‘ नारा चार सौ पार का, कैंडिडेट उधार का ‘

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अरुण श्रीवास्तव

अभी कुछ ही महीने हुए विश्व की सबसे बड़ी पार्टी क्षमा करिएगा, विश्व नहीं ब्रह्मांड की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ने यह नारा दिया था। हालांकि इस तरह के नारे वह पहले भी लगाती रही। या यूं कहें कि, इस तरह के लक्ष्य वह पहले भी तय करती रही और लोग चुहलबाज़ी करते रह कि नारा भाजपा का होता है और हासिल करने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की होती है, मतलब लक्ष्य उसने दे दिया उसे हासिल करने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की है कि वह तरीका क्या अपनाती है। पहले बूथ पर तोड़फोड़ हो जाती थी, कब्जा हो जाता था, बैलेट बॉक्स लूट लिए जाते थे अब ईवीएम से छेड़छाड़ की जाती है या हैक कर लिया जाता है।

बहरहाल बात मुद्दे की। अबकी बार चार सौ पार नारे की। इस नारे के पीछे की मंशा अब समझ में आयी। कई साल पहले इस तरह का नारा मोदी जी ने अमेरिका में लगवाया था, ‘ अबकी बार ट्रंप सरकार ‘ तब इसे बहुत हल्के में लिया गया था। अब चार सौ पार के लिए सारे घोड़े खोलने पड़ जाएंगे इसका अंदाजा नहीं था। चार सौ पार तो राजीव गांधी ने भी किया था। 542 सीटों के लिए हुए चुनाव में कांग्रेस ने 401 सीटें हासिल की थीं। इसके लिए चार सौ पार का नारा भी नहीं दिया था। न विपक्षी दलों में सेंधमारी की थी, न विपक्षियों के पीछे जांच एजेंसियों को लगाया था न विपक्षी दलों के खाते सीज करवाए थे, न ही विपक्ष के नेताओं को ब्लैकमेल किया था, न ही बेटे को जेल में डलवा कर बाप को सरकारी गवाह बनवाया था न ही बड़ी संख्या में विपक्ष के नेताओं को जेल में ठूंसा था। जेल में तो विपक्षी दलों के तमाम नेताओं को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जेल के सीखचों के पीछे भेजा था पर यह काम उन्होंने ‘ डंके की चोट पर किया था। यानी देश में आपातकाल लगाकर संविधान में हासिल किए गए अधिकारों के तहत देश की जनता से उनके नागरिक अधिकार छीन लिए थे। अब संविधान में ऐसी व्यवस्था पहले से थी या उन्होंने संविधान में संशोधन कर हासिल किए थे यह तो संविधान के ज्ञाता ही बता पाएंगे।

स्वतंत्र भारत के इतिहास में अब तक तीसरी बार सत्ता में आने वाले पीएम जवाहर लाल नेहरू ही थे। तीसरे टर्म के लिए उन्होंने सारे घोड़े खोल दिये थे या नहीं यह गूगल बाबा भी नहीं बता पा रहे हैं। अटल बिहारी वाजपेई जी ने भी अपने काम को आधार बनाया था अपवाद स्वरूप इंडिया साइनिंग (भारत उदय) ही उदित हुआ था। मनमोहन सिंह जी ने भी अपने काम मनरेगा, आरटीआई व आर्थिक सुधार को ही आधार बनाया था यही नहीं उन्होंने अपने तथा अपनी सरकार के ऊपर लगे भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए किसी पर दोषारोपण नहीं किया न ही किसी विपक्षी नेता के पीछे जांच एजेंसियों का इस्तेमाल किया और न ही कंपनियों पर छापे डलवा कर चंदा लिया। चंदे के धंधे से अपने तथा अपनी पार्टी को दूर रखा। मनमोहन सिंह ने कभी यह भी नहीं कहा कि मुझे तीसरा कार्यकाल दीजिए तो मैं देश की अर्थव्यवस्था को आसमान की ऊंचाइयों तक ले जाऊंगा, देश की जीडीपी में चार चांद लगा दूंगा या सभी भ्रष्टाचारियों को जेल में डाल दूंगा।

यूं तो दल बदल का रोग काफ़ी पुराना है। गठबंधन की राजनीति के बढ़ने के साथ यह त्वरित गति से आगे बढ़ा। दल बदल का चलन चौथे आमचुनाव के आसपास बढ़ा। एक समय तो यह स्थिति आ गई कि दल बदल का नाम ही ‘ आया राम गया राम ‘ । वीपी सरकार के सत्ता से हटने के बाद हुए चुनाव में तो स्थिति यह हो गई थी कि उस समय के कद्दावर नेता ओम प्रकाश चौटाला ने सुबह किसी दल को अपना समर्थन दिया किंतु शाम को विरोधी पार्टी के साथ दिखे। उस समय यह चकित कर देने वाली घटना थी जो कि अब आम बात हो गई है। अभी हाल ही में बिहार के राजनीतिक दल के खेमे के साथ होने वाले कुछ नेता शक्ति परीक्षण के दौरान विधानसभा में नीतीश कुमार के पाले आकर बैठ गए।
आमतौर पर चुनाव के पहले दल बदल होता था। टिकट न मिलने पर नेता चुप नहीं रहते थे वो जुगाड़ कर दूसरी पार्टी में शामिल हो जाते थे। दूसरे दल से आये नेता को टिकट मिलता था तो वर्षों से झंडा बुलंद करने वाला नेता मुंह फुला लेता था और तब तक फुलायें रखता था जब तक उसे दूसरे दल से टिकट नहीं मिल जाता था।

