कैसा पास-पड़ोस है, किंचित नहीं तमीज।
दया दर्द पर कम हुई, ज्यादा दिखती खीज।।
ऐसा आस पड़ोस है, अपने में मशगूल।
गायब है सद्भावना, जमी मनों पर धूल।।
थाना बना पड़ोस में, गूँजा एक सवाल।
सौरभ कैसे हो गए, सारे लोग दलाल।।
होती कहाँ पड़ोस में, पहले जैसी बात।
दरवाजे अब बंद है, करते भीतर घात।।
सौरभ पास पड़ोस का, हम भी दे कुछ ध्यान।
हो जीवन आनंदमय, रखे यही अरमान।।
सुविधाओं के फेर में, कैसा हुआ समाज।
क्या-क्या हुआ पड़ोस में, नहीं पता ये आज।।
सिसक रही संवेदना, मानवता की पीर।
भाव शून्य मन भावना, सुप्त पड़ोस जमीर।।
आदत डालो प्रेम की, माया, ईर्ष्या त्याग।
खुशियाँ देख पड़ोस की, भर हृदय अनुराग।।
आकर बसे पड़ोस में, ये कैसे अनजान ।
दरवाजे सब बंद है, और’ बैठक वीरान ।।
डॉ. सत्यवान सौरभ