देवरिया की बंद चीनी मिलों की दास्तान: चिमनियों के धुएं के साथ गायब हो गई जिले की रौनक

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देवरिया की बंद चीनी मिलों की दास्तान
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जितेंद्र उपाध्याय 
गौरीबाजार (देवरिया)। कभी यहां की चिमनियों से हर पल धुआं निकलता रहता था। चहल-पहल के बीच सायरन की आवाज कस्बे के लोगों के लिए किसी टाइम मशीन से कम नहीं थी। ये रौनक अब गायब हो चुकी है। विशाल परिसर व इनकी चहारदिवारियां इसके गुजरे वक्त की बुलंदियों का बस एहसास करा रही हैं। इन तस्वीरों के बीच से रुक-रुक कर लग रहे मजदूर एकता जिंदाबाद के नारे लोगों की उत्सुकता बढ़ा रहे हैं। हर किसी की निगाहें यह पूछ रही हैं कि यहां महिला-पुरुषों का आखिर जमावड़ा क्यों है?
विधान सभा चुनाव में लोगों के बीच बंद चीनी मिलों का मुद्दा कितना गरमाया है यह जानने के लिए जब मैं निकला तो यह तस्वीर यूपी के पूर्वांचल के देवरिया जिले में देखने को मिली। जहां कभी 14 चीनी मिलें हुआ करती थीं। अविभाजित देवरिया जनपद की इन चीनी मिलों में से अधिकांश बंद हो चुकी हैं। नवगठित देवरिया जिले की पांच चीनी मिलों में से मात्र एक चालू हालत में है। वह प्रतापपुर की चीनी मिल है जिसका मालिकाना निजी हाथों में है। बंद मिलों में से एक है गौरीबाजार की चीनी मिल, जिसके कैंपस में दर्जन भर से अधिक महिला व पुरुषों का जमावड़ा लगा हुआ है। यह देख उत्सुकतावश हम भी बढ़ चलते हैं।
गौरीबाजार की मिल खुलवाने के लिए प्रदर्शन करते लोग। हर रविवार को लगता है यहां जमावड़ा
पता चलता है कि ये लोग सप्ताह में एक दिन यहां एकत्रित होकर अपनी आवाज बुलंद करते हैं। ये जाति व धर्म के लफड़ों से दूर रहकर चीनी का कटोरा के रूप में बरकरार रही पहचान को एक बार फिर वापस दिलाने की मांग कर रहे हैं। ये मांग कर रहे हैं अपने मजदूरों व किसानों के बकाये करोड़ों के रकम की भुगतान की। यह जानकर मैं इनकी अगुवाई कर रहे ऋषिकेश यादव की ओर बढ़ता हूं और संघर्ष के पीछे छुपे उन सवालों का जवाब ढूंढने की कोशिश करता हूं,जिसने इन्हें एकजुट करने पर मजबूर कर दिया।
ऋषिकेश कहते हैं, “कभी हम लोग इस चीनी मिल से बेटी व रोटी के रिश्ते से जुड़े थे। किसान अपने गन्ने को बेचकर प्राप्त रकम से वर्ष भर के खर्चों को पूरा करने के साथ ही अपनी हर जरूरतें पूरा करते थे। इसी आमदनी से बेटी के हाथ पीले करने से लेकर हमारी हर खुशियां पूरी होती थीं। लेकिन नब्बे के दशक में एक-एक कर क्षेत्र की चीनी मिलें बंद होने लगीं”।
बंदी की कहानी और उसके पीछे के कारणों को विस्तार से आगे बढ़ाते हुए वह करते हैं, “गौरीबाजार चीनी मिल कपड़ा मंत्रालय भारत सरकार द्वारा संचालित होती थी। मिल को अचानक प्रबंधन ने 1995 में बंद कर दिया। इस दौरान मिल मजदूरों के 13 करोड़ 50 लाख व किसानों का 1 करोड़ 65 लाख रूपये बकाया था। यह धनराशि अभी भी बकाया है,जबकि मिल को सरकार ने कानपुर की एक कंपनी को बेच दिया। इसके बाद कर्मचारी यूनियन से मिलकर प्रबंधन मिल का सामान ट्रक पर लादकर ले जाने लगा”।
उस वाकये को याद करते हुए ऋषिकेश की आंखे डबडबा गईं। वे कहते हैं, “ट्रक पर सामान जाते देख मैं फफक कर रोने लगा। यह देख यूनियन के नेताओं ने कहा कि ऋषिकेश पागल हो गया है। सही मायने में मैं पागल हो गया था। मेरा पागलपन हजारों मजदूरों की उजड़ती जिंदगी को देख कर था। यह देखते हुए भी मैं एक साधारण मजदूर होने के नाते कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं था। मेरी विवशता ही उस पागलपन को बढ़ा दी थी। इसके बाद मैं अपने को संभाला और किसानों-मजदूरों के लिए संघर्ष की शुरुआत की, जो निरंतर जारी है”।