21वीं सदी के यह परंपरा ब दस्तूर जारी रही। पाला बदल कर कोई विरोधियों के पाले में बैठ गया तो किसी ने घर वापसी कर ली। किसी को किसी में आस्था दिखाई दी तो किसी का उस पार्टी में अचानक दम घुटने लगा जिसमें वह साढ़े साल तक विभिन्न पदों पर आसीन थे। अब ग्वालियर राजघराने के ज्योतिरादित्य सिंधिया को ही ले लीजिए उनकी दादी भाजपा में लंबे समय तक बड़े पदों पर थीं और दो-दो बुआ भी। इन सबके बावजूद पिता कांग्रेस में थे यानी खानदान से बगावत कर अंतिम सांस तक कांग्रेस में थे। खुद को वे राहुल का दोस्त नहीं सोनिया गांधी का पुत्र कहते थे। प्रियंका गांधी जिस तरह की जैकेट भाई राहुल के लिए ले आईं ठीक उसी तरह का ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए भी। कांग्रेसी ही नहीं मीडिया का एक बड़ा तबका दोनों की दोस्ती के कसीदे गढ़ने लगा। किसी ने शोले का जय-वीरु कहा तो किसी ने राजनीति का अटल आडवाणी कहा। सिंधिया की दो पीढ़ी कांग्रेस में थी तो दो भाजपा में। यानी ” दोनों हाथों में लड्डू ” यही हाल गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा का रहा दोनों दो पीढ़ी वाले कांग्रेसी थे तो कपिल सिब्बल को पुराना चावल कहा जाता था। कांग्रेस में ऐसे लोगों की लंबी फेहरिस्त है।

आखिर पार्टी भी तो सबसे पुरानी है और जब सबसे पुरानी पार्टी है तो आरोप भी परिवारवाद और वंशवाद का लगेगा। हालांकि इससे भाजपा भी अछूती नहीं। सिंधिया राजघराने की तीन-तीन पीढ़ियां भाजपा में रहीं फिर भी वो पार्टी परिवारवादी और वंशवादी नहीं। गांधी नेहरू परिवार अब तक इस आरोप से मुक्त नहीं हो पाया। गांधी नामक परिवार की तीन पीढ़ी कांग्रेस में है तो इसी परिवार की दो पीढ़ी मेनका और वरुण गांधी भी तो भाजपा में हैं। हेमवती नंदन बहुगुणा और चौधरी चरण सिंह की तीसरी पीढ़ी कभी इस खेमे में तो कभी खेमे में रही है। वंशवादी परिवारवादी के साथ-साथ पाला बदलने में ये दोनों परिवार किसी से कम नहीं रहे। अजित सिंह सत्ता सुख के लिए घाट घाट का पानी पिया है तो हेमवती नंदन बहुगुणा की बेटी रीता बहुगुणा जोशी ने मौके का जमकर फ़ायदा उठाया। उनके भाई विजय बहुगुणा पहले कांग्रेस में थे अब भाजपा में साथ में पुत्र भी।

हेमवती नंदन बहुगुणा की पत्नी (दूसरी पत्नी) कमला बहुगुणा, दोनों पुत्र, पुत्री नाती-पोते राजनीति में हैं और पाला बदल बदल कर उनकी परंपरा निभाते रहे लेकिन बदनाम सोनिया, लालू और मुलायम सिंह यादव हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़कर बाकी सभी पार्टियों में आज दूसरी तीसरी पीढ़ी के लोग राजनीति में हैं और अपने खानदान की पाला बदल परंपरा को न सिर्फ जिंदा रखे हुए हैं बल्कि उसमें इजाफा ही कर रहे हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि यह सब देश के हित में करते हैं। बसपा से सपा में जाते हैं तो देश के हित में, जनता के हित में। कांग्रेस से भाजपा में शामिल होते हैं तो जनहित में और भाजपा से कांग्रेस में आते हैं तो ‘ घर वापसी’ कहते हैं। यानी नेताओं का हर कदम जनहित में होता है। अपनी सीट पर बैठे के लिए टिकट मांगते हैं तो बेटे के हित में नहीं जनता के हित में।
अभी हाल में विभिन्न क्षेत्रों से जाने माने चेहरे राजनीति में आए तो अपना करियर बनाने नहीं जनता के हित में आए हैं। मसलन अभिनेत्री कंगना रनौत, खिलाड़ी बृजेन्द्र सिंह और पत्रकार रमेश अवस्थी। अब ब्रह्मांड की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को इनमें कौन सी खूबी दिखी ये तो चुनाव अभियान समिति ही बता सकती है।

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