द न्यूज 15
नई दिल्ली। जनवरी 1990 में हुए हिंदू जनसंहार को लेकर मीडिया की चुप्पी पर पहले भी प्रश्न उठते रहे हैं। ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने मीडिया की भूमिका को लेकर बेबाक टिप्पणियां की गई है, जिससे मीडिया की चयनित चुप्पी का प्रश्न फिर से केन्द्र में आ गया है। लाखों लोगों पर हुए अमानवीय अत्याचार के नगण्य मीडिया कवरेज से विश्वसनीयता का संकट तो पैदा ही हुआ है, सामाजिक-विक्षोभ की भी स्थिति भी पैदा हुई है। उस दौर के घटनाक्रम पर नजर डालने से यह स्पष्ट होता है कि मीडिया कवरेज न होने पीछे पांथिक और वैचारिक पूर्वाग्रह तो कार्य कर ही रहे थे। ऐसे भी कई उदाहरण मिलते हैं, जिससे यह स्थापित है कि स्थानीय मीडिया आतंकवादियों का सहयोग कर रहा था।
4 जनवरी 1990 को कश्मीर के स्थानीय उर्दू समाचार पत्र आफताब में हिज्बुल मुजाहिदीन की एक प्रेस विज्ञप्ति प्रकाशित की, जिसमें स्थानीय पंडितों से घाटी खाली करने की छोडने का निर्देश दिया गया था। इस प्रेस विज्ञप्ति में कश्मीरियों से वह भारत के खिलाफ जिहाद करने की अपील भी की गई थी । दो महीने बाद में स्थानीय उर्दू अखबार अलसफा में भी ऐसी चेतावनी प्रकाशित की गई। इसके कारण घाटी में भय की स्थिति पैदा हुई और हिंदुओं ने पलायन करना शुरू कर दिया।
एकतरफ आतंकवादी मीडिया का उपयोग अपने हितों के लिए कर रहे थे तो दूसरी तरफ इस बात के लिए सुनियोजित तरीके से प्रयास कर रहे थे कि इस अमानवीय अत्याचार की खबरें घाटी से बाहर न जाएं। इसके लिए चुन-चुनकर पत्रकारों को निशाना बनाया गया। पत्रकार-हत्याओं की जरिए उस समय ऐसा माहौल बना दिया गया था कि स्थानीय पत्रकारों ने चुप्पी साध ली।
19 जनवरी 1990 से लगभग दो साल पहले 27 दिसम्बर 1987 को प्रसिद्ध पत्रकार और वकील प्रेमनाथ भट््ट की आतंकवादियों ने हत्या कर दी थी। इसे आतंकवादियों द्वारा पत्रकारों में भय पैदा करने की पहली बडी कोशिश के रूप में देखा गया। 13 फरवरी 1990 को दूरदर्शन के कश्मीर केन्द्र के निदेशक लास्सा कौल की आतंकवादियों ने उनके घर के सामने गोली मारकर हत्या कर दी।
लास्सा कौल के नेतृृत्व में दूरदर्शन द्वारा जा रही कवरेज आतंकवादियों को नागवार गुजर रही थी। इसके कारण कश्मीर में दूरदर्शन का प्रसारण अगले कुछ सालों तक प्रभावित रहा। 01 मार्च 1990 को जम्मू-कश्मीर सरकार में सहायक निदेशक, सूचना पी.एन.हंडू की आतंकवादियों ने उस समय हत्या कर दी थी, जब वह अपने घर से कार्यालय जाने की तैयारी कर रहे थे।
इन हत्याओं के कारण निष्पक्ष स्थानीय मीडिया और पत्रकारों में भय का माहौल पैदा हो गया। मुख्यधारा की मीडिया भी जिन पत्रकारों पर निर्भर थी, वे मुख्यतः घाटी से ही थे। भयभीत स्थानीय पत्रकारों द्वारा इस जनसंहार की कवरेज न होने से यह परिघटना राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श का विषय नहीं बन सकी।