यहां मौजूद गौरीबाजार निवासी जितेंद्र यादव कहते हैं कि “मिल बंदी के विरोध में मजदूर 1996 में प्रदर्शन में हिस्सा लेने कानपुर गए थे। इस दौरान मेरे पिताजी किशोर यादव की दुर्घटना में मौत हो गई”। मिल गेट के सामने की जमीन की ओर इशारा करते हुए जितेंद्र ने बताया कि “यहीं हमने पिताजी का अंतिम संस्कार किया था। लेकिन उनके निधन पर मेरे घर वालों को कोई मुआवजा नहीं मिला। इसके बाद से किसी तरह मजदूरी कर हम लोगों का गुजारा चल रहा है”। स्थानीय निवासी विक्रम यादव की मानें तो “मिल चालू रहने से जहां हजारों परिवारों को रोजगार मिला था,वहीं बाजार में भी रौनक थी। मिल बंदी से सब कुछ उजड़ गया”। लबकनी निवासी गंगा सागर चौहान कहते हैं कि “मिल चालू कराने का मौजूदा सरकार से लेकर पूर्ववर्ती सरकार ने वादा तो किया, पर कोई पहल होते नहीं दिखी”।
इसके बाद हमने रुख किया गौरीबाजार कस्बे से राष्ट्रीय राजमार्ग होते हुए बैतालपुर की ओर। दस किलोमीटर के सफर के बाद मैं थापर ग्रुप की पिछले दो दशक से बंद पड़ी चीनी मिल के पास पहुंच गया। यहां मेरी मुलाकात स्थानीय निवासी उमाशंकर से हुई। उन्होंने बताया कि “मेरे पिता रमेश प्रसाद यहां नौकरी करते थे। मेरे बाबा भागीरथी प्रसाद भी यहां नौकरी कर चुके थे। अपने पिता से सुनता रहा हूं कि मिल जब चालू हालत में थी तो हम लोगों का जीवन बहुत ही खुशहाल था। खुशहाली की तस्वीर यहां के कस्बे में भी देखने को मिलती थी। इसके चलते ही यहां रेलवे स्टेशन की स्थापना हुई। रेलवे स्टेशन व ब्लाक मुख्यालय का निर्माण मात्र इस चीनी उद्योग से ही संभव हो पाया। मिल की बंदी व अन्य उद्योग न लगने से काम की तलाश में महानगरों की तरफ जाना पड़ता है। कोरोना काल शुरू होने के बाद से अब मजदूरी का भी संकट हो गया है”। उन्होंने कहा कि हमारे यहां के अधिकांश युवा नौकरी की तलाश में बाहर ही जाते हैं। ऐसी ही परेशानी यहां के अन्य लोगों ने भी गिनाई।
उमाशंकर ने अपनी आंखों से देखी है चीनी मिलों के चलते इलाके में होने वाला विकास
इसके बाद बंद चीनी मिलों के चलते उत्पन्न हुई स्थितियों का आकलन करने के लिए जिला मुख्यालय की ओर बढ़ने लगा। देवरिया चीनी मिल बंद होने के बाद अब इसके कोई अवशेष तक नहीं बचे हैं। अगर यहां है तो मात्र इसकी जमीन, जो शहर का इस समय सबसे बड़ा खेल का मैदान है। ऐसे में हमने जिला मुख्यालय से तीस किलोमीटर दूर भटनी की ओर रूख किया। यहां हमारी मुलाकात होती है इंटक के श्रमिक प्रकोष्ठ के जिलाध्यक्ष व नया चीनी मिल मजदूर संघ, भटनी के मंत्री केके शुक्ला से। चीनी मिलों की बंदी व मौजूदा तथा पूर्ववर्ती सरकारों के रुख पर चर्चा करने पर शुक्ला कहते हैं कि “मिल बंदी की शुरुआत प्रदेश में सबसे पहले भाजपा की कल्याण सिंह ने ही की थी। उन्होंने 11 मिलों को पहले बंद किया। इसके बाद मिल बंदी की ओर सबसे बड़ा कदम मायावती की सरकार ने उठाई। बंदी की इस कोशिश को मुलायम सिंह यादव की सरकार ने भी बढ़ाया। पिछले पांच वर्ष में योगी आदित्यनाथ ने जिले में एक मिल की स्थापना का वादा किया था,पर यह धरातल पर नहीं उतरा। किसान व मजदूरों की बात करने वाली सरकार का यह वादा छलावा ही साबित हुआ”।
मजदूर नेता शिवाजी राय का कहना है कि प्रदेश में देवरिया और कुशीनगर के अलग होने से पहले तक यहां 14 चीनी मिलें थीं। 1993 में कुशीनगर बना तो नौ मिलें उसके हिस्से में चली गईं, जबकि पांच देवरिया में रह गईं। नब्बे के दशक के बाद सरकारों की बेरुखी से एक-एक कर चीनी मिलों के बंद होने का सिलसिला शुरू हुआ तो देवरिया की चार मिलों पर ताले लग गए। देवरिया और भटनी मिल के अस्तित्व के नाम पर सिर्फ खंडहर बचा है। गौरीबाजार चीनी मिल को कानपुर की एक फर्म को बेच दिया गया।
