया में सत्याभास (पोस्ट-ट्रूथ) का युग चल रहा है और इस युग के पीछे आँखों पर पट्टी बाँधकर चलनेवाले लोगों की पूरी फौज लगी है- क्या ऐसे वक्त में सच की राजनीति के लिए कोई गुंजाइश बची है? मुझे लगता है कि ऐसी गुंजाइश है।
सच की अहमियत कितनी ज्यादा है, इसे जानने के लिए हमें बस ट्रोल्स सेना के सहारे चलाये जा रहे दुष्प्रचार पर नजर डालनी होगी। क्या आपको याद आ रहा है कि लखीमपुर खीरी मामले में मीडिया के सहारे किस तरह झूठ परोसा गया? जब किसानों को कुचलकर गुजरते वाहनों के के वीडियो और संबंधित तथ्य सार्वजनिक जनपद में लाये गये तो ट्रोल्स-सेना अपने बचाव की लड़ाई में उतरने को मजबूर हुई। गौर कीजिए कि सरकार ने तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने और असुविधाजनक आँकड़ों को दबाने की कितनी कोशिश की। ऐसा करना पड़ा क्योंकि सच अब भी मायने रखता है। सड़कों पर आ जुटे किसानों के भावनात्मक सच ने मोदी सरकार को पूरे साल भर तक अपने कदम पीछे खींचे रखने पर मजबूर किया।
स्वयंसेवकों की सेना : ट्रूथ-आर्मी के लिए वीर कहाँ से जुटायें? क्या हमारे पास सत्याग्रहियों की ऐसी कोई जमात है? हाँ, हमारे पास निश्चित ही ऐसे लोग हैं। नजर घुमाकर जरा ये देखिए कि सोशल मीडिया पर रवीश कुमार के फॉलोअर्स की संख्या कितनी है। बड़े मीडिया प्रतिष्ठानों के घुटने टेकने के बाद हर राज्य और जिले में यूट्यूब पर छोटे-छोटे चैनल शुरू हुए हैं। इन चैनल्स के फॉलोअर्स की बड़ी तादाद है। जो बातें सीधे लोगों की जिन्दगी से जुड़ी हैं, उनके बारे में सच लोगों के लिए मायने रखता है। किसान-आंदोलन इस बात का प्रमाण है कि स्वयंसेवकों की एक बड़ी तादाद मौजूद है, उसे ट्रूथ-आर्मी में रखा जा सकता है।
आखिर सत्याग्रहियों के ऐसे एकट्ठ को आर्मी (सेना) का नाम क्यों दें?जो शांति-मना साथी हैं, उन्हें सेना शब्द के इस्तेमाल से कुछ चिन्ता लग सकती है। लेकिन, ऐसे साथियों को याद रखना होगा कि गांधीजी ने सांप्रदायिक हिंसा से लड़ने के लिए शांति-सेना खड़ी की थी। सच ये है कि हम युद्ध लड़ रहे हैं—अपने राष्ट्र और अपनी सभ्यता को बचाने का युद्ध। और इस धर्मयुद्ध को लड़ने के लिए आपके पास सेना होनी चाहिए।
चलते-चलते : प्रोफेसर जीएन देवी का सुझाव है कि ट्रूथ आर्मी न कहकर ट्रोथ-आर्मी शब्द का व्यवहार करना चाहिए। ट्रोथ एक पुरानी और चलन से बाहर हो चली अभिव्यक्ति है। मुझे इसके लिए शब्दकोश (डिक्शनरी) देखना पड़ा। ट्रोथ के मायने होते हैं वादा, प्रतिज्ञा या शपथ। आजादी के पचहत्तरवें साल में हमें नियति से अपनी पूर्व-निर्धारित भेंट के लिए शायद ट्रोथ-आर्मी की जरूरत है। (समता मार्ग साभार)