यूपीए से ज्यादा तो एनडीए है बिखराव का शिकार

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बिखराव का शिकार
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अनिल जैन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प बनने के लिए बेताब तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो और पश्चिम बंगाल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पिछले दिनों कहा कि कांग्रेस अब विपक्ष की भूमिका निभाने और विपक्षी एकता की अगुवाई करने में सक्षम नहीं है। यह कहने के साथ ही उन्होंने यह सवाल भी उठाया कि यूपीए अब कहां है? हालांकि उनके इस सवाल पर तमिलनाडु की सत्तारूढ़ द्रविड़ मुनैत्र कड़गम यानी डीएमके, शिव सेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) आदि विपक्षी पार्टियों ने तत्काल प्रतिक्रिया जताते हुए साफ कर दिया कि कांग्रेस के बगैर कोई विपक्षी मोर्चा नहीं सकता। डीएमके की ओर से यह भी कह दिया गया कि वह अभी भी यूपीए में ही है और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अगुवाई में यूपीए अभी भी अस्तित्व में है।
गौरतलब है कि यूपीए यानी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का गठन 2004 में लोकसभा चुनाव के बाद हुआ था। कांग्रेस की अगुवाई में बने इस गठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल, डीएमके, एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस, लोक जनशक्ति पार्टी, झारखंड मुक्ति मोर्चा, नेशनल कांफ्रेन्स, तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस), केरल कांग्रेस, भारतीय मुस्लिम लीग आदि पार्टियां शामिल थीं। केंद्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में इस गठबंधन की सरकार बनी थी।
यह सही है कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में यूपीए को करारी हार का सामना करना पड़ा और उसके एक-दो घटक भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए में शामिल होकर सरकार का हिस्सा बन गए। लेकिन चार राज्यों तमिलनाडु, महाराष्ट्र, झारखंड और कर्नाटक में उसने एनडीए को सत्ता से बेदखल किया। बिहार में भी उसने एनडीए को कड़ी टक्कर दी लेकिन मतगणना के दौरान चुनाव आयोग के विवादास्पद और पक्षपातपूर्ण फैसलों ने उसे बहुमत हासिल करने से रोक दिया। कर्नाटक में भी उसकी सरकार लंबे समय तक नहीं चल पाई और वहां विधायकों की खरीद-फरोख्त और बड़े पैमाने पर दलबदल के जरिए भाजपा सत्ता पर काबिज हो गई।
जो भी हो, यूपीए ने भले ही पिछले सात सालों के दौरान मौजूदा सरकार की जनविरोधी नीतियों और कार्यक्रमों के खिलाफ आंदोलन या संघर्ष का कोई कार्यक्रम नहीं बनाया हो, मगर उसका वजूद तो बना हुआ ही है। अगर लोक जनशक्ति पार्टी जैसी एक-दो पार्टियां उसे छोड़ कर एनडीए में शामिल हुई हैं तो शिव सेना जैसा एनडीए का सबसे पुराना और मजबूत घटक भाजपा से नाता तोड़ कर यूपीए के साथ अनौपचारिक तौर पर जुड़ा भी है। महाराष्ट्र में उसके नेतृत्व में गठबंधन सरकार चल रही है, जिसमें कांग्रेस और एनसीपी साझेदार है।
बहरहाल यूपीए के वजूद पर ममता बनर्जी के सवाल उठाए जाने के बाद से भाजपा के प्रचार तंत्र के रूप में काम करने वाले मीडिया में यह बहस लगातार चल रही है कि यूपीए अब कहां है, कौन उसका अध्यक्ष है, किसी को याद नहीं कि उसकी आखिरी बैठक कब हुई थी आदि आदि। अगर इसी आधार पर गठबंधन का आकलन करना है तो फिर सवाल उठता है कि एनडीए कहां है? उसमें कौन-कौन सी पार्टियां शामिल हैं? उसका अध्यक्ष कौन है और उसकी आखिरी बैठक कब हुई थी? हकीकत यह है कि एनडीए भी सिर्फ कहने भर को है और कागजों पर ही है। अगर उसमें शामिल रही पार्टियों के उससे अलग होने की चर्चा करेंगे तो पता चलेगा कि वह यूपीए से ज्यादा बिखरा हुआ और लुंजपुंज हालत में है।
