मुलताई की कहानी खुद डॉ. सुनीलम की जुबानी 

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आज ही के दिन 25 वर्ष पहले मुलताई तहसील परिसर में पुलिस द्वारा बर्बर फायरिंग की गई थी। यह फायरिंग एक षड्यंत्र था तथा किसानों को सदा के लिए चुप का दुस्साहस था। यह दुस्साहस को नई नहीं थी क्योंकि शासकों ने सदा जनता की आवाज को दबाने के लिए हिंसा का सहारा लिया है।बिरसा मुंडा, तिलका मांझी, टंट्या भील जैसे आदिवासी नायकों ने अपने अपने काल में वह सब कुछ अंग्रेजों के सामने आवाज उठाते हुए भोगा था, जो मुलताई के किसानों ने भोगा। इसका मतलब यह है कि देश अवश्य आजाद हो गया लेकिन असहमति के स्वर को कुचलने का सिलसिला आजादी के बाद भी ज्यों का त्यों जारी है।

शासक जनता को गुलाम बना कर रखना चाहता है तथा गुलामों की कोई आवाज और पहचान नहीं होती। हाल ही में 25 दिसंबर को जब मैं मामा बालेश्वर दयाल के भील आश्रम बामनिया गया था तब, मामा जी की बेगारी प्रथा और जागीरदारी प्रथा को समाप्त कराने के लिए किए गए संघर्षों को एक बार फिर जानने और सुनने का मौका मिला। दोनों प्रथाएं तो खत्म हो गई लेकिन जो सत्ता में आ जाते हैं वे जिस क्षेत्र से चुने जाते हैं उसे जागीर समझते हैं तथा अपनी शर्तों पर सब कुछ कराना चाहते हैं। इसी मानसिकता के परिणाम स्वरूप मुलताई गोली चालन हुआ था।

किसान अतिवृष्टि और ओलावृष्टि से नष्ट हुई फसलों का मुआवजा मांग रहे थे। सरकार उन्हें कानून का हवाला देकर बतला रही थी कि राजस्व आचार संहिता की धारा 6/4 की किताब में बिना तहसील की अनावारी 37% से कम हुए मुआवजा देने का कोई प्रावधान नहीं है। यह वही तर्क था जो रियासतों के जागीरदारों द्वारा दिया जाता था कि बेगारी कराना कानूनी है। बाकायदा इसके परिपत्र निकले हुए थे। जो बेगारी नहीं करता था उस पर बाकायदा मुकदमा चला कर जेल भेजा जाता था।

कानून नागरिकों के लिए बनाए जाते हैं, नागरिक कानून के लिए नहीं। समाज की व्यवस्था लोकतंत्र, समता, अहिंसा, न्याय, बंधुत्व के आधार पर समाज को चलाने के लिए बनाए जाने चाहिए तथा जो भी कानून इन मूल्यों में अवरोधक बने उन्हें बदल दिया जाना चाहिए। सरकारों द्वारा लगातार कानून बनाए और बदले भी जाते रहे हैं विधायिका का है परंतु उसके संवेदनशीलता एवं आवश्यकता पढ़ने पर तुरंत परिवर्तन की क्षमता इतनी कम है कि आवश्यकतानुसार परिवर्तन के लिए कानून बनाने में सालों लग जाते हैं। मध्य प्रदेश की सरकारों और पार्टियों ने मुलतापी गोली चालन से सबक नहीं सीखा।

मंदसौर में 2017 में गोली चालन किया गया। वहां भी सवाल किसानों को फसलों को उचित दाम देने का था, लेकिन सरकार ने दाम देने के बजाय गोली चालन करना ज्यादा बेहतर समझा। मंदसौर गोली चालन से देश के किसानों की गोलबंदी बढ़ी। उन्होंने अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति बनाकर संपूर्ण कर्जा मुक्ति तथा लाभकारी समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी कानून बनाने को लेकर आंदोलन शुरू किया।

