जाति भारतीय समाज की एक कड़वी सच्चाई हैं जिसने भारत में मौजूद लगभग हर धर्म में अपने पाँव पसार लिए हैं। हर कुछ महीनों के अंतराल में किसी न किसी राज्य की विधानसभा या पंचायत का चुनाव होता हैं तो खबर पालिका में जातिगत आंकड़े आने लगते हैं। सोशल ईजीनियरिंग के तहत उसी जाति के उम्मीदवार को प्रत्याशी बनाया जाता हैं जिसकी जनसंख्या ज्यादा होती हैं। भारतीय समाज के अदृश्य शिलालेख में यह अंकित हैं कि ‘बहू’ (वर में भी) और ‘बहुमत’ में जाति ही प्राथमिक होती हैं।
जाति का प्रश्न कोई आज का नहीं हैं भारतीय परम्परा के दोनों महाकाव्य यानी रामायण और महाभारत दोनों में जाति का उल्लेख हैं और इसका दंश भी हैं। वाल्मीकि के रामायण में शम्बूक को जान गवांनी पड़ी तो वहीं व्यास के महाभारत में कर्ण को जाति के कारण जगह- जगह अपमान झेलना पड़ा। कर्ण के मनोभाव एवं उसकी पीड़ा को ‘दिनकर’ ने ‘रश्मिरथी’ में विस्तार से व्यक्त किया हैं। लेकिन महाकाव्यों के समय व उसके बाद भी लगभग- लगभग वैधानिक व सामाजिक दोनों व्यवस्था का आदर्श वर्णाश्रम था जबकि स्वतन्त्र भारत के संविधान के मूल अधिकारों में लिखा है कि जाति के आधार पर विभेद नहीं किया जाएगा और अस्पृश्यता को तो साफ- साफ अपराध माना गया हैं तब फिर अभी भी यह जाति क्यों हैं?
हम भले अपनी कोई जाति न माने और मानव मात्र के पक्षधर हो किंतु समाज में हम जाति विशेष के परकोटे में ही होते हैं जैसा कि केदारनाथ सिंह कहते हैं “मैं चाहूँ या न चाहूँ, अपने समाज में अपने सारे मानववाद के बावजूद, मैं एक जाति-विशेष का सदस्य माना जाता हूँ। यह मेरी सामाजिक संरचना की एक ऐसी सीमा है, जिससे मेरे रचनाकार की संवेदना बार-बार टकराती है और क्षत-विक्षत होती है।” भारतीय जनतंत्र और गणतंत्र में यदि व्यक्ति अभी भी जातिगत कारणों से क्षत-विक्षत हो रहा हैं तो क्यों? इसके लिए आज के समय की भारतीय राजनीति का अवलोकन करने का प्रयास करते हैं। वर्तमान में जातिवादी जनगणना की मांग जोर-शोर के साथ उठाई जा रही हैं। रजनी कोठारी के अनुसार “भारतीय समाज में जाति के विरोध की राजनीति तो हो सकती है, लेकिन जाति के बग़ैर नहीं।”चूँकि जम्हूरियत में बंदो को गिना जाता है इसीलिए जाति अभी भी प्रजातंत्र में जिंदा हैं। दिनेश कुशवाहा कहते हैं
” नेता अब लोगों को कहाँ मानते हैं आदमी
सारी जनसंख्या को वो वोट समझते हैं। ” जाति और नेताओं के संबंध की नजदीकी को दिनेश जी कुछ यूँ बयाँ करते हैं
” ब्राह्मण के पास मन (शास्त्र) है
ठाकुर के पास तन (शस्त्र) है
बनिया के पास धन (तंत्र) है
नेताओं के पास है जाति
और जाति को उनने
वोट में बदल दिया है
इसलिए आज एक भी
नेता नहीं है जाति के खिलाफ़। ”
आज आजादी के अमृत महोत्सव के समय क्या जातियों के जीवन स्तर में कोई सुधार आया हैं? तो देखिए मेहतर बस्ती की हालत कवि के शब्दों में
“यहाँ लोग बोतल से करते हैं
बैतरणी पार, वाराह की पीठ पर हाथ रख
सुस्ताते हैं दो घड़ी। ”
और जिंदा किस तरह हैं
“यहाँ जीते हैं लोग
अपने पेट में पचाते हुए
धरती का हैजा। ”
ये उस प्रदेश के की हालत है जहाँ तिलक, तराजू और तलवार को जूते मारने का नारा लगाकर पार्टी ने सत्ता में कब्जा किया था और आज उस पार्टी की कथनी करनी किसी से छुपी नहीं है। शायद इसी कथनी-करनी के अंतर के कारण कवि को अच्छे दिनों से भी डर लगता हैं। रामराज्य के संदर्भ में कवि कहता हैं
“मेरे भाई!
