आज छुट्टी । फेसबुक से भी । जा रहा हूँ समता घर । मिट्टी का घर बनना है। बस दो कमरे । आगंतुकों के लिए । मेहमानों के लिए । गर्मी की तपती दोपहरी मिट्टी के घर में आराम से कटती है । इलाहाबादी हेरमाना ( तरबूज) खाइये और मस्ती से ट्वेन्टी नाइन खेलिये । गँवई पर्यटन का एक छोटा सा पड़ाव है समता घर। चंचल
प्रोफेसर राजकुमार जैन
दरअसल उपन्यास कहानी कविताओं मे गांव की मिट्टी की सुगंध और उसके रूमानी चर्चे अक्सर पढ़ने को मिलते हैं। परंतु देखने में यह आया है कि जो एक बार गांव से शहर आ गया, वह वापस गांव में मुस्तकिल बसेरा नहीं करता। पर अपने साथी चंचल तो है ही निराले, दिल्ली मुंबई बनारस जैसे शहरों की रंगीन चकाचौंध को भोगते, नेशनल स्कूल आफ ड्रामा, कमानी ऑडिटोरियम, श्रीराम सेंटर, संगीत नाटक अकादमी मैं हो रही मजलिसो के रस रंजन,के साथ ही टाइम्स ऑफ़ इंडिया, दिनमान, सारिका जैसी पत्रिकाओं में कार्टून बनाते मशहूर आलिम फाजिल, लोगों की संगत, कभी दिल्ली के सांस्कृतिक केंद्र मंडी हाउस के पास मकान की छत पर बने टीन की छत वाले कमरे में बसेरा, सुबह की चाय नाथू और बंगाली स्वीट सेंटर जैसे दिल्ली के नामी रेस्टोरेंट में, अपने दौर के फिल्मी दुनिया के हीरो राजेश खन्ना जिनको देखने के लिएआधुनिकताएं तरसती थी उनके साथ बेतकल्लुफ सफर और संगत करने के बाद चंचल वापस अपने गांव आ गए।गांव ही नहीं आए ,’समता घर’ जैसी तामीर की मार्फत अपने गांव के बालक बालिकाओं को अपने सतरंगी रंगों की छटा दिखाते हुए, बुनियादी तालीम, लाइब्रेरी, कंप्यूटर जैसी विद्या भी मयश्वर करा दी।उनकी कलम से निकली हर रंग की भावभंगिमाओं, नए-नए रूपों प्रतीको, गंगा जमुनी तहजीब से लेकर पौराणिक पाषाणो के भित्ति चित्रों यक्ष यक्षिणी, कामदेव की आक्रामक मुद्राओं, सदियों से चली आ रही ग्रामीण अंचल की लोक कथाओं, रीति रिवाज़ो, व्यंग ठिठोली के नए-नए रूपों में खेलने इतराने की बानगी का गांव की खपरैल के नीचे बैठकर हुंकार और तपसरा के साथ पढ़ते हैं। वही मुल्क के मुख्तलिफ कोनों में बैठे उनके पाठक बेकरारी से इंतजार करते हैं ।
मिट्टी की कुटिया में दोपहर की तपिश में कब रहने का मौका मिलेगा इसी इंतजार में?
वाह साथी चंचल वाह,
मूलाहजा, कल ही जो लिखा,
Chanchal Bhu
हरहाल में रति खेलती है
मत रो रति ।
बसंत चौगिरदा घेर लिये बा । निकल चलने की कोई डगर नही है । अनंग हो चुके कामदेव बऊराये घूम रहे है । कोई नही पकड़ पा रहा है । बहाने पे बहाना । का हुआ ? ढँकी तुपी रहअ , जमाना बहुत खराब बा , मुग्धा नवयौवना को समझा रही है पर मन ही मन हुलस भी रही है , वह भी तो इस उम्र से गुजरी है , उड़ता है आँचर इस मौसम में हर बार पुरवैया पकड़ी जाती है , मन मे घुमड़ रहे ‘ काम कौतुक ‘ को ढंक देती है और सारा दोख पुरवैया के मत्थे मढ़ देती है । बसंत में जन्म की बैरी है , मुहझौंसा बजरंगी सिंह । तीसी के खेत को सुना रहे हैं या गेहूं में खेत मे खड़ी, निहुरी इठलाती , चोचले करती हर उम्र को बिरा रहे हैं –
ई पुरवैया जनम के बैरी , मोर अँचरा उड़ि उड़ि जाय , लहुरा देवरवा बहुतै रसिया , देखय ललचाय । आस मोरे सैयां के लागि रही , ना आये ।
सैंया तो पूरब गया है ‘ परदेस’ । यह मात्र गीत भर नही है । मौसम मिथक में जा रहा है । घर से चले थे भ्रमण करने कामदेव । अभी तक नही लौटे । कामदेव की पत्नी रति तलाश रही है । शिव ड्योढ़ी तक सारे सबूत बिखरे पड़े हैं यहां तक कामदेव आये है । रति विलाप करती हैं, आज भी वह आवाज , विलाप मर्म तक घायल करता है पपीहा , कोयल , मोर इन्हें इस मौसम में सुनिए विलाप है ।
फाग है लोक कला का जबरदस्त दस्तावेज
‘ चंचल , चपल , नवल , नट नागर ।अंगिया
मुलतावनी के मार , फिरै गलियन में विरह भरी अलबेली ।
रति मिथक बनकर आज तक विरह में है । कभी कोयल तो कभी मोर । अंतरा सुनिए
कहवां बोले कोयलिया हो , कहंवा बोले मोर
कहँवा बोले पपीहरा , कहँवा पिय मोर ।
बगिया बोले कोयलिया , बनवा बोले मोर ।
नदी किनारे पपीहरा हो , सूनी सेजिया मोर ।
योगी शिव समभोग का आधार बना पार्वती के साथ कामऋतु मे भ्रमण कर रहा है । उधर रति विलाप कर रही है । पलटा औघड़ दानी भोला शिव । कारण पूछता है । रति पति का पता पूछती है । शिव जवाब देते है – काम ने हमे समाधि से विग्रह किया ,हमने उसे भष्म कर दिया वह वापस तो नही होगा लेकिन हम उसे जिंदा कर देते हैं वह हर एक मे व्याप्त रहेगा । जलचर , नभचर । जीव निर्जीव सब मे काम देव रहेंगे । रति श्राप देती है पार्वती की कोख सदा सूनी रहेगी शिव ।
यह ऋतु है बसंत के विस्तार की और रति के विलाप की । श्रृंगार रस के दोनों भाग मिलेंगे मिलन का सुख और विलग का दुख । दोनों इस माह उत्सव में रहेंगे ।
आप अपने हिस्से को थाम लीजिये ।
बसंत यात्रा मंगलमय हो।