जेपी सिंह
उच्चतम न्यायालय के जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस सूर्यकांत की पीठ ने हिंदुस्तान जिंक के विनिवेश फैसले में सीबीआई जांच का पेंच फंसा दिया है और न्यायालय के कड़े रुख को देखते हुए मोदी सरकार भी बैकफुट पर आ गयी है। पीठ ने कहा कि उसने दस्तावेजों और सीबीआई की जांच रिपोर्टों के साथ-साथ उसकी क्लोजर रिपोर्ट का भी गहन अध्ययन किया है, और इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि मामले की शुरू से जांच की जानी चाहिए। सॉलिसिटर जनरल ने पीठ का रुख भांपकर हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड (एचजेडएल) की 26 प्रतिशत हिस्सेदारी के बिक्री के फैसले की जांच केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) से कराने के उच्चतम न्यायालय के आदेश को वापस लेने की अर्जी को वापस ले लिया है। उच्चतम न्यायालय के इस निर्देश को वापस लेने की मांग करने वाली एक अर्जी सरकार ने भी दाखिल की थी।
उच्चतम न्यायालय ने 18 नवंबर, 2021 को सीबीआई को एचजेडएल हिस्सेदारी बिक्री मामले की जांच के लिए एक नियमित वाद दायर करने और कानून के हिसाब से आगे बढ़ने का निर्देश दिया था। सरकार ने वर्ष 2002 में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी एचजेडएल में अपनी 26 प्रतिशत हिस्सेदारी बेच दी थी।
दरअसल तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के कार्यकाल में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की बिक्री को लेकर कुछ ऐसे तथ्य उभरने लगे हैं, जिससे अटल बिहारी वाजपेयी की साफ-सुथरी छवि को बट्टा लग सकता है। हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड और स्टर्लाइट अपॉर्च्युनिटीज एंड वेंचर्स लिमिटेड (SOVL) के बीच हुई डील में भी ऐसी ही गड़बड़ी का मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, जिसमें सरकार ने अपनी ही जांच एजेंसी सीबीआई को ‘झूठा’ बता दिया है। जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस सूर्यकांत की पीठ ने सोमवार को सरकार की इस अर्जी को वापस लेने संबंधी सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के निवेदन को स्वीकार कर लिया। मेहता ने कहा कि सरकार इस आदेश की समीक्षा समेत अन्य कानूनी विकल्पों का सहारा लेने पर गौर करेगी। पीठ ने कहा कि इस डील के विभिन्न बिंदुओं की पड़ताल करने के बाद मामले की गहन जांच करवाने की जरूरत समझ में आई है। कोर्ट ने कहा कि डील की एक दो नहीं बल्कि 18 बिदुओं को लेकर संदेह है, जिनकी जांच होनी ही चाहिए। वाजपेयी सरकार में अरुण शौरी विनिवेश मंत्री थे, जिनकी देखरेख में सार्वजनिक क्षेत्र की कई कंपनियों की धड़ाधड़ बिक्री की गई थी। अब कुछ बिक्रियों पर सवाल उठ रहे हैं और कहा जा रहा है कि तत्कालीन सरकार ने इन कंपनियों को औने-पौने दामों में निजी कंपनियों को बेच दिया था।
हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड की बिक्री के मामले में केंद्र सरकार ने एक बेहद अप्रत्याशित रुख दिखाते हुए केंद्रीय जांच एजेंसी सीबीआई को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने उच्चतम न्यायालय में कहा कि अटल बिहार वाजपेयी सरकार में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी, हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड की बिक्री को लेकर सीबीआई ने उच्चतम न्यायालय को गलत जानकारी दी है। उन्होंने कहा कि सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में जो मौलिक तथ्य पेश किए थे, वो झूठे थे या संभवतः गलत हैं, विनिवेश की निर्णय प्रक्रिया को लेकर उच्चतम न्यायालय में सीबीआई की कही गई एक-एक पंक्ति झूठी थी या गलत।