संचालन की शर्तों के साथ बिकी बैतालपुर चीनी मिल को चालू कराने के लिए लंबे समय से किसान आंदोलित हैं। कलेक्ट्रेट में 120 दिनों तक उनका आंदोलन चला, मगर चुनाव की डुगडुगी बजने के बाद उनकी आवाज भी दबा दी गई। पिछले लोकसभा और फिर विधानसभा चुनाव में चीनी मिल एक बड़ा मुद्दा रहा। सभी दलों ने इसे अपने एजेंडे में शामिल करते हुए बंद मिलों को चलाने की प्राथमिकता बताई थी। मगर चुनाव बीतने के बाद किसी ने इस मुद्दे पर कोई रुचि नहीं दिखाई। अब इस चुनावी समर में फिर से यह मुद्दा गर्म हो गया है। यह बात दीगर है कि फिलहाल किसी भी दल के वादे में चीनी मिल चलाने के इरादे किसानों को नजर नहीं आ रहे। ऐसे में किसान इन दलों से ठगा हुआ महसूस कर रहा है।
एक चौथाई रह गया गन्ने का रकबा : चीनी मिलों की बदहाली का असर गन्ने की खेती पर साफ दिख रहा है। जब सभी चीनी मिलें चलती थीं तो अकेले देवरिया जिले में ही गन्ने का रकबा करीब 40 हजार हेक्टेयर था। अब यह घटकर दस हजार से भी कम हो गया है। गन्ने का रकबा घटने से किसानों की आर्थिक स्थिति भी गड़बड़ हुई है। धान-गेहूं की संयुक्त खेती से भी किसान इतनी आय नहीं कर पा रहे, जितना गन्ने की एक खेती से साल भर में कमा लेते थे।
चीनी मिल चलाओ संघर्ष समिति के अध्यक्ष ब्रजेंद्र मणि त्रिपाठी का कहना है कि वर्ष 2008 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने सशर्त बैतालपुर चीनी मिल की बिक्री कराई। इसमें स्पष्ट उल्लेख था कि आधुनिक रुप में इसे चलाते हुए चीनी और बिजली उत्पादन किया जाएगा। मिल खरीदने वाली कंपनी ने शर्तों की अनदेखी की। पिछले चुनावों में इसे चलाने का वादा हुआ था, लेकिन बाद में इसे भुला दिया गया। वर्ष 2017 से समिति संघर्ष कर रही है। चालू होने तक यह चलता रहेगा। देवरिया जिले की बात करें तो कुशीनगर अलग जिला बन जाने के बाद यहां पांच मिलें ही रह गईं। जिनमें से मात्र प्रतापपुर मिल चालू हालत में है। खास बात यह है कि देवरिया सदर विधान सभा क्षेत्र में सर्वाधिक तीन मिलें देवरिया, बैतालपुर व गौरीबाजार में थीं। इस सीट पर लगातार कई बार से भाजपा का कब्जा है। पांच वर्ष की योगी सरकार में इन मिलों को चालू कराने के लिए कोई जमीनी पहल होते नहीं दिखी।
देवरिया, गौरीबाजार, बैतालपुर, भटनी, प्रतापपुर, रामकोला (पी), रामकोला (के), सेवरही, कप्तानगंज, खड्डा, कठकुइयां, लक्ष्मीगंज, छितौनी, पडरौना।
कोरोना काल की महामारी के दौरान यूपी का पूर्वांचल सर्वाधिक बेकारी का मार झेलने को मजबूर हुआ। दिल्ली व मुम्बई समेत देश के बड़े शहरों में लॉकडाउन के चलते ये मजदूर पैदल ही अपने घर को जाने का मजबूर हुए। इस दर्द को याद कर अभी ये मजदूर सिहर उठते हैं। औराचैरा निवासी संदीप सिंह ने बताया कि “मैं सोनीपत में वेल्डर का काम करता था। अचानक काम छिन जाने से परिवार सहित घर लौटने को मजबूर हुआ। इस दौरान बस्ती के सामने सड़क हादसे में मैं अपने पांच वर्ष के बेटे का गंवा दिया। रास्ते भर पुलिस के डंडे की मार ने दर्द को और गहरा कर दिया। अगर हमारे यहां पूर्वांचल में कल कारखाने होते तो यह दिन नहीं देखने को मिलता”। वरिष्ठ पत्रकार राकेश तिवारी कहते हैं कि “पूर्वांचल हमेशा विकास के सवाल पर उपेक्षित रहा है। बेरोजगारी व भुखमरी का आलम सरकारों की उदासीनता के चलते बढ़ती गई। लिहाजा युवाओं के पास पलायन के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया है। पूर्ववर्ती सरकारों ने चीनी मिलों का आधुनिकीकरण करने के बजाए उन्हें औने पौने दाम पर बेचने का काम किया। जिसका नतीजा है कि रोजगार मिलने की तो बात दूर रोजगार छिनता चला गया। चुनाव में रोजगार को एक बड़ा मुद्दा बनाने की जरूरत है। इससे ही विकास के रास्ते प्रशस्त होंगे”।

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