किसान समर्थक सांसदों ने कानून का मसौदा पेश किया, लेकिन उन कानूनों को पारित नहीं किया गया। उसके विपरीत मोदी सरकार ने कारपोरेट को अधिकतम मुनाफा दिलाने के लिए 3 किसान विरोधी कानून किसानों पर थोप दिए, जिससे स्पष्ट हो गया कि देश में विधायिका नागरिकों की आवश्यकता अनुसार नहीं कारपोरेट के हित पूर्ति के लिए कार्य कर रही है।

यह सर्वविदित है कि किसानों और किसान संगठनों को फिर एक बार अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति का विस्तार कर संयुक्त किसान मोर्चा बनाकर 380 दिन तक संघर्ष करना पड़ा, जिसमें 715 किसान शहीद हुए। चुनाव नजदीक आने पर सरकार को समझ आया कि यदि उसने किसानों की मंशा के विपरीत किसानों पर थोपे गए कानून वापस नहीं लिए तो सत्ता गंवानी पड़ेगी। तब सरकार  3 किसान विरोधी कानून वापस लेने को मजबूर हुई लेकिन अभी भी तीनों कानूनों की वकालत गाहे-बगाहे कृषि मंत्री एवं अन्य मंत्रियों द्वारा लगातार की जाती रहती है।

 

भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने का संघर्ष भी इसी तरह का था । सरकार अंग्रेजों के जमाने के 1994 के भू अर्जन कानूनों को बदलने को तैयार नहीं थी। जन संगठनों ने संघर्ष कर उसे बदलवाया लेकिन मोदी सरकार ने आकर फिर सभी पार्टियों की सहमति से बनाए कानून को बदलने की कोशिश की। तब बड़ा संघर्ष चला, मोदी सरकार को पीछे हटना पड़ा लेकिन केंद्र सरकार के असफल होने के बाद मोदी सरकार ने अपनी भाजपा की राज्य सरकारों से अपनी इच्छा अनुसार परिवर्तन करा लिए। फिर से एक बार कारपोरेट हित को सर्वोपरि मानकर किसान विरोधी कानून लागू कर दिए गए।

पूरी बात का लब्बोलुआब यह है कि सरकार किसानों की मंशा अनुसार और आवश्यकतानुसार कानून बनाने को तैयार नहीं है। इसी कारण संयुक्त किसान मोर्चा को एक बार फिर पूरे देश में एमएसपी की कानूनी गारंटी का कानून बनाने के लिए फिर से राष्ट्रव्यापी आंदोलन के लिए कमर कसनी पड़ रही है। इस बार आंदोलन की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है। 26 नवंबर को देश के राज भवनों पर किसानों के बड़े प्रदर्शन हुए हैं तथा 26 जनवरी को ऐतिहासिक ट्रेक्टर मार्च देश भर में निकाले जाने वाले हैं।
देखना यह है कि सरकार मुलताई गोली चालन, मंदसौर गोली चालन जैसा दमन का रास्ता अपनाती है या किसानों की आवाज सुनकर संपूर्ण कर्जा मुक्ति और एसपी की कानूनी गारंटी का कानून लागू करती है। कुल मिलाकर आवश्यकतानुसार कानून बनाने का काम ही विधायिका का है। वह किसानों की परीक्षा में पास होती है या फेल। यह अगले 1 वर्ष में देखने मिलेगा।

आज के अखबारों में यह खबर छपी है कि जैन समाज के आंदोलन के बाद पर्यावरण मंत्रालय ने सम्मेद शिखर को पर्यटन स्थल बनाने की घोषणा रद्द कर दी है, लेकिन सरकार ने यह तब किया जब पूरे देश के जैन समाज सहित सोचने समझने वालों ने विरोध किया तथा संज्ञेय सागर महाराज की 10 दिन के अनशन के बाद शहादत हुई। इसी तरह हल्द्वानी में रेलवे की जमीन मुक्त कराने के लिए 40,000 आबादी के सड़क पर आने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी।
नतीजा साफ है जब निर्णय किए जाते हैं तब उसका क्या असर होगा यह देखने की जरूरत नहीं समझी जाती। यही हाल विधायिका द्वारा कानून बनाने को लेकर है। विधायिका को इस तरह की प्रक्रिया विकसित करने की जरूरत है कि जन विरोधी कानून न बने।

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