सॉलिसिटर जनरल ने अपनी दलील में कहा कि किसी एक व्यक्ति ने फैसला नहीं लिया जैसा कि सीबीआई की तरफ से जताया गया है।यह तथ्यात्मक रूप से गलत है। यह त्रिस्तरीय सामूहिक फैसला था। अधिकार प्राप्त सचिवों के समूह ने प्रस्ताव की पड़ताल की थी जिनमें विभिन्न विभागों के 10 से 12 सचिव शामिल थे। उनके विचारों की पड़ताल विनिवेश प्रस्तावों पर फैसले के लिए गठित प्रमुख समूह ने की। आखिर में केंद्रीय कैबिनेट ने सभी के विचारों को जांचा-परखा और तथ्यों एवं विचारों के पूरे पुलिंदे के मद्देनजर पूरी तरह सोच-विचार के बाद फैसला लिया। उन्होंने कहा कि सीबीआई ने गलत तथ्य रखे, जिनके आधार पर उच्चतम न्यायालय ने भी गलत निष्कर्ष निकाला। ऐसे में उच्चतम न्यायालय को सोचना चाहिए कि वह मामले में सीबीआई को एक रेग्युलर केस दर्ज करने के अपने निर्देश को वापस लेकर या उसमें सुधार करके अपनी गलती सुधारने पर विचार करे। इस पर जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस सूर्यकांत की पीठ ने कहा कि उसने दस्तावेजों और सीबीआई की जांच रिपोर्टों के साथ-साथ उसकी क्लोजर रिपोर्ट का भी गहन अध्ययन किया है, और इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि मामले की शुरू से जांच की जरूरत है। सॉलिसिटर जनरल ने पीठ का रुख भांपकर कहा कि वो उच्चतम न्यायालय से पुनर्विचार का आवेदन वापस ले लेंगे और इसकी जगह एक याचिका दायर करके पिछले साल 18 नवंबर को सीबीआई को दिए निर्देश की समीक्षा की गुहार लगाएंगे। इस पर पीठ ने उन्हें आवेदन वापस लेने की अनुमति दे दी।
दरअसल, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने 18 नवंबर 2021 के अपने फैसले में सीबीआई की क्लोजर रिपोर्ट पर आपत्ति जताई थी। उन्होंने सवाल किया था कि हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड की बिक्री में कई गड़बड़ियां नजर आ रही हैं, फिर भी सीबीआई किस आधार पर प्राथमिक जांच को बंद करने का आवेदन दे रहा है? जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि सीबीआई ने क्लोजर रिपोर्ट पेश करने से पहले सीएजी रिपोर्ट को भी किनारे कर दिया। इन सारी टिप्पणियों के साथ पीठ ने सीबीआई को मामले में रेग्युलर केस दायर करने का आदेश दिया था।
आदेश में कहा गया था कि सीबीआई हिंदुस्तान जिंक लि. और स्टरलाइट के बीच हुई डील में 18 संदिग्ध बिंदुओं की गहराई से जांच करे और समय-समय पर जांच से जुड़ी गतिविधियों की जानकारी कोर्ट को देते रहे। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने तब कहा था, ‘केंद्र सरकार द्वारा वर्ष 2002 में एचजेडएल के 26% विनिवेश को लेकर रेग्युलेर केस दर्ज करने की दृष्टि से पर्याप्त मटीरियल हैं। पीठ ने अपने आदेश में एचजेडएल में सरकार की और 29.5% हिस्सेदारी बेचने के फैसले को हरी झंडी दे दी। तत्कालीन यूपीए सरकार ने वर्ष 2012 में हिंदुस्तान जिंक लि. के और 29.5 प्रतिशत शेयर बेचे थे। इससे पहले, राजस्थान में जोधपुर की विशेष सीबीआई अदालत ने सितंबर 2020 में पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी समेत पांच लोगों के खिलाफ केस