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लाज-धर्म की डोर

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सत्यवान ‘सौरभ’

चीरहरण को देख कर, दरबारी सब मौन ।
प्रश्न करे अँधराज पर, विदुर बने वो कौन ।।

राम राज के नाम पर, कैसे हुए सुधार ।
घर-घर दुःशासन खड़े, रावण है हर द्वार ।।

कदम-कदम पर हैं खड़े, लपलप करें सियार ।
जाये तो जाये कहाँ, हर बेटी लाचार ।।

बची कहाँ है आजकल, लाज-धर्म की डोर ।
पल-पल लुटती बेटियां, कैसा कलयुग घोर ।।

वक्त बदलता दे रहा, कैसे-कैसे घाव ।
माली बाग़ उजाड़ते, मांझी खोये नाव ।।

नज़र झुकाये लड़कियां, रहती क्यों बेचैन ।
उड़ती नींदें रात की, मिले न दिन में चैन ।।

मछली जैसे हो गई, अब लड़की की पीर ।
बाहर सांसों की पड़ी, घर में दिखे अधीर ।।

लुटती हर पल द्रौपदी, जगह-जगह पर आज ।
दुश्शासन नित बढ़ रहे, दिखे नहीं ब्रजराज ।।

घर-घर में रावण हुए, चौराहे पर कंस ।
बहू-बेटियां झेलती, नित शैतानी दंश ।।

वहीं खड़ी है द्रौपदी, और बढ़ी है पीर ।
दरबारी सब मूक हैं, कौन बचाये चीर ।।

छुपकर बैठे भेड़िये, लगा रहे हैं दाँव ।
बच पाए कैसे सखी, अब भेड़ों का गाँव ।।