“संकट का व्यापार”

0
3

संकट की आहट से, बाजार थरथराए,
महंगाई की लहर से, घर-घर हिल जाए।
कागजी हुक्मनामा, सख्ती के सुर गाए,
पर हकीकत की धरती, झूठ की चादर फैलाए।

राशन के थैले, खालीपन से भरे,
कालाबाजारी की चालों में, सपने टूटे, बिके, मरे।
नेताओं की घोषणाएं, जश्न की तरह गूंजती हैं,
पर दुकानों की अलमारियाँ, भूख की चीख से घबराती हैं।

जनता को बंधी पगडंडियों पर दौड़ाया जाता है,
हर बार नया नारा, हर बार नया वादा रचाया जाता है।
पर कालाबाजारी की हवाओं में, सच का दम घुट जाता है,
कानून की स्याही, मुनाफाखोरी की चालों से बिखर जाता है।

सरकारी आदेशों की तलवारें, कागज पर तेज़ होती हैं,
पर जमीनी हकीकत, इनसे आँखें चुराती हैं।
कौन पूछेगा, कौन रोकेगा, जब खुद रक्षक ही भक्षक बन जाएं,
जब सत्ता के गलियारों में, मुनाफाखोर गीत गाएं।

यह वक्त है, जब जनता को जागना होगा,
अपने हक की लड़ाई में, खुद को परखना होगा।
सिर्फ आदेशों से नहीं, इरादों से बदलाव आएगा,
वरना यह सख्ती भी, महज एक ‘खोखला नारा’ बनकर रह जाएगा।


  प्रियंका सौरभ

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here