-सत्यवान ‘सौरभ’
भूल गए हम साधना, भूल गए हैं राम ।
मंदिर-मस्जिद फेर में, उलझे आठों याम ।।
प्रेम-त्याग ना आस्था, नहीं धर्म की खोज ।
भिड़े मजहबी होड़ में, मंदिर-मस्जिद रोज ।।
मंदिर-मस्जिद से भली, एक किताब दुकान ।
एक साथ है जो रखे, गीता और कुरान ।।
मंदिर में हैं टाइलें, मस्जिद में कालीन ।
लेकिन छप्पर में पढ़े, शिबू और यासीन ।।
भूखा प्यासा मर गया, मंदिर में इंसान ।
लोग भोग देते रहे, पत्थर के भगवान ।।
मंदिर से मस्जिद कहे, बात एक हर बार ।
मिटे न दुनिया की तरह, हम दोनों का प्यार ।।
मंदिर-मस्जिद बांटते, नफरत के पैगाम ।
खड़े कोर्ट में बेवज़ह, अल्ला औ’ श्रीराम ।।
मंदिर पूजन छोड़कर, उनको करूँ प्रणाम ।
घर-कुनबे जो त्यागकर, मिटे देश के नाम ।।
मंदिर के भीतर चढ़े, पत्थर को पकवान ।
हाथ पसारे गेट पर, भूखा है इंसान ।।
हम रहते हैं फूल से, हर पल यूं अनजान ।
मंदिर और श्मशान का, नहीं जिसे हैं भान ।।
(सत्यवान ‘सौरभ’ के चर्चित दोहा संग्रह ‘तितली है खामोश’ से। )