डॉ कल्पना पाण्डेय ‘नवग्रह’
विज्ञान के चमत्कार रोज़ नए आयाम बना रहे हैं । भारत विश्व मंच पर उभरता -चमकता सितारा है, ऐसा छायाचित्र कहते हैं। पर वहीं दूसरी ओर ऐसे छायाचित्र जो मज़बूर करते हैं सोचने को । विवश बना देते हैं उन परिस्थितियों में जीने को , जिनमें देश का प्रतिनिधित्व करती आम जनता है , जिसे आस्था में वैज्ञानिक सोच और जीवन-शैली में बदलाव की अत्यंत ज़रूरत है। शिक्षा का गली गली-गली, देश के हर कोने में अलख जगाना बहुत ज़रूरी ही नहीं अनिवार्य भी है। भ्रांतियों से ऊपर उठकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ जीवन की परिकल्पना करना , अपनी आस्था का मान रखना, हर व्यक्ति का अहम पहलू होना चाहिए।
पर्व- त्योहार कोई हो धर्मांधता- अंधविश्वास के पल्लू को छोड़ना होगा। सभ्यताएं संस्कृतियों का अनोखा संगम हैं पर भविष्य की नींव में हम किस प्रकार की संस्कृति का पोषण कर रहे हैं जो हमारे भविष्य को भ्रमित कर रहा है। जो उन्हें आस्था के नाम पर कुछ भी, किसी भी हद तक कर गुज़रने की प्रेरणा दे रहा है। क्या ऐसे भारत को विश्व गुरु के रूप में सम्मान मिल पाएगा ? अभी दीपावली की कालिमा ज़िंदगियों पर ग्रहण लगाते नज़र आ रही थी कि छठ पूजा में आस्था में डूबे लोग, यमुना के प्रदूषित जल में गंदगी लपेटे पुण्य कमा रहे हैं। क्या आस्था का भाव स्थान की शुद्धता और स्वच्छता को दरकिनार कर देता है ? सरकारें कितनी भी कोशिश कर लें पर जब तक जनमानस स्वयं अपने अंधकार से लड़ने की कोशिश नहीं करेगा रोशनी की किरण नहीं ढूंढ पाएगा।
नारी शक्ति भारतीय आस्था का आधार स्तंभ है । पर चुनौती उस आस्था में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का है जिसे आज भी समाज के ठेकेदार गांव- गांव गली -गली में आगे बढ़ने नहीं देना चाहते । उनकी मानसिक स्थिति पर एक अंकुश, लगाम लगाकर चारदीवारी में क़ैद रखने की पुरज़ोर कोशिश लगातार चलती रहती है। आज भी उनका दमन हो रहा है। उन्हें सिर्फ़ संस्कारों को अकेले ही ढोना है, ऐसा समाज कहता है। उन्हें शिक्षित कर उनमें अपनी आस्थाओं के प्रति वैज्ञानिक नवीनीकरण को नहीं लाने देना है, ऐसा प्रयास है। अगर जीवन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण घर-घर तक पहुंच जाए तो आस्था के नाम पर उन कर्मकांडों का क्या होगा जिनके माया- जाल में फंसी वे अपनी ज़िंदगी के ख़ूबसूरत पल को न केवल अंधकार में बिताने को विवश है वरन् नई रोशनी की किरण उन्हें किसी भी कीमत पर नहीं मिलती।
पर आज आस्था का विकराल रूप डरावना और भयावह है।आम जनता कोरोना ,डेंगू के प्रकोप से न केवल बिखरी ज़िंदगी जी रही है वरन अपाहिज सी होती जा रही है । पर्यावरण संरक्षण, प्राकृतिक संतुलन, दूरदृष्टि इन सबके प्रति ज़िम्मेदारी निभाना अत्यंत आवश्यक है वरना प्रणाम और भयंकर होंगे। सबकी सांसे कम हो रही हैैं । धुआं किस क़दर ज़िंदगियों को लील रहा है इतना सब कुछ देखने और भोगने के बाद भी आज फ़िर वही झाग भरे प्रदूषित पानी में सूर्य देवता का मान और सम्मान हमारी किस आस्था का प्रतिबिंब बन गया ! पूरा हुजूम, लोगों की जैसे बाढ़ आ गई हो । न कोई मास्क, न दो गज़ की दूरी । क्या आस्था के नाम पर हम पल- पल तबाह होती ज़िंदगियों की सिसकारियां भूल चुके हैं ? ” मन चंगा तो कठौती में गंगा” यह उक्ति चरितार्थ होती है अगर पवित्र मन से कुछ भी करने की भावना हो। हमारे संपूर्ण भारतीय समुदाय को अपनी आस्था की पवित्रता और गरिमा बनाए रखने के लिए दो कदम शिक्षा के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने की महती आवश्यकता है।
एक असीम शक्ति अवश्य है जो नामुमकिन को मुमकिन बनाती है। एक पवित्र आस्था है जो सामर्थ्य को किसी भी मुकाम तक पहुंचा सकती है। भावनाओं का अथाह सागर है जो सर्वत्र प्रेम -प्यार के भाव को भरता है। निराशा के लिए ज्योतिपुंज है। असहायों के लिए एक उम्मीद और सहारा ऐसी आस्था मानवता की पोषक है जिसे संस्कारों के साथ सामंजस्य और समभाव के लिए प्रेरित होना है और एक नए पहचान की आधारशिला रखनी है।