दर्ज करने का आदेश दिया था। तब अदालत के सामने लक्ष्मी विलास होटल को बाजार मूल्य से बहुत कम दाम में बेचने का मामला आया था। कोर्ट ने कहा था कि जिस होटल की कीमत ढाई सौ करोड़ रुपये से भी ज्यादा थी, उसे सिर्फ सात करोड़ रुपये के औने-पौने दाम में बेच दिया गया। वाजपेयी सरकार ने सरकारी कंपनियों को निजी हांथों में सौंपने के मकसद से 10 दिसंबर, 1999 को अलग विनिवेश विभाग का गठन कर दिया था। फिर 6 सितंबर, 2001 को विनिवेश मंत्रालय बना दिया गया, जिसकी कमान अरुण शौरी के हाथों सौंप दी गई। प्रधानमंत्री वाजपेयी के भरोसेमंद होने के कारण शौरी ने कई कंपनियों का सौदा कर डाला। यहां तक कि 14 मई 2002 को मारुति उद्योग लि. के विनिवेश को भी मंजूरी दे दी गई। दो चरणों में विनिवेश के बाद 2006 में भारत सरकार का मारुति उद्योग में स्वामित्व पूरी तरह खत्म हो गया। हिंदुस्तान जिंक लि. और भारत ऐल्युमीनियम (बाल्को), उन सरकारी कंपनियों में शामिल हैं जो वाजपेयी के शासनकाल में निजी हाथों में चली गईं। तब टाटा ग्रुप ने सीएमसी लि. और विदेश संचार निगम लि. खरीदी थीं। विनिवेश की प्रक्रिया यूं ही धड़ल्ले से चलती गई और सरकारी एफएमसीजी कंपनी मॉडर्न फूड इंडस्ट्रीज, इंडियन पेट्रोकेमिकल्स कॉर्प, प्रदीप फॉस्पेट्स, जेसॉप ऐंड कंपनी भी प्राइवेट सेक्टर को दे दी गईं। तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने वर्ष 2001 में घाटे में चलने वाली सरकारी कंपनियों के विनिवेश का कार्यक्रम शुरू किया था। इसी के तहत हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड को बिक्री के लिए रखा गया था। उस पर अप्रैल 2002 में, एसओवीएल ने कंपनी के शेयरों के अधिग्रहण के लिए एक खुली पेशकश की थी। भारत सरकार ने एसओवीएल को हिंदुस्तान जिंक के 26 फीसदी शेयर, मैनेजमेंट कंट्रोल के साथ 749 करोड़ रुपये में सौंप दिया था। बाद में एसओवीएल ने एचजेडएल के 20% अतिरिक्त शेयर पब्लिक से खरीद लिया। अगस्त 2003 में, एसओवीएल ने कॉल ऑप्शन क्लॉज का उपयोग कर भारत सरकार से पेडअप कैपिटल का 18.92 फीसदी अतिरिक्त शेयर खरीद लिया। इसके साथ ही हिंदुस्तान जिंक में एसओवीएल की हिस्सेदारी बढ़कर 64.92% हो गई। बताया जाता है कि इस तरह से 64 फीसदी शेयर खरीदने में एसओवीएल को महज 1500 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े। जबकि उस समय इसका बाजार मूल्य करीब एक लाख करोड़ रुपये था। इस कंपनी में अभी भारत सरकार की हिस्सेदारी 29.54% है। एसओवीएल का अप्रैल 2011 में स्टरलाईट इंडस्ट्रीज इंडिया लिमिटेड में विलय कर दिया गया था। अगस्त 2013 में सेसा स्टरलाइट लिमिटेड बनाने के लिए स्टरलाइट इंडस्ट्रीज का सेसा गोवा लिमिटेड के साथ विलय हो गया। अप्रैल 2015 में सेसा स्टरलाइट का नाम बदलकर वेदांत लिमिटेड कर दिया गया। इस तरह से अब हिंदुस्तान जिंक अब वेदांत लिमिटेड की सहायक कंपनी है। वेदांत लिमिटेड बड़े उद्योगपति अनिल अग्रवाल की कम्पनी है।
मीडिया में आई रिपोर्ट के मुताबिक जब सरकार ने महज 749 करोड़ रुपये में इस कंपनी का 26 फीसदी शेयर बेच दिया था, उसी समय उसका वैल्यूएशन 39,000 करोड़ रुपये बैठ रहा था। यही नहीं, बताया जाता है कि डील के वक्त कंपनी के पास 117 मिलियन टन खनिज रिजर्व में था। इसका खुलासा सौदे में हुआ ही नहीं था। बाद में, लंदन मैटल एक्सचेंज ने 117 मिलियन टन खनिज की कीमत 60 हजार करोड़ आंकी थी। (जनचौक से साभार )