भाजपा के नेतृत्व में एनडीए का गठन 1998 में हुआ था। उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम की छोटी-बड़ी 27 पार्टियों को मिला कर बने देश के इस सबसे बड़े गठबंधन की अटल बिहारी वाजपेयी के अगुवाई में सरकार बनी थी। वह सरकार छह साल तक चली। साल 2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए के सत्ता से बाहर होते ही कई दल उस गठबंधन से छिटक गए। भाजपा के साथ उस गठबंधन में रह गए थे सिर्फ शिव सेना, शिरोमणि अकाली दल, जनता दल (यू), अन्ना द्रमुक और तेलुगू देशम पार्टी। लेकिन 2014 के चुनाव में एनडीए का फिर विस्तार हुआ और करीब 16 छोटी-बड़ी पार्टियां उसका हिस्सा बनी, लेकिन पांच साल बाद ही कई पार्टियों ने उससे नाता तोड़ लिया।
कहने को तो आज भी एनडीए अस्तित्व में है, लेकिन उसमें भाजपा के साथ रही सबसे पुरानी दो सहयोगी पार्टियां उससे न सिर्फ अलग हो गई हैं बल्कि दोनों के साथ भाजपा की दुश्मनी चल रही है। भाजपा की सबसे पुरानी और विश्वस्त मानी जाने वाली शिव सेना थी, जो एनडीए में उसके गठन के पहले दिन से शामिल थी लेकिन अब वह पिछले डेढ़ साल से कांग्रेस के साथ है और महाराष्ट्र में उसके तथा एनसीपी के साथ मिल कर सरकार चला रही है। भाजपा और शिव सेना की दुश्मनी का आलम यह है कि महाराष्ट्र में शिवसेना की अगुवाई वाली गठबंधन सरकार को एक तरफ राज्यपाल के जरिए आए दिन परेशान किया जा रहा है तो दूसरी ओर उसके कई नेताओं को आयकर और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) जैसी केंद्रीय एजेंसियों ने अपने निशाने पर ले रखा है।
शिव सेना की तरह ही शुरू से एनडीए में रहा अकाली दल भी एक साल पहले तीन कृषि कानूनों का विरोध करते हुए भाजपा और एनडीए से नाता तोड़ चुका है। उसके साथ भी भाजपा ने शत्रुतापूर्ण रवैया अपना रखा है। दिल्ली में अकाली दल के सबसे बड़े नेता को तोड़ कर अपने साथ लाने के बाद अब भाजपा पंजाब में भी अकाली दल को तोड़ने के लिए मेहनत कर रही है।
अटल बिहारी वाजपेयी के समय बने एनडीए में भाजपा के साथ रही तेलुगू देशम पार्टी भी बहुत पहले एनडीए से नाता तोड़ चुकी है। एक समय एनडीए का हिस्सा रही हरियाणा की दो पार्टियां-ओमप्रकाश चौटाला का इंडियन नेशनल लोकदल और कुलदीप विश्नोई की हरियाणा जनहित कांग्रेस भी अब भाजपा के साथ नहीं हैं। झारखंड की पार्टी ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) भी भाजपा से अलग हो चुकी है। उत्तर प्रदेश में कुछ समय पहले तक भाजपा की सहयोगी रही सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी भी अब उसके साथ नहीं है और वह समाजवादी पार्टी के गठबंधन में शामिल हो गई है।
कुल मिलाकर हाल के वर्षों में यूपीए से ज्यादा बिखराव का शिकार एनडीए हुआ है। जनता दल (यू) के अलावा भाजपा के सभी बड़े सहयोगी दल एनडीए से बाहर निकल चुके हैं। अलबत्ता पूर्वोत्तर के राज्यों में जरूर भाजपा ने अपने पैर जमाने के लिए वहां के अलगाववादी गुटों से हाथ मिला कर उन्हें अपने गठबंधन में शामिल किया है। ऐसे संगठनों के सहयोग से असम, मणिपुर, अरुणाचल, त्रिपुरा आदि राज्यों में उसने चुनाव भी लड़े हैं और अब उनके साथ वह सरकार भी चला रही है।
यूपीए और एनडीए के बारे में एक दिलचस्प बात यह भी है कि यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी हैं, यह तो सबको मालूम है, लेकिन यह बहुत कम लोगों को मालूम है और शायद एनडीए में शामिल कई दलों को भी नहीं मालूम होगा कि एनडीए के चेयरमैन 2014 के बाद से अभी तक अमित शाह ही हैं।

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