मैं सीता और शंबूक दोनों हूँ
मुझे रामराज्य से डर लगता है।”
राजनीतिक कथनी-करनी में अलगाव के कारण ही स्वाधीन भारत के सात दशक बाद भी ‘जाति’ की भावना पहले से मजबूत हुई है और ज्यादा से ज्यादा संगठित भी हो रही है।
बुद्ध, कबीर, ज्योतिबा फुले, अंबेडकर, पेरियार और लोहिया जैसे न जाने कितने लोगों ने इस भावना के समूल नाश की बात कही है, इसके लिए आंदोलन किया है कुछ लोगों ने तो अपना पूरा जीवन ही लगा दिया फिर भी यह पूरे ठसक के साथ देश के सामाजिक चित्त में बनी हुई है। इसका राजनीति के अलावा भी क्या कारण हो सकता हैं?
भारतेंदु के लिए रामस्वरूप चतुर्वेदी ने लिखा है कि “भारतेंदु विचारों से जितने आधुनिक थे उतने संस्कारों से नहीं। ” ‘मनीषा कुलश्रेष्ठ’ के उपन्यास ‘मल्लिका’ को पढ़ने पर यह बात कुछ हद तक सही भी लगती है लेकिन जातिके संदर्भ में ये बात ज्यादातर भारतीयों के बारे में सही ही है कि विचारों से तो जातिवाद के खिलाफ़ है किंतु संस्कारों में यह जड़ जमाए हुए हैं।मेरे घर के पास के एक सज्जन जो राजपत्रित अधिकारी (यानी पढ़े लिखे डिग्री लिए होंगे) से रिटायर होकर आए है जब मेरे जिले में विधानसभा की वोटिंग हुई तो मुझे लगा उन्होंने भाजपा को वोट दिया होगा क्योंकि अपनी बातों में भाजपा की नीतियों के घनघोर समर्थक है।मैंने उनसे कहाँ “कमल में बटन दबा आए।” उन्होंने स्मित मुस्कान के बाद कहाँ “सोच के तो वही गया था पर कांग्रेस से एक ब्राह्मण खड़ा है और भाजपा से ठाकुर। बटन दबाते समय आत्मा से आवाज़ आयी तो कांग्रेस को ही दे आया पर चाहता हूँ कि जीते भाजपा ही।” इसी मतदान व्यवहार के कारण खबरपालिका में कहाँ कित्ते प्रतिशत कौन सी जाति हैं ये आँकड़े उतराते रहते हैं। संस्कारों में इस जातिबोध की गहराई कितनी है यह हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के इस कथन से महसूस कीजिए कि “हिंदू समाज में नीचे से नीचे समझी जानी वाली जाति भी अपने से नीची एक और जाति ढूँढ लेती है।” यह व्यंग्य से सना कथन आज मुस्लिम समाज के लिए भी व्यवहारिक सच हो रहा है क्योंकि समतामूलक इस मजहब में पसमांदा लोग जो विरोध के स्वर असराफ के प्रति उठ रहा हैं वह समानता की कलई खोलने वाला हैं। सिख पंथ जो ‘संगत’ और ‘पंगत’ में विश्वास करता हैं उस पंथ के एक व्यक्ति का ‘दलित मुख्यमंत्री’ होना विरोधाभास ही हैं।
ऊपर जो प्रश्न चिन्ह लगाया हैं उसका एक जवाब तो उपर्युक्त बात से स्पष्ट हैं कि महापुरूषों के विचारों को ज्यादातर लोग संस्कारों में नहीं अपना पाते वैसे भी हम चरण पूजन में ज्यादा भरोसा करते हैं बजाय आचरण पूजने के। तभी तो मूर्ति पूजा का विरोध करने वाले बुद्ध की मूर्तिया सबसे ज्यादा मात्रा में ही होंगीं। दिनेश कुशवाहा जी अपने कविता संग्रह ‘इतिहास में अभागे’ में लिखते हैं
“एक बात जान लो
आँच साँच पर ही आती है
झूठ का कुछ नहीं बिगड़ता
और जाति है सहस्त्राब्दियों का सबसे बड़ा झूठ
जो सच से बड़ा हो गया है”
क्या यह जाति का झूठ जो सच से बड़ा ही रहा आयेगा?क्योंकि सामाजिक प्रतिष्ठा और आरक्षण का कोढ़ इसे और बलवती कर रहे हैं। क्या यह सच से बड़ा झठ केदारनाथ सिंह जैसे हर संवेदंशील व्यक्ति से टकराकर उसे क्षत- विक्षत करेगा? या ऐसे कबीर होंगे जो अपना घर फूँक कर भी इस झूठ को न केवल उघारेंगे बल्कि दफन भी करेंगे?
भारतीय समाज में जातिगत व्यवस्था कड़ुवी सच्चाई
गौरव गौतम